Interview: दिग्विजय सिंह ने कहा- सियासत का सुनहरा दौर गुजर गया, जिसे हम लोगों ने जिया

By डॉ. रमेश ठाकुर | Mar 16, 2024

प्रदूषित राजनीति में अब नैतिकता नाम की कोई चीज नहीं बची। चारों ओर गद्दारी, बेवफाई, स्वार्थ का बोलबाला पनपा है। पार्टी ने जिस नेता को सब कुछ दिया, मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक बिठाया। लेकिन, जब पार्टी के दिन थोड़े से उन्नीस-बीस हुए, तो नेताओं ने पाला बदलने में तनिक देरी नहीं की। कमोबेश, ऐसी तस्वीरें मौजूदा वक्त में रोजना देखने को मिल रही हैं। पार्टियां छोड़कर भाजपा में अन्य दलों के नेता एक-एक करके शामिल हो रहे हैं। इसी मुद्दे पर मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व कांग्रेस के टॉप सीनियर लीडर दिग्विजय सिंह से डॉ. रमेश ठाकुर ने बातचीत की। पेश हैं बातचीत के मुख्य हिस्से-


प्रश्नः पाला बदलने वाले नेताओं को आप कैसे देखते हैं?


उत्तर- अपन को देखने की जरूरत नहीं? ये कार्य जनता जर्नादन पर छोड़ देना चाहिए। लेकिन मौजूदा बदलती सियासी परिस्थियों को देखकर बहुत दुख होता है कि गंदी और बदनुमा राजनीति का दौर कितनी तेजी से आरंभ हुआ है। इन बदली परिस्थितियों का श्रेय भाजपा को दिया जाना चाहिए। क्योंकि उन्होंने नेताओं को लोभी-लालची बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। हालांकि, ऐसे नेताओं को जनता चुनावी अखाड़े में अच्छे से सबक सिखाती हैं। सभी जानते हैं कि मुल्क की तरक्की की प्रत्येक विधा में सियासत सीधा वास्ता रखती है। पर, राजनेता की स्वार्थी हरकतों ने राजनीति की विश्वसनीयता को गहरी ठेस पहुंचा दी है। अगर मैं दिल से कहूं तो राजनीति का बेहतरीन और सुनहरा वक्त गुजर चुका है जिसे हम जैसे लोगों ने जिया है। नेता अब जनहित की नहीं, बल्कि स्वार्थहित की राजनीति करने के लिए पार्टियों से जुड़ते हैं।

  

प्रश्नः क्या ये सिलसिला रुकेगा भी कभी, या फिर यूं ही चलता रहेगा?


उत्तर- जनता की चुनी हुई सरकारें दिन दहाड़े तोड़ी जा रही हैं। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र में क्या हुआ, कोई नहीं भूलेगा। सभी संवैधानिक संस्थाएं निष्क्रिय कर दी गई हैं। चुनाव आयोग सरकार का पंगु बना हुआ है। स्वतंत्र रूप से निर्णय नहीं ले पाते। सांसद-एमएलए पर जांच एजेंसियों का पहरा बिठा दिया गया है। विपक्ष के नेताओं और मंत्रियों को डर-भय दिखाकर पार्टी व सरकारों को छोड़ने का दबाव डाला जाने लगा है। सियासी दलों में दो फाड़ किए जा रहे हैं। आपस में लड़ाया-भिड़ाया जा रहा है। ऐसे ज्यादातर नेता अपने से नहीं, बल्कि मजबूरी में अपने वास्तविक दल छोड़कर भाजपा में जा रहे हैं। जहां तक सिलसिला रुकने का सवाल है, तो मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि भाजपा के जाते ही ये सिलसिला अपने आप थम जाएगा। उन्होंने साफ-सुथरी राजनीति में जो गंदगी फैलाई है, उसे देश की जनता देख रही है। बेईमानी करके चुनाव जीत रहे हैं। 

इसे भी पढ़ें: Interview: विश्वसनीयता जरूरी, चुनावी प्रक्रिया का मुख्य पिलर है चुनाव आयोगः एसवाई कुरैशी

प्रश्नः कांग्रेसियों की भाजपा में जाने की भगदड़ को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा अब ‘कांग्रेस युक्त’ हो गई है?


उत्तर- जबकि इनका नारा था ‘कांग्रेस मुक्त’ भारत का? देखना जितने नेता वहां पहुंचे हैं, एक दिन दोबारा अपने घरों को लौटते हुए दिखाई देंगे। यही नहीं, खुद भाजपाई भी इधर-उधर होंगे, दूसरे ठिकाने तलाशेंगे। क्योंकि वो सभी हाशिए पर आ गए हैं। भाजपा चुनावों में टिकट, पद और सम्मान दूसरे दलों से आए नेताओं को दे रही है, जबकि उनके अपने नेता मुंह ताक रहे हैं। ऐसे में अगर कोई नेता पार्टी छोड़ता है तो उसके साथ जनता की सहानुभूति भी रहती है। पर, लालचियों से हर कोई तौबा करता है। भाजपा ने अपने यहां दूसरे दलों से आधे से ज्यादा नेता भर लिए हैं। उन सभी को संभालना, उनक इच्छापूर्ति करना बड़ी चुनौती होगी। भाजपा बाहरी सभी नेताओं को टिकट नहीं दे सकती? संगठन में पद भी नहीं दे सकती। सोचने वाली बात है जब, उनके हाथ कुछ नहीं लगेगा, तो वह खिसकने में देर नहीं करेंगे। तब, मजबूरी में भागेंगे इधर-उधर?


प्रश्नः पार्टी तो पहले के नेता भी छोड़ते-बदलते थे?


उत्तर- पर उनका तरीका अलग और अलहदा होता है। तब ऐसा करने वाले नेताओं पर कोई उंगली नहीं उठाता था, बकायदा उनके चाहने वाले समर्थन स्वागत करते थे। पार्टी छोड़ने या नया दल बनाने के फैसला भी अपने कार्यकर्ताओं के कहने पर किया करते थे। अभावग्रस्त और हाशिए पर धकेले हुए नेता दल बदलते थे, या फिर अपनी कोई पार्टी बना लेते थे। जेपी आंदोलन के बाद कई राज्यों में छोटे-छोटे दल बने। जो धीरे-धीरे प्रभावशाली हुए। कांग्रेस से छिटक कर भी कई नेताओं ने अपनी पार्टियां बनाईं। लेकिन आज के नेता टिकट मिलने और मंत्री बनने की लालच में ही खुद के ईमान का सौदा कर लेते हैं। न अपने समर्थकों से राय लेते हैं और न कार्यकर्ताओं की भावनाओं का ख्याल रखते हैं। सिर्फ अपने हित का ध्यान रखते हैं


प्रश्नः आपको नहीं लगता, ऐसे में दल-बदल कानून को और प्रभावी करने की जरूरत है?


उत्तर- प्रभावी नहीं, बल्कि मेरे ख्याल से अलग से कठोर कानून बनना चाहिए। जब तक बंदिशें नहीं बढेंगी, ऐसे अनैतिक कार्यों पर अंकुश नहीं लगेगा। वैसे, अगर सभी स्थितियों-परिस्थितयों पर गौर से मंथन करें, तो दल-बदल की स्थिति तब होती है, जब किसी भी दल के सांसद या विधायक अपनी मर्जी से पार्टी छोड़ते हैं या पार्टी व्हिप की अवहेलना करते हैं। उस स्थिति में सदस्यता को समाप्त किया जा सकता है और उन पर दल-बदल निरोधक कानून भी लागू किया जा सकता है। लेकिन, ये नियम महाराष्ट्र में हमें निष्प्रभावी दिखाई पड़ा। कानून होने के बावजूद भी फैसला एकपक्षीय दिखा। भाजपा ने चुनी हुई सरकार को तोड़कर, खुलेआम अपनी मनमानी की।


-प्रस्तुतिः डॉ. रमेश ठाकुर

प्रमुख खबरें

Lok Sabha Elections 2024: प्रशांत किशोर का दावा, केजरीवाल की रिहाई से बीजेपी को नहीं, कांग्रेस को होगा नुकसान

Deepti Sadhwani Cannes Debut | दीप्ति साधवानी ने किया कान्स रेड कार्पेट पर डेब्यू, गेंदा रंग में बला की खूबसूरत दिखी तारक मेहता की एक्ट्रेस

Pakistan होगा नीलाम, बोली लगाएगा हिंदुस्तान, आर्थिक संकट के बीच PoK में कैसे बजा गुलामी के खिलाफ आजादी का बिगुल?

Bihar: सीएम की भरपूर तारीफ कर रहे अनंत सिंह, बोले- नीतीश कुमार जैसा मुख्यमंत्री ना पैदा हुआ और न होगा