भारतीय लोकतंत्र में सही नहीं राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच का विवाद

By डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Feb 23, 2022

केरल में कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की सरकार है और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार है। इन दोनों राज्यों के राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों की बीच सतत मुठभेड़ का माहौल बना रहता है। इन दोनों प्रदेशों से आए दिन ऐसी खबरें दिल्ली के अखबारों में मुखपृष्ठों पर छाए रहती हैं कि जो वहां किसी न किसी संवैधानिक संकट का संदेह पैदा करती रहती हैं। भारत की संघात्मक व्यवस्था पर भी ये मुठभेड़ें पुनर्विचार के लिए विवश करती हैं। यदि केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने अपने निजी स्टाफ में किसी व्यक्ति को नियुक्त कर लिया तो उन्हीं के वरिष्ठ अधिकारी को यह हिम्मत कहां से आ गई कि वह राज्यपाल को पत्र लिखकर उसका विरोध करे? जाहिर है कि मुख्यमंत्री पिनरायी विजयन के इशारे के बिना वह यह दुस्साहस नहीं कर सकता था। इस पर राज्यपाल की नाराजगी स्वाभाविक है। राज्यपाल आरिफ खान का तर्क है कि केरल में मंत्री लोग अपने 20-20 लोगों के व्यक्तिगत स्टाफ को नियुक्त करने में स्वतंत्र हैं। उन्हें किसी से पूछना नहीं पड़ता है तो राज्यपाल को अपना निजी सहायक नियुक्त करने की स्वतंत्रता क्यों नहीं होनी चाहिए? उन्होंने एक गंभीर दांव-पेंच को भी इस बहस के दौरान उजागर कर दिया है।

इसे भी पढ़ें: चुनौतियों के बावजूद भारत का लोकतंत्र सबल कैसे हो?

दिल्ली के केंद्रीय मंत्री अपने निजी स्टाफ में लगभग दर्जन भर से ज्यादा लोगों को नियुक्त नहीं कर सकते लेकिन केरल में 20 लोग की नियुक्ति की सुविधा क्यों दी गई है? इतना ही नहीं, ये 20 व्यक्ति प्रायः मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य होते हैं और इन्हें ढाई साल की नौकरी के बाद जीवन भर पेंशन मिलती रहती है। यह पार्टीबाजी का नया पैंतरा सरकारी कर्मचारियों के कुल खर्च में सेंध लगाता है। राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच इस बात को लेकर भी पिछले दिनों सख्त विवाद छिड़ गया था कि किसी विश्वविद्यालय में उप-कुलपति की नियुक्ति करने का अधिकार राज्यपाल को है या नहीं? मुख्यमंत्री तो प्रस्तावित नामों की सूची भर भेजते हैं। आरिफ खान कुछ अनुपयुक्त नामों से इतने तंग हो गए थे कि वे अपने इस अधिकार को ही तिलांजलि देने को तैयार थे।

इसे भी पढ़ें: मोदी सरकार में भारत का धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र खतरे में! जानें आखिर क्या है वास्तविकता

अब केरल के कम्युनिस्ट नेताओं ने यह गुहार लगाना भी शुरु कर दिया है कि राज्यपाल का पद ही खत्म कर दिया जाए या विधानसभा को अधिकार हो कि उसे वह बर्खास्त कर सके। उसकी सहमति से ही राज्यपाल की नियुक्ति हो। यदि केरल के कम्युनिस्ट नेताओं को इस बात को मान लिया जाए तो भारत का संघात्मक ढांचा ही चरमराने लग सकता है। प्रदेशों के कई राज्यपाल और मुख्यमंत्री मेरे व्यक्तिगत मित्र है। वे ऐसे विवादों का जिक्र अक्सर करते हैं। ऐसे विवादग्रस्त प्रांतों, खासकर राज्यपाल जगदीप धनखड़ और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के तनाव की खबरें पढ़कर मुझे बहुत दुख होता है। ममताजी कई बार अपने भाषणों और क्रिया-कलापों में मर्यादा लांघ जाती हैं। अन्य राज्यों से भी ऐसी शिकायतें आती रहती हैं। राज्यपाल का पद मुख्यमंत्री से ऊँचा होता है। इसलिए प्रत्येक मुख्यमंत्री के लिए यह जरुरी है कि वह किसी मुद्दे पर अपने राज्यपाल से असहमत हो तो भी वह शिष्टता का पूरा ध्यान रखे। इसी तरह से राज्यपालों को भी चाहिए कि निरंतर तनाव में रहने की बजाय अपने मुख्यमंत्री को सही और संवैधानिक मर्यादा बताकर उसे अपने हाल पर छोड़ दें। वह जो भी उटपटांग काम करेगा, उसका फल भुगते बिना नहीं रहेगा।


- डॉ. वेदप्रताप वैदिक

प्रमुख खबरें

Amitabh Bachchan ने तमिल फिल्म ‘Vettaiyan की शूटिंग पूरी की

Electoral Bond योजना दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला:कांग्रेस नेता गहलोत का दावा

Prime Minister Modi 14 मई को वाराणसी लोकसभा सीट से नामांकन पत्र दाखिल करेंगे

PM Modi आरक्षण विरोधी हैं, वह आपका आरक्षण छीनना चाहते हैं : Rahul Gandhi