4 राज्यों में सिमटी कांग्रेस देश पर राज करने का सपना कैसे देख रही?

By राकेश सैन | Mar 19, 2018

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफे से रिक्त हुई गोरखपुर और फूलपुर संसदीय सीटों के उपचुनाव में भाजपा चित हुई लेकिन कराहती कांग्रेस दिख रही है। सोनिया गांधी ने भाजपा विरोधी दलों को एकजुट करने व पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी का विपक्ष के नेता के रूप में नामकरण करवाने के उद्देश्य से गत मंगलवार को दिए गए रात्रिभोज में फूलपुर और गोरखपुर नामक कंकर पड़े दिखने लगे हैं। ऊपर से बिहार में लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल को मिली सफलता ने खीर में खट्टा गिराने का काम किया। उपचुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन ऐसा है कि विश्लेषण में इसका जिक्र न भी हो तो भी काम चल सकता है। मायावती, अखिलेश, लालू यादव के उभार ने कांग्रेस के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दीं। उपचुनावों में भाजपा ने तो तीन सीटें ही हारीं पर कांग्रेस की रणनीति शुरू होने से पहले ही बेअसर होती दिख रही है।

 

घोषित चुनाव परिणाम में गोरखपुर से भाजपा के उपेंद्र दत्त शुक्ल को सपा के प्रवीण निषाद ने 21961 और फूलपुर में भाजपा के कौशलेंद्र पटेल को सपा के नागेंद्र पटेल ने 59613 मतों से हराया। वहीं अररिया सीट पर राजद के सरफराज आलम ने 61988 मतों से जीत हासिल की है। उत्तर प्रदेश में देश की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के खराब प्रदर्शन का दौर जारी है। दोनों स्थानों पर कांग्रेस के उम्मीदवार जमानत बचाने में भी विफल रहे। कांग्रेस ने गोरखपुर से सुरहिता चटर्जी करीम को और फूलपुर से मनीष मिश्रा को प्रत्याशी घोषित किया। मनीष उत्तर प्रदेश कांग्रेस के महासचिव भी हैं। उनके पिता और पूर्व आईएएस अधिकारी जेएस मिश्रा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं। वह नौकरी छोड़ कर इंदिरा गांधी के निजी सचिव बने थे। इसके बावजूद मनीष जमानत नहीं बचा सके। सुरहिता चटर्जी भी गोरखपुर के लोकप्रिय चेहरों में से एक हैं। उन्होंने वर्ष 2012 में गोरखपुर के मेयर का चुनाव लड़ा था। तब उन्हें एक लाख वोट मिले थे। कमोबेश लगभग ऐसा ही प्रदर्शन बिहार में दोहराया गया है जहां राष्ट्रीय जनता दल ने जीत हासिल की।

 

आम चुनावों में निम्नतम 44 सीटें हासिल करने व चार प्रदेशों को छोड़ पूरे देश से सिमटने वाली कांग्रेस अपने अतीत को सम्मुख रख भाजपा विरोधी गठजोड़ के नेतृत्व को जन्मसिद्ध व नैसर्गिक अधिकार मानती है। यही दावा करने के लिए 13 मार्च को सोनिया ने विपक्षी नेताओं को भोज दिया। इसमें सीपीआई (एम), सीपीआई, तृणमूल कांग्रेस, बसपा, सपा, जद (एस), आरजेडी सहित 20 दलों के नेताओं ने हिस्सा लिया। इसमें एनसीपी के शरद पवार, सपा के रामगोपाल यादव, बसपा के सतीशचंद्र मिश्र, राजद से मीसा भारती और तेजस्वी यादव, माकपा से मोहम्मद सलीम, द्रमुक से कनिमोझी और शरद यादव आदि शामिल हुए। सोनिया का पूरा प्रयास है कि संभावित गठजोड़ की रथी राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ही बने। क्योंकि ऐसा होने से राहुल खुद ब खुद प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन जाते हैं।

 

गोरखपुर व फूलपुर के चुनाव परिणाम भाजपा ही नहीं बल्कि खुद सपा व बसपा के लिए भी अप्रत्याशित हैं। बुआ-बबुआ को भी उम्मीद नहीं थी कि उन्हें ऐसी सफलता मिलेगी। वे सोनिया के भोज में शामिल हुए लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव की पराजय के बोझ में दबे हुए, पर अब रातों-रात स्थिति बदली महसूस की जाने लगी है। माया, अखिलेश व लालू को उभार के संकेत मिले हैं। अब वे शायद ही कांग्रेस की शर्तों पर गठजोड़ में अपनी भूमिका स्वीकारें। यूपी-बिहार लोकसभा में 120 सांसद भेजते हैं जहां कांग्रेस की हालत मरणासन्न है, जिसका साफ संकेत 2017 के विधानसभा चुनाव और अब उपचुनाव से काफी पहले से ही मिलता रहा है। इन राज्यों में तीन क्षेत्रीय दलों का पुनर्जन्म भाजपा के लिए कम परंतु कांग्रेस के रास्ते की बड़ी रुकावट साबित हो सकता है। स्वाभाविक है कि एकाएक बदली परिस्थिति में यह दल गठजोड़ में अपनी ताजा हैसीयत के मुताबिक हिस्सा मांगेंगे जो अंतत: कांग्रेस की कीमत पर ही संभव होगा। जीत के नशे में चूर क्षत्रप कमजोर कांग्रेस की चलने देंगे यह मुश्किल बात लगती है।

 

यह एतिहासिक दुर्योग ही है कि वामदलों, बसपा, सपा, एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस सहित दक्षिण भारत के बहुत से दलों का उभार कांग्रेस द्वारा छोड़ी गई जमीन पर ही हुआ है। जब तक कांग्रेस इंदिरा गांधी के सशक्त नेतृत्व में रही उसने तत्कालीन कुछ क्षेत्रीय दलों व वामदलों और नेताओं से राजनीतिक समझौते तो किए परंतु उन्हें अपने पर हावी कभी नहीं होने दिया। इंदिरा ने जहां विरोधियों की दाल नहीं गलने दी वहीं सहयोगियों से भी अपनी जमीन बचाए रखी परंतु आज कांग्रेस केवल पंजाब, हिमाचल, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, गुजरात आदि कुछ राज्यों में ही भाजपा को सीधी टक्कर देने की हालत में है। बाकी देश में वह उन्हीं दलों पर निर्भर है जो खुद कांग्रेस की कीमत पर पले-बढ़े। फूलपुर व गोरखपुर ने इन दलों में फिर नई जान फूंक दी और अब ये कमजोर कांग्रेस के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव में उतरें इस असंभव को संभव करना सोनिया गांधी के लिए टेढ़ी खीर साबित होने वाली है। कांग्रेस पार्टी की कमजोरी ही केवल एक समस्या नहीं बल्कि उपलब्धियों की दृष्टि से पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी की कोरी अंकतालिका भी अतिरिक्त समस्या पैदा कर रही है। यही कारण है कि उपचुनावों के परिणामों पर कांग्रेस से न तो हंसा जा रहा है और न ही रोया। चाहे यह अंधविश्वास हो परंतु लगता है कि भोज से पहले 13 अंक का ध्यान नहीं रखा गया, चाहे अनचाहे इसे आज भी अशुभ ही माना जाता है।

 

-राकेश सैन

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