कुल्लू का अंर्तराष्ट्रीय दशहरा, जहां नहीं जलाया जाता रावण

By संतोष उत्सुक | Oct 03, 2022

दशहरा का विराट पर्व है। व्यास नदी के किनारे बसे शहर कुल्लू में ढोल, शहनाई, रणसिंघे बज रहे हैं। पर्वत शिखरों, घाटियों व पगडंडियों से रंगबिरंगी पालकियों व रथों में विराजे देवता, ऋषि, सिद्ध व नाग पधार रहे हैं। इस देव यात्रा में पीतल, तांबे, चांदी के वाद्य, रंग बिरंगे झंडे, चंवर व छत्र, विशेष चिन्ह, अनुभवी पुजारी, पुरोहित, गूर व कारदार सब शामिल हैं। 

 

हिमाचल प्रदेश की गोद में जब जब लोकउत्सव आयोजित होते हैं तब तब आम जनता अपने देवी देवताओं से भी मिलती है। कुल्लू घाटी में आयोजित होने वाले लोकोत्सवों का सरताज है कुल्लू दशहरा। यह विशाल लोकदेव समागम देश भर में दशहरा सम्पन्न होने के बाद आरम्भ होता है। शाही परिवार के सदस्य अभी भी सदियों पुरानी परम्पराएं निभाते हुए इस उत्सव में शामिल होते हैं तभी सन 1660 में पहली बार आयोजित हुए इस ऐतिहासिक उत्सव की आन, बान और शान अभी सलामत है।


सत्रहवीं सदी में राजा मान सिंह ने उत्सव को व्यापारिक रंग दिया। आर्थिक कारणों से यह उत्सव तब शुरू होता था जब देश के निचले भागों में दशहरा सम्पन्न हो चुका हो ताकि ज़्यादा व्यापारी शामिल हो सकें।  तब यहां रूस, समरकंद, यारकंद, तिब्ब्त और चीन से भी व्यापारी आते थे। उत्सव में बिकने आए घोडों की दौड़ से लेकर शाही कैम्पों में अपने अपने ढंग का नाचगान खानपान होता रहता था। समय के साथ बदलाव आते रहे, कुछ लोकतंत्र व शासकतंत्र ने भी प्रयास किए। शहर के तीन मुख्य हिस्से रहे सुल्तानपुर, अखाडा बाजार व ढालपुर मैदान में मेले की खूब रौनक होती है।

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ढालपुर मैदान में लकडी से बने कलात्मक व आकर्षक सजे रथ में, फूलों के बीच आसन पर विराजे रघुनाथ की पावन सवारी को, मोटे मोटे रस्सों से खींचकर दशहरा की शुरूआत होती है। इससे पहले देवी देवता सुल्तानपुर में स्थित रघुनाथजी के मंदिर में माथा टेक, राजमहल में जाते हैं। सुल्तानपुर में रघुनाथजी को पालकी में सुसज्जित कर देव समुदाय व गाजेबाजे के साथ ढालपुर लाया जाता है। रथ में बिठाकर विधिपूर्वक पूजाअर्चना की जाती है। राज परिवार के सदस्य शाही वेशभूषा में छड़ी लेकर उपस्थित रहते हैं। आसपास अनेक देवी देवता शोभायमान रहते हैं। सैंकड़ों यशस्वी कैमरे विभिन्न जगहों से इस अविस्मरणीय घटनाक्रम को संचित कर रहे होते हैं। हर श्रद्धालु चाहता है रथ खींचे, मगर ऐसा कहां होता है।


यह उत्सव आज भी क्षेत्रवासियों के लिए अपने देवताओं से मिलने का ख़ास अवसर है। आयोजन में देवनृत्य होता है तो श्रद्धालु भी देर रात तक उनके साथ नृत्य मगन रहते हैं। देव गूर के माध्यम से भविष्यवाणी करते हैं। भक्त मनौतियां करते हैं। दिलचस्प है, इस आयोजन में रावण, मेघनाद व कुम्भकरण के पुतले नहीं जलाए जाते। दशहरा के अंतिम दिन लंका दहन ज़रूर होता है। निश्चित समय पर रघुनाथजी मैदान के निचले हिस्से में नदी किनारे ग्रामीणों द्वारा बनाई लकड़ी की सांकेतिक लंका को जलाने जाते हैं। शाही परिवार की कुलदेवी होने के नाते देवी हिडिम्बा भी यहां विराजमान रहती हैं। परम्पराएं ऐसी हैं कि कई देवता व्यास नदी लांघे बिना इस देव समारोह का हिस्सा बनते हैं। कभी इस समागम में देव शिरोमणि श्री रघुनाथजी के पास हाजिरी देने पूरे तीन सौ पैंसठ देवीदेवता पधारते थे, अब यह संख्या कम रह गई है।  


इस वर्ष अंर्तराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा पर्व 5 अक्तूबर से 11 अक्तूबर तक आयोजित होगा। कल्लू घाटी व देश प्रदेश के अन्य इलाकों से आने वाले लोक कलाकार अपना सांस्कृतिक रंग बिखेरेंगे। हर बरस की मानिंद आमंत्रित देवीदेवताओं को सरकार नज़राना पेश करेगी। दशहरा के साथ साथ पर्यटक कुल्लू में सेब बागीचों, रिवर राफटिंग, पर्वतारोहण, ट्रैकिंग, पैराग्लाइडिंग का स्वाद भी ले सकते हैं। धार्मिक श्रृद्धालु कुल्लू नगर में रघुनाथ मंदिर के इलावा कुल्लू मनाली रोड पर वैष्णोदेवी गुफामंदिर, पहाडी चित्रकला व पत्थर मूर्ति शिल्प के लिए प्रसिद्ध भेखली के भुवनेश्वरी मंदिर, दियार में विष्णु मंदिर, आठवीं शताब्दी निर्मित पत्थर पर नक्काशी के लिए प्रसिद्ध बजौरा के विश्वेश्वर मंदिर की यात्रा कर सकते हैं। कुल्लू का रूपी महल मिनिएचर पेंटिंग्स का दिलकश नमूना है। इस शहर से आगे कितनी ही जगहें हैं जो आपको बार बार बुलाने लायक हैं।


इस बार दशहरा पर्व मनाने कुल्लू आइए।  


- संतोष उत्सुक

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