Gyan Ganga: देवऋर्षि नारद राजा शीलनिधि की कन्या के सौंदर्य पाश में कैसे बंध गये थे?

By सुखी भारती | Aug 04, 2022

शीलनिधि राजा ने देवऋर्षि नारद जी का विधिवत पूजा व सम्मान किया। उसके पश्चात् राजा शीलनिधि ने अपनी कन्या को आने को कहा। राजकुमारी विश्वमोहिनी के संबंध में, देवऋर्षि नारद जी को कुछ भी खबर नहीं थी। उन्हें बिल्कुल भी ज्ञान नहीं था, कि उसके क्या गुण हैं, क्या लक्ष्ण हैं। बस उन्हें तो राजकुमारी को साधारण भाव से ही देखना था। लेकिन देवऋर्षि नारद जी के समक्ष, जिस समय राजकुमारी विश्वमोहिनी उपस्थित होती है, तो देवऋर्षि नारद जी उसका सौंदर्य देख कर मानों ठगे से ही रह गए। श्रीहरि की बनाई सृष्टि में कोई इतना भी सुंदर हो सकता है, इसकी तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। राजा शीलनिधि ने देवऋर्षि नारद जी से कहा, कि हे नाथ! कृप्या आप हमारी कन्या के समस्त गुण-दोष बताने की कृपा करें। लेकिन राजा शीलनिधि को क्या पता था, कि देवऋर्षि नारद जी तो परम आश्चर्य में डूब रखे हैं। राजकुमारी विश्वमोहिनी को देख कर, उसके लक्षण बताना तो बहुत दूर की बात, मुनि तो स्वयं के साधुता वाले लक्षण भी भूल बैठे थे। अनंत लोकों के रमणकार होने के बावजूद भी, वे आज एक विलक्षण ही लोक में रमण कर रहे थे। वैराग्य, तप अथवा तपस्या क्या होती है, यह तो वे भूल ही गए थे। बस एक ही आश्चर्य था, कि आखिर कोई नारी इतनी अधिक सुंदर कैसे हो सकती है? मुनि राजकुमारी को देखते रहे, लेकिन उनके हृदय में क्या हर्ष चल रहा है, उन्होंने इसे किसी के समक्ष प्रकट नहीं किया-


‘देख रूप मुनि बिरति बिसारी।

बड़ी बार लगि रहे निहारी।।

लच्छन तासु बिलोकि भुलाने।

हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने।।’


कितने आश्चर्य का विषय था, कि जो मुनि का मन कामदेव के भयंकर बाणों से भी विचलित नहीं हुआ था, उसी कामदेव के आगमन को, मुनि के हृदय ने, अब सहर्ष स्वीकार किया था। आगमन क्या कहें, अपितु यह कहें, कि मुनि ने कामदेव को बड़े चाव से अपने हृदय में स्थान दिया था। केवल स्थान ही कहना भी उचित नहीं होगा। मुनि ने तो काम को मानो राम की भाँति ही पूजा था। राम का भक्त, आज काम का भक्त बन गया था। बात केवल यहीं तक ही सीमित नहीं थी। कारण कि देवऋर्षि नारद जी के चरण तो अभी फिसले ही थे। फिसलना तो, गिरने का आरम्भ भर होता है। अभी और कितनी पलटनियां खानी हैं, यह तो अभी आगे देखना था। उन पलटनियों की चोट भी कितनी गहरी होंगी, इसका तो अभी कोई अनुमान ही नहीं था। हम यह दावा ऐसे ही नहीं कर रहे। इसके पीछे ठोस कारण हैं। क्योंकि मुनि के हृदय में तो अभी काम ने ही वास किया था। देखिएगा, धीरे-धीरे बाकी के अवगुण भी सहज ही, पीछे-पीछे खिंचे आयेंगे। और आगे चलकर शीघ्र ही हुआ भी यही। मुनि ने जैसे ही राजकुमारी के लक्षणों को देखा, तो वे तो और ठगे रह गए। कारण कि राजकुमारी के लक्ष्ण थे ही ऐसे, कि कोई भी उस पर मोहित हो गए। राजकुमारी की भाग्य रेखायें स्पष्ट कह रही थी, कि इस कन्या को जो भी वरेगा, वह अमर हो जायेगा, और समर में उसे कोई भी नहीं जीत पायेगा। शीलनिधि की यह कन्या, जिस को भी पति रूप में स्वीकार करेगी, उसकी चर-अचर जगत में, समस्त जीव सेवा करेंगे-

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‘जो एहि बरइ अमर सोइ होई।

समरभूमि तेहि जीत न कोई।।

सेवहिं सकल चराचर ताही।

बरइ सीलनिधि कन्या जाही।।’


मुनि को अब तक तो मात्र कामदेव के बाणों ने ही मारा था। लेकिन अब उसमें लालच का भी आगमन हो गया। मन का राजा बनने में, जिन देवऋर्षि नारद जी ने वर्षों त्याग तपस्या में बिता दिए। वे मन पर राज करने वाले, मुनिदेव ने अब यह ठान ली थी, कि तीनों लोकों पर राज कैसे किया जाये। और यह सब तभी संभव हो पा रहा था, जब राजकुमारी विश्वमोहिनी उनको पति रूप में वरेगी। मुनि के मन क्या चल रहा था, यह तो किसी को भी भान नहीं था। और मुनि अपने अंतर मन के भावों को, लोक लज्जा के चलते, बाहर प्रकट भी नहीं कर सकते थे। इसलिए उन्होंने अपने किसी भी भाव को बाहर प्रकट नहीं होने दिया। और राजा शीलनिधि को ऐसे ही जोड़-तोड़ कर लक्षण बता कर सुना दिए। और फिर वहाँ से चल दिए-


‘लच्छन सब बिचारि उर राखे।

कछुक बनाइ भूप सन भाषे।।

सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं।

नारद चले सोच मन माहीं।।’

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देवऋर्षि नारद जी, शीलनिधि के नगर से, तन से तो चले जा रहे हैं। लेकिन मन से तो, अभी भी शीलनिधि की कन्या के सौंदर्य में ही अटके हुए हैं। आज तक जिन मुनि के हृदय में केवल श्रीहरि जी का ही सौंदर्य सर्वश्रेष्ठ था, अब उसका स्थान राजकुमारी विश्वमोहिनी के सौंदर्य ने ले ली थी। मुनि के कदम भले ही आगे ही बढ़ रहे थे, लेकिन तब भी कदमों ने रुचि तो पीछे ही पलटने में थी। अब मुनि ने एक विचार किया। विचार यह, कि बात तो अब तब बनती है, जब राजकुमारी मुझे ही वरे। लेकिन समस्या यह थी, कि मुनि की मुखाकृति तो पूर्णतः ही आकर्षण विहीन थी। तन पर न तो सुंदर साज-सज्जा ही थी, और न ही तन की कोई शोभा थी। पल्ले क्या था? मुनि ने सोचा कि जप-तप से तो कुछ होने वाला नहीं था। मुनि बस इसी उधेड़ बुन में लगे थे।-


‘करौं जाइ सोइ जतन बिचारी।

जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी।।

जप तप कछु न होइ तेहि काला।

हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला।।’


मुनि राजकुमारी को पाने हेतु क्या यतन करते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।


-सुखी भारती

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