दूसरों की सहायता करना संत रैदास जी के स्वभाव में था

By राकेश सैन | Jan 31, 2018

पिछली सदी के क्रांतिकारी विचारक आचार्य रजनीश ओशो ने ऋषि-मुनियों, गुरुओं व महापुरुषों से सुसज्जित भारतीय तारामंडल में संत रविदास जी को ध्रुव तारा बताया। ध्रुव तारा यानि स्थिरप्रज्ञता, मार्गदर्शन और भक्ति का संगम। गुरु रविदास जी जिस समय पैदा हुए देश में विदेशियों का शासन था, राजनीतिक व आध्यात्मिक अस्थिरता चारों ओर व्याप्त थी। पीड़ित समाज में भक्ति का स्थान तरह-तरह के कर्मकांडों ने ले लिया। ऐसे में समाज के लिए ध्रुवतारा बन कर आए रविदास जी। अपनी शिक्षाओं में गुरुजी ने जहां पराधीनता को पाप बताया वहीं ऐसे राज्य बेगमपुरा की कल्पना की जो अन्न-धन, समरसता से संपन्न हो। किसी को अभावग्रस्त जीवन जीने को विवश न होना पड़े। अपने महापुरुषों की इसी भावना को मूर्तरूप प्रदान करने को पिछली सदी में एक आंदोलन की शुरुआत हुई, जिसे आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाम से जाना जाता है। संघ के संस्थापकों ने अपने सम्मुख इन्हीं लक्ष्यों पूर्ण स्वराज्य और परम्वैभ प्राप्ति का लक्ष्य रखा। कहने का भाव कि बेगमपुरा और परम्वैभव शाब्दिक रूप से भिन्न दिखते हों परंतु इनका अर्थ एक ही है। गुरु रविदास जी व इन जैसे अनेकों महारुपुषों के आदर्शों की पूर्ति के लिए ही निरंतर साधनारत है संघ।

गुरु रविदास जी से पूर्व उनके गुरु रामानंद जी के बारे में जानना जरूरी है। 14वीं सदी में देश विदेशी आक्रांताओं से पददलित था। ऐसे समय में एक ब्राह्मण परिवार में जन्म हुआ स्वामी रामानंद जी का जिन्होंने समाज में समरसता को स्थापित करने के लिए राम भक्ति का द्वार सबके लिए सुलभ कर दिया। उन्होंने अपने यहां निर्गुण व सगुण दोनों भक्ति की धाराओं को स्थान दिया। उन्होंने संत रविदास के साथ-साथ अनंतानंद, भावानंद, पीपा, सैन, धन्ना, नाभा दास, नरहर्यानंद, सुखानंद, कबीर, सुरसरी, पदमावती जैसे बारह लोगों को अपना प्रमुख शिष्य बनाया, जिन्हें द्वादश महाभागवत के नाम से जाना जाता है। इनमें कबीर और रविदास ने निर्गुण राम की उपासना की। स्वामी रामानंद ने गुरुमंत्र दिया 'जात-पात पूछे ना कोई-हरि को भजै सो हरी का होई।' उन्होंने 'सर्वे प्रपत्तेधिकारिणों मता:' का शंखनाद किया और भक्ति का मार्ग सबके लिए खोल दिया। उन्होंने महिलाओं को भी भक्ति के मार्ग में समान स्थान दिया।

 

यह स्वामी रामानंद के ही व्यक्तित्व का प्रभाव था कि हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य, शैव-वैष्णव विवाद, वर्ण-विद्वेष, मत-मतांतर का झगड़ा और परस्पर सामाजिक कटुता बहुत हद तक कम हो गई। उनके ही यौगिक शक्ति से प्रभावित होकर तत्कालीन मुगल शासक मोहम्मद तुगलक संत कबीरदास के माध्यम से स्वामी रामानंदाचार्य की शरण में आया। तुगलक ने हिंदुओं पर लगे समस्त प्रतिबंध और जजिया कर को हटाने का निर्देश जारी किया। बलपूर्वक इस्लाम धर्म में दीक्षित हिंदुओं को फिर से हिंदू धर्म में वापस लाने के लिए परावर्तन संस्कार का महान कार्य स्वामी रामानंदाचार्च ने ही प्रारंभ किया। इतिहास साक्षी है कि अयोध्या के राजा हरिसिंह के नेतृत्व में चौंतीस हजार राजपूतों को एक ही मंच से स्वामीजी ने स्वधर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया था।

 

रामानंद जी इस बात से चिंतित थे कि हिंदू समाज का एक वर्ग को वंचित है वह बड़ी तेजी से इस्लाम की ओर आकर्षित हो रहा है। इस क्रम को रोकने व स्वजनों को मुख्यधारा में बनाए रखने के उनके उद्देश्य की पूर्ति की गुरु रविदास जी ने। गुरु रविदास जी का जन्म काशी में चर्मकार कुल में हुआ। उनके पिता का नाम संतोख दास (रग्घु) और माता का नाम कलसा देवी बताया जाता है। रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे। प्रारम्भ से ही रविदास जी बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। अत्यंत दीन-हीन दशा में रहते हुए भी वे ईश्वर भक्ति में लगे रहते और उनकी पूरे देश में फैल गई। इसी से प्रभावित हो कर मेवाड़ की रानी मीरा उनकी शिष्या बनी। गुरु रविदास जी देश की पराधीन से बहुत दुखी थे और अपने शिष्यों को संदेश देते थे कि -


पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत।

रैदास दास पराधीन सो, कौन करे है प्रीत।।

 

रैदास जी विनम्र भाव से कहते हैं कि हे मित्र, इस संसार में किसी की गुलामी स्वीकारना, उसके अधीन रहना सबसे बड़ा पाप है इसलिए मनुष्य को कभी गुलाम बन कर नहीं रहना चाहिए तथा जो गुलाम होते हैं उनसे कोई प्रेम भी नहीं करता। एक खुशहाल समाज की कल्पना करते हुए वे कहते थे कि - 

 

ऐसा चाहू राज मैं, जहाँ मिले सबन को अन्न।

छोट बड़ो सब सम बसै, रैदास रहे प्रसन्न।।

 

रैदास जी ऐसे समाज में ऐसी शासन व्यवस्था चाहते हैं जहाँ सबको भोजन मिले, कोई भी भूखा न सोये और जहाँ छोटे-बड़े की कोई भावना न रहे। सभी मनुष्य समान हो और प्रसन्न रहे इसी में रैदास भी प्रसन्न है। देश के समस्त महापुरुषों के प्रति सम्मान भाव रखने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी अपनी स्थापना के समय इन दोनों लक्ष्यों पूर्ण स्वराज्य और परम्वैभव को ही अपने सम्मुख रखा। संघ के एकातमस्रोत्म में अन्य महापुरुषों की भांति गुरु रविदास जी महाराज का नाम प्रतिदिन बड़े आदर के साथ लिया जाता है। संघ की प्रार्थना में प्रतिदिन ईश्वर से मांगा जाता है कि - 

 

परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं। 

समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्॥ 

 

अर्थात ईश्वर की कृपा से हमारी यह विजयशालिनी संगठित कार्यशक्ति हमारे धर्म का सरंक्षण कर इस राष्ट्र को वैभव के उच्चतम शिखर पर पहुँचाने में समर्थ हों। गुरु रविदास जी महाराज की जयंती पर आओ हम अपने देश, समाज को आगे ले जाते हुए एक सज्जन शक्ति का विकास कर मानवता का भला करने का संकल्प लें।

 

-राकेश सैन

 

प्रमुख खबरें

Porn Star से जुड़े मामले में Trump की पूर्व करीबी सलाहकार होप हिक्स बनीं गवाह

कनाडाई पुलिस ने Nijjar की हत्या के तीन संदिग्धों को गिरफ्तार किया: मीडिया की खबर

लगातार कम स्कोर वाली पारियों के दौरान सही लोगों के बीच में रहने की कोशिश कर रहा था: Jaiswal

Dhoni मेरे क्रिकेट करियर में पिता जैसी भूमिका निभा रहे हैं, उनकी सलाह से लाभ मिलता है: Pathirana