By नीरज कुमार दुबे | Oct 27, 2025
भारत और अमेरिका के बीच बीते कुछ महीनों से जो आर्थिक और रणनीतिक असहमति का दौर चल रहा है, उसने दोनों देशों के "स्वाभाविक साझेदारी" वाले रिश्ते पर गहरा असर डाला है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारतीय वस्तुओं पर 50 प्रतिशत शुल्क लगाना इस तनाव का चरम बिंदु रहा। भारत ने इसे “अनुचित, असंगत और अविवेकपूर्ण” करार दिया। किंतु कूटनीति का मूल्य संकट के समय ही मापा जाता है और यही बात कुआलालंपुर में आसियान शिखर सम्मेलन के इतर विदेश मंत्री एस. जयशंकर और अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो की मुलाकात में स्पष्ट रूप से दिखाई दी।
जयशंकर और रुबियो की यह वार्ता ऐसे समय में हुई जब दोनों देशों के बीच व्यापार समझौते के पहले चरण की वार्ता लगभग अंतिम दौर में है। पांच चरण पूरे हो चुके हैं और सूत्रों के अनुसार समझौता “बहुत जल्द” होने वाला है। यह संकेत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि भारत-अमेरिका व्यापारिक तनाव का असर सिर्फ द्विपक्षीय नहीं बल्कि वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला और हिंद-प्रशांत की आर्थिक स्थिरता पर भी पड़ रहा है। भारत की ओर से यह कोशिश स्पष्ट दिख रही है कि वह न केवल शुल्क विवाद को सुलझाना चाहता है, बल्कि व्यापक आर्थिक सहयोग को फिर से गति देना चाहता है।
रुबियो ने भी अपने बयान में यह स्वीकार किया कि भारत “हमारा ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण सहयोगी” है। उन्होंने पाकिस्तान के साथ अमेरिका के संबंधों को लेकर उठे सवालों पर सफाई देते हुए कहा कि “हम पाकिस्तान के साथ रिश्ते भारत की कीमत पर नहीं बढ़ा रहे।” यह वक्तव्य अमेरिकी विदेश नीति के उस द्वंद्व को भी रेखांकित करता है, जिसमें वाशिंगटन इस्लामाबाद को फिर से अपनी रणनीतिक गणना में शामिल करना चाहता है, लेकिन नई दिल्ली की संवेदनशीलता को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता।
देखा जाये तो अमेरिका और पाकिस्तान के बीच पिछले कुछ महीनों में बढ़ती निकटता भारत के लिए चिंता का विषय रही है, खासकर तब जब ट्रंप प्रशासन ने मई में भारत-पाकिस्तान सीमा संघर्ष के बाद पाक सेना प्रमुख आसिम मुनीर से सीधी वार्ता की। अमेरिका का यह दावा कि ट्रंप ने “संघर्ष विराम में मध्यस्थता” की, नई दिल्ली के लिए अस्वीकार्य रहा। रुबियो ने भले ही यह स्पष्ट किया कि पाकिस्तान के साथ बढ़ते संबंध “भारत की कीमत पर नहीं होंगे”, लेकिन कूटनीति में ऐसी पंक्तियाँ आश्वासन से अधिक संकेतों का माध्यम होती हैं। भारत के लिए संदेश साफ है कि वाशिंगटन अपनी क्षेत्रीय रणनीति में इस्लामाबाद को पूरी तरह अलग नहीं करेगा, पर नई दिल्ली को साझेदारी में बराबरी का दर्जा देने की कोशिश जारी रखेगा।
साथ ही रुबियो की टिप्पणी कि “भारत ने पहले ही तेल खरीद में विविधता लाने की इच्छा व्यक्त की है” यह दर्शाती है कि अमेरिका अब भारत के ऊर्जा निर्णयों पर सीधे दबाव डालने के बजाय संवाद का रास्ता अपना रहा है। यह एक व्यावहारिक बदलाव है। रूस से सस्ता तेल खरीदना भारत के लिए महज़ ऊर्जा नीति नहीं, बल्कि आर्थिक स्थिरता का प्रश्न है। जयशंकर बार-बार यह दोहरा चुके हैं कि “भारत अपने राष्ट्रीय हितों के अनुरूप निर्णय लेता है।” इस पृष्ठभूमि में रुबियो की भाषा अपेक्षाकृत संयमित और यथार्थपरक दिखी, जो बताती है कि अमेरिका भारत की स्वायत्त विदेश नीति को धीरे-धीरे स्वीकार करने की दिशा में है।
इसके अलावा, जयशंकर की मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड और दक्षिण कोरिया के विदेश मंत्रियों से हुई अलग-अलग बैठकों का महत्व भी इसी संदर्भ में समझा जाना चाहिए। आसियान भारत की ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ का प्रमुख स्तंभ है और चीन के बढ़ते प्रभाव के बीच भारत इस मंच को अपने रणनीतिक संतुलन के रूप में देखता है। मलेशिया के प्रधानमंत्री अनवर इब्राहिम से मुलाकात, सिंगापुर के विवियन बालाकृष्णन के साथ क्षेत्रीय सुरक्षा पर चर्चा और कोरिया के साथ सेमीकंडक्टर व रक्षा सहयोग पर वार्ता, ये सब भारत की बहुध्रुवीय कूटनीति की झलक हैं।
जयशंकर का यह संदेश स्पष्ट है कि भारत किसी एक ध्रुव— चाहे वह अमेरिका हो या रूस, पर निर्भर नहीं रहना चाहता। बल्कि वह एशिया और इंडो-पैसिफिक में अपने साझेदारों के साथ मिलकर एक समावेशी सुरक्षा व आर्थिक ढाँचा बनाना चाहता है।
देखा जाये तो भारत-अमेरिका संबंधों की सबसे बड़ी विशेषता यही रही है कि संकट के दौर में भी संवाद के पुल टूटते नहीं। चाहे वह 1998 के परमाणु परीक्षण हों या आज के शुल्क विवाद, हर बार दोनों देशों ने कूटनीतिक विवेक से संबंधों को संभाला है। जयशंकर–रुबियो वार्ता भी उसी परंपरा का विस्तार है। दोनों नेताओं के बयान यह संकेत देते हैं कि मतभेदों के बावजूद “मित्रता” की भाषा कायम है। रुबियो का यह कहना कि “भारतीय कूटनीति परिपक्व और व्यावहारिक है” दरअसल भारत की वैश्विक स्थिति की स्वीकारोक्ति है। वाशिंगटन अब यह समझ रहा है कि नई दिल्ली को केवल रणनीतिक भागीदार के रूप में नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र शक्ति केंद्र के रूप में स्वीकार करना होगा।
साथ ही कुआलालंपुर की मुलाकात को सिर्फ एक औपचारिक राजनयिक घटना मानना भूल होगी। जयशंकर ने जिस संतुलन, संयम और सक्रियता के साथ आसियान मंच का उपयोग किया, वह दर्शाता है कि भारत आज केवल प्रतिक्रियात्मक कूटनीति नहीं कर रहा, बल्कि अपनी शर्तों पर वैश्विक संवाद को आकार दे रहा है। वहीं, रुबियो का संयमित स्वर बताता है कि अमेरिका भी भारत को अब सिर्फ एक ‘पार्टनर’ नहीं बल्कि एक ‘पोल’, यानी शक्ति के स्वतंत्र केंद्र, के रूप में देखने को तैयार हो रहा है। तनाव भले ही बाकी हों, पर संवाद जारी है और यही किसी भी परिपक्व साझेदारी की असली कसौटी होती है।
-नीरज कुमार दुबे