कोरोना से ज़्यादा खतरनाक बीमारियां (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | May 17, 2021

अबुद्धिजीवियों से सब डरते हैं कि कहीं उनकी नज़र में गलत सवाल पूछ लिया, तो टांगें चलने लायक नहीं रहेंगी। इसलिए आजकल अधिकांश सवाल बुद्धिजीवियों से ही पूछ लिए जाते हैं क्यूंकि जवाब देते हुए वह खुद ही डरे रहते हैं। कहीं न कहीं पृष्ठ भूमि में, ‘जवाब जिनका नहीं वो सवाल होते हैं’ गूंजता रहता है। वक़्त की ज़रूरत के अनुसार अबुद्धिजीवीयों के बयान आजकल नदारद हैं, हां बड़े वरिष्ठजन, खिलाड़ी, वकील व शिक्षकों का कहना है कि उन्होंने आज तक ऐसी बीमारी नहीं देखी। स्वदेशी बीमारियों से संतुष्ट करोड़ों बंदों को पिछले कल तक पता नहीं चला कि समाज में कौन कौन सी बीमारियां हैं जो कोरोना से भी ज्यादा खतरनाक हैं। कोरोना तो चरित्र बदलाव में माहिर है लेकिन बचपन से कई जीवित बीमारियां दिखती रही हैं जिनका चरित्र स्थायी है। मन की बात कहती है, उन्होंने समाज को असमाज बना दिया है।

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गैर राजनीतिक दावे के साथ कहा जा सकता है कि इनका असर समाज पर कोरोना से भी गहरा हुआ है। अभिभावक, परिचित व अनन्य मित्र इस बारे चुप रहने को कहते हैं लेकिन इन प्रतिष्ठित कर्णधारों ने जातिपाति, धर्म और राजनीति के नियमित डोज़ देकर, जनता को कोरोना से भी खतरनाक संक्रमण का ग्रास बनाया है। इन बीमारियों ने हमारा मस्तिष्क निगल लिया है, राष्ट्रीय चरित्र चमका दिया है। इनके जनक नहीं मानते कि उन्होंने यह बीमारियां फैलाई है। क्या लोगों को शब्द जाल में फंसाकर, सुविधाएं देकर उनका मत छीन लेना गम्भीर बीमारी नहीं। लोगों को अंधविश्वास की गंगा में बहा देना उनके पाप बढ़ाना नहीं है। क्या पढ़े लिखे लोगों की बुद्धि कुंद कर छोड़ना उन्हें दवाइयों से वंचित करना नहीं है। राजनीति के सहारे सामाजिक स्वेटर को हर मौसम में उधेड़ते कर नया कोट बनाते रहना और आपसी विश्वास को वस्त्रहीन कर घुमाते रहने से तो कोरोना बेहतर लगता है।

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वे कोरोना से ज्यादा असहज बीमारियां हैं जो शालीन वस्त्र धारण कर अपनी कई मुंही ज़बान से मनमाना ज़हर फुफकारती रहती हैं। जिन्होंने समाज के किसी वर्ग को नहीं बख्शा सिवाए अपने। कुदरत के संहारक सबसे बड़े कातिल क्यूं नहीं हैं। दिन की सभाओं में भूखों की बातें और रात को हुई दावतें में, जिस्म खाकर नाचने वाले महाकोरोना हैं। वातानुकूलित कमरों में चर्चाएं कर पर्यावरण सुधार का दावा करने वाले भी तो कोरोना का दूसरा रूप हैं। छदम देशभक्ति का पाठ रटवाने वाले, सुबह से शाम तक इंसानियत का खून करने वाले, इंसानी शरीर को सब्जी समझने वाले, महामारी के दिनों में कालाबाजारी के रक्षक, ज़िंदगी को बाज़ार में तब्दील करने वाले सब कोरोना के सखा हैं। हम इनको पहचानने से हमेशा इनकार कर देते हैं। कोरोना को हमने पहलवान मान लिया है इसलिए सिर्फ उससे डरने लगे हैं और उससे जंग लड़ने की बातें करते हैं।


स्वदेशी बीमारियों से नहीं डरते तभी तो कई दशक निकाल दिए कि कहीं बीमारियां बुरा न मान जाएं लेकिन ज़िंदगी तो बुरा मानती रही। इन सबको सहते, मूक दर्शक हुए, समझदार, शिक्षित व बुद्धिजीवी लोग जो अब नुकसानदेह सामान की मानिंद हो गए हैं वे भी तो समाज के लिए कोरोना ही हैं।


- संतोष उत्सुक

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