By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | Jun 18, 2025
जब साहब का आदेश आया कि “हिन्दी में फ़ाइल लिखो, अंगरेज़ी में नहीं,” तो हमारे विभाग के कम्प्यूटर जैसे सन्न हो गए। उधर चपरासी ने चाय पूछी, इधर बाबू ने हिन्दी का पहला अक्षर पूछा—“भाई, फ़ाइल में ‘रिफरेंस’ की जगह क्या लिखें? संदर्भ? सुनते ही पेट में मरोड़!” कम्प्यूटर ने पंखा रोक दिया, प्रिंटर ने दस्ताने पहन लिए। जैसे ही एक वरिष्ठ अधिकारी ने फ़ाइल पर ‘निवेदन है कि…’ लिखा, नीचे से आत्मा कांपी और बोली—"मुझे इस अपमान से बचा लो, हे टाइपराइटर के देवता!"
दफ्तर में हिन्दी ऐसे चल रही थी जैसे बैलगाड़ी में रेसिंग करवाना। जो लोग अंगरेज़ी में “Yours faithfully” लिखते थे, अब “आपका विश्वासपात्र” लिखकर आत्महत्या के कगार पर थे। टाई लगाए बाबू अब हिन्दी में ‘संलग्नक’ और ‘प्रेषित’ जैसे शब्द देखकर बाथरूम भाग जाते थे। कुछ ने तो हिंदी शब्दकोश को इस तरह घूरा जैसे वो सीबीआई की चार्जशीट हो। एक बाबू ने “सूचना” को “इनफ़ॉर्मेशन” समझ कर छुट्टी की अर्जी दी—“सर, माफ कीजिएगा, मैं हिंदी से डर गया हूँ।”
हिन्दी अब फ़ाइलों की देहरी पर थी, पर भीतर घुसने नहीं दिया जा रहा था। अधिकारी महोदय ने तो कसम खा ली थी—“मैं अंगरेज़ी छोड़ सकता हूँ, पर अपनी बीवी की जगह हिन्दी नहीं!” वह रोज़ अपने कमरे में हिन्दी की आत्मा को बुलाते थे और कहते—“आ जाओ, घबराओ मत, तुम माँ हो…पर कमरे में पैर मत रखो।” जैसे ही हिन्दी ‘कार्यालय आदेश’ में आई, सबने अपने मोबाइल में गूगल ट्रांसलेट डाउनलोड कर लिया।
एक दिन दफ्तर में एक नयी कन्या आई—वह संस्कृत में एम.ए. थी और हिन्दी को सीने से लगाकर लाई थी। उसने जब फ़ाइल में लिखा—“प्रेषक को सूचित किया जाए कि…” तब साहब ने आँखें बंद कर लीं। बोले—“ऐसा तो मैंने जीवन में आखिरी बार गुरुकुल में सुना था, जब मुझे तुलसीदास की चौपाइयाँ पढ़नी थीं।” फिर धीरे से बोले—“तुम्हारी हिन्दी से मेरी अंग्रेज़ी शरमा गई है।”
हिन्दी अब सबके लिए हथियार नहीं, हथकड़ी बन गई थी। बच्चे ट्यूशन में जाकर “गुड मार्निंग” की जगह “शुभ प्रभात” बोलते थे तो मम्मी कहती थीं—“ये क्या संस्कृत सिखा रहे हैं वहां?” कार के शीशे पर स्टिकर लगने लगे—“सीमित गति में चलें, क्योंकि हिन्दी ज़िंदा है।” हिन्दी अब प्यार की नहीं, परीक्षा की भाषा हो गई थी। जिसे हिन्दी आती थी, वह लाचार था। जिसे नहीं आती थी, वह अफ़सर।
फिर एक घटना घटी—एक सज्जन हिन्दी में ‘स्पीच’ देने लगे। बोले—“आज हिन्दी दिवस पर हम संकल्प लेते हैं कि…” तभी माइक बंद हो गया, बिजली चली गई और आयोजक ने कहा—“बोलना बंद कीजिए, सबको सोने दीजिए।” हिन्दी भी रो पड़ी। वह स्टेज से उतरी और बोली—“मुझे जब बोलने का मौका मिलता है, तो माइक मर जाता है।” अगली बार उस सज्जन को अंग्रेज़ी में बोलने दिया गया, हिन्दी की आत्मा वहाँ भी ताली बजा रही थी।
अब हिन्दी के प्रचार में वही लोग लगे हैं, जिनके बच्चे अमेरिका में हैं। जिनका खुद का नाम ‘शर्मा’ है लेकिन दस्तखत ‘S. Ray’ करते हैं। हिन्दी अब भाषणों की चीज़ रह गई है। एक अफ़सर तो कहने लगे—“हिन्दी हमारी आत्मा है, पर प्रमोशन की सीढ़ी अंग्रेज़ी है।” एक दिन तो हद हो गई—हिन्दी में विभागीय परीक्षा हुई, टॉप किया तमिलनाडु के एक इंजीनियर ने। और भोपाल का हिन्दी भाषी छात्र फेल हो गया क्योंकि वह “पुनर्निर्माण” और “संप्रेक्षण” का अर्थ नहीं बता सका।
अब हिन्दी प्रेम केवल सरकारी फाइलों और दीवारों पर लिखा नारा बन गया है—“हिन्दी हमारी शान है”—जिसके ठीक नीचे लिखा होता है—“Speak only in English.” अब बच्चों को सिखाया जाता है—“A for Apple, B for Ball, C for Culture…जो हिन्दी में नहीं पढ़ते।” हिन्दी के लिए अब भी कुछ कवि आँसू बहाते हैं, हिन्दी के लिए साहित्य अकादमी में सम्मान बाँटा जाता है, लेकिन हिन्दी खुद को शीशे में देखकर पूछती है—“क्या मैं रानी हूँ या अब भी चेरी?”
अंततः हिन्दी अकेली पड़ गई है। वह अब मंच पर नहीं, मचान पर बैठी है। पाठशाला में नहीं, पाठ के बाहर है। उसे अब भी प्रेम चाहिए, पर दिखावा नहीं। वह अब राजभाषा नहीं, पीड़ाभाषा है। लोग उसके नाम पर तो खाते हैं, पर उसे कभी जीते नहीं। हिन्दी को माँ कहने वाले अब उसे वृद्धाश्रम भेजने की योजना बना रहे हैं।
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)