गत दिनों दूरदर्शन पर एक प्रवचनकर्ता संस्कृति और विकृति के अंतर की चर्चा कर रहे थे। अपनी तरफ से उन्होंने बहुत सरल ढंग से बताने का प्रयास किया; पर मुझे वे बातें समझ नहीं आयीं। लेकिन गत दिनों घटित दो प्रसंगों ने इनका अंतर स्पष्ट कर दिया।
इसे भी पढ़ें: जन्मदिन (व्यंग्य)
मैं अपने घर से दूर रहता हूं, इसलिए भोजन के लिए होटल की ही शरण लेता हूं। मैं सोचता हूं कि यदि सभी लोग खुद ही भोजन बनाने लगें, तो उन बेचारे होटल वालों का क्या होगा, जो दिन भर आग के आगे खड़े रहते हैं। मैंने जिस होटल पर भोजन शुरू किया वहां प्रायः सभी उम्र के कर्मचारी काम करते थे। चालीस साल से लेकर 13-14 साल तक के लड़के वहां थे। उनमें से एक लड़का धनसिंह नेपाल का था। मुझे पहाड़ी जनजीवन से न जाने क्यों विशेष प्रेम है। मुझे उससे कुछ लगाव सा हो गया। ग्राहकों को पानी पिलाने का काम उसके जिम्मे था। होटल पर तरह-तरह के लोग आते हैं। कोई गाली देकर बात करता है, तो कोई हाथ पकड़कर। देर रात कोई शराबी भी आ जाता है, सबको संतुष्ट करना कितना कठिन होता है; पर मजबूरी क्या नहीं कराती ?
कुछ दिन में धनसिंह मुझसे खुल गया। मैं उससे गांव की बातें पूछता, तो उसकी आंखें भर आतीं। 13-14 साल की उम्र अधिक तो नहीं होती ? ऐसे में अपने माता-पिता और नैसर्गिक सुंदरता से परिपूर्ण, शांत व सुरम्य गांव को छोड़कर महानगर के गंदे वातावरण में रहने से उसके मन पर क्या बीत रही थी, यह मुझे धीरे-धीरे समझ में आने लगा। एक दिन मैंने देखा, वह एक अखबार के बालपृष्ठ को बड़ी रुचि से देख रहा था। मैंने उससे पढ़ाई के बारे में पूछा, तो पता लगा कि वह कक्षा पांच पास है। वह आगे पढ़ना चाहता था; पर पिताजी ने पैसा कमाने के लिए यहां भेज दिया। मैंने उसे कुछ बाल-पत्रिकाएं लाकर दीं, उसने उनमें बड़ी रुचि दिखायी। मैंने कहा कि यदि वह सुबह आठ बजे मेरे पास आ जाए, तो एक घंटा मैं उसे अंग्रेजी और गणित पढ़ा दिया करूंगा। वह सहर्ष आने लगा।
पर 15-20 ही बीते थे कि उसने आना बंद कर दिया। उसने बताया कि होटल-मालिक इससे नाराज होता है। क्योंकि वह सुबह के समय उससे होटल में सफाई भी करवाता है। फिलहाल उसकी प्राथमिकता पैसा है, इसलिए उसने पढ़ने आना बंद किया है। मैंने होटल-मालिक से पूछा, तो उसका उत्तर सुनकर मैं चैंक गया। वह बोला कि यदि ये लोग पढ़-लिख जाएंगे, तो फिर होटलों पर काम कौन करेगा ? इसलिए कुछ लोगों का अनपढ़ रहना भी जरूरी है। मुझे बहुत गुस्सा आया; पर मैं कर भी क्या सकता था ? मैंने बस इतना किया कि वहां भोजन करना बंद कर दिया।
अब दूसरा दृश्य देखें, जिसने मेरे मन में बहुत आशा एवं उत्साह का संचार किया। हमारे कार्यालय में कार्यरत एक सरल स्वभाव की महिला हैं। एक दिन कार्यालय के एक अन्य साथी के घर उनके बालक का जन्मोत्सव था। उन्होंने रविवार शाम चार बजे अल्पाहार का कार्यक्रम रखा, जिससे सब आसानी से आ सकें; पर उन महिला ने आने से विनम्रतापूर्वक मना कर दिया। सबको आश्चर्य हुआ, पूछने पर उन्होंने बताया कि वे रविवार शाम चार से छह बजे तक एक अन्य काम में व्यस्त रहती हैं। उसे छोड़ना संभव नहीं है। मुझे उत्सुकता हुई। ऐसा क्या काम है, जिसे छोड़ा नहीं जा सकता। पूछताछ से जो बात पता लगी, उससे मेरे मन में उनके प्रति अत्यधिक श्रद्धा का भाव जाग्रत हो गया।
वस्तुतः वे रविवार शाम को चार से छह बजे तक अपने घर से कुछ दूर स्थित एक निर्धन बस्ती में वहां के बच्चों को दो घंटे के लिए एकत्र करती थीं। इस दौरान कुछ खेल, कुछ देशगान, कुछ संस्कारप्रद कहानियां और कुछ गिनती, पहाड़े, ए.बी.सी.डी याद करवाने जैसे कार्यक्रम वे कराती थीं। साफ-सफाई और स्वास्थ्य-रक्षा संबंधी कुछ बातें भी वहां होती थीं। कुछ बच्चे भी कविता, गीत सुनाते या अभिनय करके दिखाते थे।
इसे भी पढ़ें: अभिनन्दन का वंदन (कविता)
इस कक्षा की सब बच्चों को पूरे सप्ताह भर प्रतीक्षा रहती थी। बच्चे चार बजे से पहले ही एकत्र हो जाते थे। उन्हें देखते ही सब चिल्लाते, ‘‘दीदी आ गयी, दीदी आ गयी।’’ और फिर दो घंटे तक उनके आदेश-निर्देश पर ही सब काम करते। केवल बच्चे ही नहीं, तो उनके माता-पिता भी दीदी का बड़ा आदर करते थे। वे यह देखकर बड़े हैरान होते थे कि उनकी नाक में हर समय दम करने वाले बच्चे दीदी के सामने गऊ जैसे शांत कैसे हो जाते हैं ?
अब मुझे संस्कृति और विकृति का अंतर समझ आया। एक ओर वह सम्पन्न होटल मालिक और दूसरी ओर अपनी घरेलू आवश्यकताओं के लिए एक निजी संस्था में नौकरी करने वाली महिला। प्रवचन में जो बात समझने में मैं असफल रहा, वह अब जाकर स्पष्ट हुई।
-विजय कुमार