इक बंगला लगे न्यारा (व्यंग्य)

By विजय कुमार | May 31, 2018

गीत-संगीत की दुनिया चाहे जितनी प्रगति कर ले; पर जो बात पुराने गीतों में है, वो आज कहां ? हमारे शर्मा जी हर समय पुराने सदाबहार गीत ही सुनते रहते हैं। इससे उनके दिल-दिमाग में ठंडक और इस कारण घर में भी शांति रहती है। हमारे नगर के हृदय रोग विशेषज्ञ डॉक्टर सिन्हा तो अपने मरीजों को दवा के साथ पुराने गीतों की सी.डी. भी देते हैं। 

ऐसा ही एक पुराना गाना ‘इक बंगला बने न्यारा, रहे कुनबा जिसमें सारा...’ मेरे बाबा जी को बहुत पसंद था। हर बुजुर्ग की तरह उनकी भी यही इच्छा थी कि उनका बुढ़ापा नाती-पोतों के शोरगुल के बीच, उनके साथ खेलते हुए कटे। इसके लिए उन्होंने बड़ा सा मकान बनवाया; पर काम-धंधे के सिलसिले में पूरा परिवार उसमें रह नहीं सका। किसी ने ठीक ही कहा है कि भगवान की इच्छा के आगे किसका बस चला है ?

 

लेकिन इन दिनों उ.प्र. में सरकारी बंगलों के नाम पर लुकाछिपी का खेल चल रहा है। सरकार वर्तमान जन प्रतिनिधियों को राजधानी में उनकी हैसियत के अनुसार आवास देती है; पर कई नेता भूतपूर्व हो जाने पर भी आवास खाली नहीं करते। प्रशासनिक अधिकारी ये सोचकर चुप रहते हैं कि कल ये फिर सत्ता में आ गये तो.. ? सत्ताधारी भी सोचते हैं कि जबरदस्ती आवास खाली कराने से जनता में कहीं इनके प्रति सहानुभूति की लहर न चल पड़े। इसलिए कानूनी दांवपेंच और फजीहत के बावजूद राजधानी में मकान और बंगलों की समस्या सदा बनी रहती है।

 

कोई समय था, जब केन्द्र से लेकर राज्यों तक कांग्रेस की तूती बोलती थी। उसके नेता ही प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बनते थे। पर अब माहौल बदल गया है। कांग्रेस का वर्चस्व टूट गया है। नेता भी बार-बार बदलने लगे हैं। वर्तमान मुख्यमंत्री कब पूर्व और भूतपूर्व हो जाए, पता नहीं लगता। समस्या का कारण यही है।

 

उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य को ही लें। यहां एक वर्तमान के साथ छह पूर्व मुख्यमंत्री भी हैं। एक ऊपर चले गये, वरना इनकी संख्या सात होती। एक और जाने की तैयारी में हैं। इन सबको देहरादून में सरकारी भवन मिले हुए हैं। बिहार में लालू, राबड़ी देवी और उनके छोटे सपूत तीनों अलग-अलग बंगलों की सुविधा भोग रहे हैं। लगभग हर राज्य में यही हाल है। जहां नहीं है, वहां के नेता लगातार ये मांग कर रहे हैं। 

 

मजे की बात तो ये है कि जिनके पास निजी मकान हैं, उन्होंने वे किराये पर उठा दिये हैं और अपने रहने के लिए सरकारी मकान चाहते हैं। कई लोगों ने अपनी पार्टी के किसी दिवंगत नेता के नाम पर संस्था बनाकर उसके लिए बंगला स्वीकृत करा लिया है। आजादी के बाद से ही ये परम्परा चली आ रही है। कोई दल इसका अपवाद नहीं है। जब कुएं में ही भांग पड़ी हो, तो हर कोई बौराएगा ही।

 

लेकिन कुछ लोगों को बचपन से ही छेड़छाड़ की आदत होती है। ऐसा ही एक दिलजला लखनऊ में सरकारी आवासों की बंदरबांट को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में चला गया। वहां से आदेश आया कि सभी पूर्व मुख्यमंत्री आवास खाली करें। अब बड़े से लेकर छोटे नेता जी तक, सब परेशान हैं। उन्हें सरकारी आवास के साथ ही सरकारी गाड़ी, सुरक्षाकर्मी, नौकर-चाकर आदि की आदत पड़ गयी है। और न्यायालय कह रहा है कि घर खाली करो।

 

असल में जो ठाठ सरकारी बंगले का है, वो और कहां। माल मुफ्त का हो, तो दिल बेरहम हो ही जाता है। सुना है राजनाथ सिंह ने तो बंगला खाली कर दिया है; पर मुलायम और अखिलेश बाबू सरकार से कुछ मोहलत मांग रहे हैं। माया मैडम ने तो अपने बंगले पर ‘काशीराम विश्राम स्थल’ लिख दिया है। मुलायम जी को मेरी सलाह है कि वे अपने बंगले को ‘अखिलेश क्रीड़ा स्थल’ घोषित कर दें। शायद इससे समस्या टल जाए। 

 

जैसे छोटी-छोटी बात पर लड़ने को तैयार सांसद सत्र के आखिर में अपने वेतन-भत्ते बढ़ाने के लिए एकमत हो जाते हैं, ऐसे ही सब मिलजुल कर इस सर्वव्यापी समस्या का भी कुछ रास्ता निकाल ही लेंगे। जब तक ऐसा न हो, तब तक ‘इक बंगला बने न्यारा...’ की तर्ज पर ‘इक बंगला लगे प्यारा...’ गाते हुए ठाठ से पैर फैलाकर आरामदायक बिस्तर पर सोइये। चूंकि किसकी हिम्मत है जो पूर्व (या भावी) मुख्यमंत्रियों को हाथ भी लगा सके।

 

-विजय कुमार

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