शौर्य और साहस का प्रतीक है होला मोहल्ला, गुरु गोबिंद ने की थी शुरुआत

By प्रज्ञा पाण्डेय | Mar 05, 2018

पौरूष और वीरता के चटख रंगों का प्रदर्शन करता है और लोगों के रोम-रोम में उत्साह भर जाता है। आपने सही समझा हम यहां होला मोहल्ला की बात कर रहे हैं। इसे जाबांजों की होली भी कहा जाता है। यह पौरुष के प्रतीक पर्व के रूप में मनाया जाता है।

होला मोहल्ला का अर्थ

होला मोहल्ला दो शब्दों से मिलकर बना है होला और मोहल्ला। इसमें होला होली को ही सकारात्मक अर्थ में कहा गया है और मोहल्ला का अर्थ है उसे प्राप्त करने का पराक्रम।

 

श्री आनंदपुर साहिब में लगता है मेला

आनंदपुर साहिब चंडीगढ़ से 85 किमी दूर है। सिक्ख धर्म में आनंदपुर साहिब का विशेष महत्व है। इस समय आनंदपुर साहिब की सुंदर सजावट होती है और विशाल लंगर का भी आयोजन होता है जिसका भक्त गण आनंद उठाते हैं। यह छः दिवसीय कार्यक्रम होता है जो होली के पहले ही शुरू होता है और दो दिन बाद तक चलता रहता है। इस बार यह कार्यक्रम 25 फरवरी से शुरू होकर 2 मार्च तक चलेगा।

 

कलाबाजी भी दिखाई जाती है

इस दौरान गतका का प्रदर्शन होता है। गतका को युद्धकला के नाम से जाना जाता है। इस दौरान अद्भुत उत्साह और शौर्य दिखाया जाता है। इसमें तलवारबाजी भी होती है। पंज पियारे जुलूस के नेतृत्व करते हुए रंग की भी बरसात करते हैं। जुलूस की शुरूआत तीन काले बकरों की बलि देकर की जाती है। यह जुलूस हिमाचल प्रदेश के पास चरण गंगा नदी के पास खत्म हो जाता है। चरण गंगा एक छोटी सी नदी है जो हिमाचल प्रदेश की सीमा से सटी होती है। इस बलि से प्राप्त मांस को भक्तों में प्रसाद के रूप में बांट दिया जाता है।

 

गुरु गोविंद ने की थी शुरूआत

गुरु गोविंद ने होली को होला मोहल्ला नाम दिया था। इसके माध्यम से वह समाज के शोषित और दलितों को समाज की मुख्यधारा में लाना चाहते थे। होला मोहल्ला कार्यक्रम की शुरूआत गुरु गोविंद सिंह ने ही की थी।  

 

प्रभु के साथ भी होली

गुरु गोविंद ने होला मोहल्ला को प्रभु के साथ रंग खेला कहा है। इसमें शामिल होने के लिए तमाम श्रद्धालु हरमिंदर साहब पहुंचते हैं। श्री गुरु गोविंद सिंह ने होली में आध्यात्मिकता का रंग भर दिया।

 

-प्रज्ञा पाण्डेय

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