ये वक्त वक्त की बात है

By डॉ. दीपा गुप्ता | Apr 21, 2025

ये पानी ख़ामुशी से बह रहा है

इसे देखें कि इसमें डूब जाएँ 


यूँ तो हर संगीत में जादू होता है मगर बाँसुरी की बात सबसे निराली है.. दूर कहीं जब बाँसुरी की मधुर तान छिड़ती है तो विचलित मन को ठहरा हुआ सुकून मिलता है ..माघ मेले में पहली बार अनजाने में बाँसुरी बजाने वाले बाँसुरी के जादूगर "हरिप्रसाद चौरसिया" जी अब उम्र के नौवें दशक में हैं। 


अक्टूबर के महीने में "मीरा महोत्सव" मेड़ता राजस्थान में हरिप्रसाद चौरसिया जी के बाँसुरी वादन को फिर से सुनने का मौका मिला। कई सारे जाने माने लोक कलाकारों गायकों के बीच ज्यादातर आँखें "हरि प्रसाद चौरसिया" जी को देखने के लिए आतुर थीं। 


भारी भीड़ के बीच डगमगाते कदमों से मंच पर पहुँचे चौरसिया जी ने हाथ जोडकर सबका अभिवादन स्वीकार किया। गहरे नीले रंग का रेशमी कुर्ता, सफेद पैजामा, गले में सफेद मोती की माला, उन्नत भाल पर बड़ी लाल गोल बिंदी, सन जैसे सफेद बाल और चेहरे पर बच्चे जैसी मासूमियत लिए चौरसिया जी के साथ उनके तीन शिष्य थे । 


दर्शक दीर्घा में बैठे सभी उस पल का इंतज़ार कर रहे थे जब चौरसिया जी की बाँसुरी से मधुर स्वर लहरियाँ प्रवाहित हों और हम सब उस दिव्य बाँसुरी वादन की कलाओं में डूब जाएँ । 


संगीत नाटक अकादमी दिल्ली के उद्घोषक ने कार्यक्रम शुरू किया। अतिथियों का स्वागत और कलाकारों के संक्षिप्त परिचय के बाद हरिप्रसाद चौरसिया जी ने अपने काँपते हाथों से बाँसुरी उठा ली और बड़ा प्रयत्न करके उसे अपने होठों तक लेकर आए और उसमें साँस फूँक दी...मगर बाँसुरी ने बजने से जैसे इंकार कर दिया..हल्की सी स्वर लहरियाँ फूटीं फिर शाँत होने लगीं..साथ में बैठी बाँसुरी वादिका ने स्वर लहरियों के टूटते ही अपनी बाँसुरी की तान उससे मिला दी जिससे बाँसुरी की धुन जाग गई ..और फिर बाँसुरी बजाते बजाते उस सजीली शिष्या ने बड़े प्रेम से अपने गुरुजी को देखकर उन्हें आँखों से आश्वस्त किया कि आप फिर कोशिश कीजिए हम सब आपके साथ हैं।


चौरसिया जी ने मुस्कुराते हुए फिर अपने काँपते हाथों से बाँसुरी को उठाकर बामुश्किल होठों का स्पर्श कराया और स्वर छेड़ा मगर बाँसुरी फिर इठला गई.. 


'नहीं बजूँगी गुरुजी! मुझे बजाना है तो फेफड़ों की पूरी ताकत लगानी होगी आपको"


अब गुरुजी फेफड़ों में कहाँ से वह ताकत लाएँ जो तुझे बजाने के लिए चाहिए। आत्मविश्वास को भी शरीर की ताकत चाहिए ।


गुरु जी ने अबकी बार अपने दाएँ हाथ पर बैठी सलोनी शिष्या की ओर देखा उस मृगनयनी बाँसुरी वादिका ने अपने हाथ में थामी लम्बी सी बाँसुरी में साँसें फूँक दीं ऐसा करते ही पूरे वातावरण में बाँसुरी की सरस स्वर लहरियाँ तैरने लगीं उसका साथ बाएँ हाथ की सजीली वादिका ने दिया और दिया चौरसिया जी की परछाईं बने युवा बाँसुरी वादक ने..जो पलपल चौरसिया जी के वादन को अपनी बाँसुरी से संभाल रहा था।

बस आगे यही होता रहा। जब जब चौरसिया जी ने बाँसुरी बजाने का प्रयास किया या बाँसुरी बजाई तब तब दर्शक साँस रोके उम्र के इस सितम को देखते रहे..


बाँसुरी बजाने की जीतोड़ कोशिश करते काँपते हाथों वाले चौरसिया जी को देखकर न जाने कितने लोगों की आँखें नम हो गईं थीं...।


वह वक्त कुछ और था जब चौरसिया जी के एक इशारे पर बाँसुरी नाचने लगती थी ये वक्त कुछ और...।


सच तो यह है कि उम्र ए रफ़्ता कभी लौटकर नहीं आती और हमें यह भी समझना होगा कि एक उम्र के बाद इन कला और संगीत के जादूगरों को अपनी प्रस्तुति देने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए..एक वटवृक्ष के नीचे न जाने कितनी बेल-लताएँ पनपती हैं। चौरसिया जी के शागिर्दों की एक नयी पीढी तैयार है जो उनकी विरासत को आगे बढ़ा ही है उनका होना ही पर्याप्त है। 


अन्ततः कार्यक्रम सफल रहा क्योंकि अपने गुरु के सानिध्य में उनके तीन शिष्यों ने ऐसा समां बाँधा कि सब झूम उठे।


डॉ. दीपा गुप्ता

अल्मोड़ा उत्तराखंड

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