By सुखी भारती | Sep 11, 2025
भगवान शंकर के श्रीमुख से प्रस्फुटित होने वाली श्रीरामकथा परम पवित्र, अमृतमयी और अनन्त रत्नों से परिपूर्ण है। उनके प्रत्येक वचन से दिव्य ज्ञान और भक्ति का आलोक प्रकट होता है। इस दिव्य कथा की परम श्रोता स्वयं जगजननी पार्वती हैं, जो केवल अपने आत्मकल्याण के लिए ही नहीं, वरन् समस्त सृष्टि के कल्याण के हेतु इसे सुन रही हैं।
जगत में एक शंका प्रायः उठाई जाती है—क्या समस्त विश्व में व्याप्त ब्रह्म ही श्रीराम के रूप में अवतीर्ण हुए, अथवा वे केवल अयोध्यापति दशरथनन्दन एक सामान्य मानव मात्र थे? समाज का एक वर्ग आज भी उन्हें ईश्वर न मानकर साधारण मनुष्य सिद्ध करने में प्रयत्नशील है। यही संशय, यही भ्रान्ति मानवता के लिए अज्ञान का कारण बनती है।
किन्तु इस शंका का निराकरण स्वयं भोलेनाथ करते हैं। वे देवी पार्वती से कहते हैं—
“जेहि इमि गावहिं बेद बुध, जाहि धरहिं मुनि ध्यान।
सोइ दसरथ सुत भगत हित, कोसलपति भगवान।।’’
अर्थात जिनका गुणगान वेद और मनीषी निरन्तर करते हैं, जिनका ध्यान तपस्वी अपने हृदय में धारण करते हैं, वही दशरथनन्दन, भक्तों के हितकारी, अयोध्या के अधिपति भगवान श्रीराम हैं।
गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस केवल एक ग्रंथ नहीं, अपितु मानव जीवन का दर्पण और धर्म का सजीव शास्त्र है। इसमें प्रत्येक प्रश्न का उत्तर, प्रत्येक संशय का समाधान और प्रत्येक साधक के लिए पथप्रदर्शन विद्यमान है। यही कारण है कि अधर्मी व दूषित विचारधारा वाले लोग सामान्य जन को इस पावन ग्रंथ से दूर रखने का प्रयास करते हैं। वे भ्रांतियों का प्रचार कर, श्रीराम को साधारण ठहराने का यत्न करते हैं।
कुछ लोग कहते हैं—“श्रीराम तो केवल मनुष्य थे, उन्होंने सूर्पणखा का अपमान किया, इसी कारण रावण ने सीता-हरण किया।” किन्तु यह अज्ञान का अंधकार है।
वास्तव में सूर्पणखा अपने पति के दाह संस्कार हेतु लकड़ियाँ बीनने आयी थी। किंतु शोक और विरह के स्थान पर उसके मन में वासना का ज्वर उत्पन्न हुआ और उसने श्रीराम को पति के रूप में पाने का अनाधिकारिणी आग्रह किया।
श्रीराम ने अत्यन्त धैर्य और करुणा से उसे समझाया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि वे पहले ही विवाह-सूत्र में बँध चुके हैं। परन्तु वह नारीहठ में अडिग रही। इतना ही नहीं, उसने माता सीता का वध करने का कुप्रयास भी किया।
यह दृश्य शेषावतार श्रीलक्ष्मण जी के समक्ष घटित हुआ। लक्ष्मण जी के लिए माता सीता केवल भाभी न होकर आदिशक्ति जगदम्बा का स्वरूप थीं। ऐसे में क्या वे निःक्रिय रहते? निःसन्देह उन्होंने वही किया, जो एक पुत्र अपनी माँ पर प्रहार करने वाले के साथ करता।
श्रीराम को समझना केवल तर्क-वितर्क, ग्रन्थचर्चा अथवा कुतर्कियों की संगति से सम्भव नहीं। उनके वास्तविक स्वरूप का बोध तभी होता है जब साधक किसी ऐसे योगी की शरण ग्रहण करे, जो स्वयं ब्रह्मज्ञानी हो। भगवान शंकर ऐसे ही महायोगी हैं। वे राम को केवल दशरथनन्दन के रूप में ही नहीं, अपितु ब्रह्मस्वरूप परम तत्त्व के रूप में भी जानते हैं।
इसीलिए जब भगवान शंकर ने पार्वती को रामतत्त्व का निरूपण किया, तब—
“सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना।
मिटि गै सब कुतरक कै रचना।।
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती।
दारुन असंभावना बीती।।’’
अर्थात शिवजी के वचन सुनते ही पार्वती जी के हृदय के समस्त कुतर्क मिट गये। उनके मन में श्रीरामचरणों के प्रति प्रगाढ़ प्रेम और अटल विश्वास उत्पन्न हो गया। मिथ्या धारणाएँ, असम्भव कल्पनाएँ और समस्त शंकाएँ शून्य हो गयीं।
जब पार्वती जी का मन श्रीराम के प्रेम और श्रद्धा से परिपूर्ण हो गया, तब उन्होंने अत्यन्त कोमल स्वर में यह गंभीर प्रश्न प्रस्तुत किया—
“नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू।
मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू।।’’
हे प्रभो! हे वृषकेतु! श्रीराम ने मनुष्य का शरीर किस कारण धारण किया? यह दिव्य रहस्य कृपा कर मुझे बताइए।
यह प्रश्न केवल पार्वती जी का नहीं, अपितु समस्त भक्तों का प्रश्न है। क्योंकि प्रत्येक साधक के मन में यह विचार उठता है कि यदि भगवान सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और अजन्मा हैं, तो उन्हें मानव-शरीर धारण करने की आवश्यकता क्यों पड़ी?
देवी पार्वती का यह प्रश्न विश्व की जिज्ञासा का स्वर है, जो मानव-हृदय की गहराइयों से उठता है।
--क्रमशः
- सुखी भारती