By सुखी भारती | Oct 31, 2025
संसार की स्थिति अत्यंत विचित्र है। माया में उलझा हुआ जीव नीचे के पदों पर तो संतोष नहीं करता, परंतु ऊपर पहुँचकर भी उसे शांति प्राप्त नहीं होती। उसकी प्रत्येक इच्छा में स्वर्ग तुल्य सुख की आकांक्षा होती है। किंतु विचारणीय तथ्य यह है कि क्या वास्तव में स्वर्ग का सुख भी आत्मतृप्ति दे सकता है? विगत प्रसंग से तो ऐसा प्रतीत नहीं होता। क्योंकि जब स्वयं स्वर्ग के अधिपति देवराज इन्द्र ही अशांत हैं, तो अन्य जनों की स्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
जब देवराज इन्द्र ने देखा कि नारद मुनि दीर्घकाल से समाधि में लीन हैं, तो उनके मन में संशय का बीज अंकुरित हुआ—
“कहीं नारद मुनि मेरे इन्द्रासन पर तो दृष्टि नहीं रखे हुए हैं?”
यह विचार आते ही उनका विवेक क्षीण हो गया। पद के अहंकार ने बुद्धि पर पर्दा डाल दिया। परिणामस्वरूप वे संशय के वशीभूत होकर कामदेव को बुलाते हैं और कहते हैं—
“मुनि गति देखि सुरेस डेराना।
कामहि बोलि कीन्ह सनमाना।।
सहित सहाय जाहु मम हेतू।
चलेउ हरषि हियँ जलचरकेतू।।"
देवराज इन्द्र ने कामदेव का यथोचित सम्मान किया, और उसे आदेश दिया- “हे कामदेव! आपकी शक्ति अपरंपार है। आप अनेक बार देवताओं के कार्य सिद्ध कर चुके हैं। आज आप नारद मुनि की समाधि भंग कर हमें इस शंका से मुक्ति दिलाइए।”
कामदेव के लिए यह सम्मान अप्रत्याशित था। संसार में "राम" के उपासक तो दुर्लभ हैं, किंतु "काम" के उपासक हर ओर विद्यमान हैं। फिर भी कामदेव के साथ एक शाप जैसा जुड़ा हुआ है—उसे कभी सार्वजनिक सम्मान नहीं मिलता। वह सदा गुप्त रूप से पूजित होता है, जैसे अंधकार में छिपी अग्नि। आज जब देवराज इन्द्र ने उसे साक्षात् बुलाकर सम्मान दिया, तो वह मानो अपने मोह के बंधन में स्वयं बँध गया।
सम्मान का मद मनुष्य ही नहीं, देवों को भी विवेकहीन बना देता है। कामदेव ने यह सोचने की आवश्यकता नहीं समझी कि एक समय उसने भगवान शंकर की समाधि भंग करने का दुस्साहस किया था और उसका परिणाम क्या हुआ था। इतिहास की शिक्षा केवल वही ग्रहण करता है, जो अहंकार के पर्दे से मुक्त हो। किंतु यहाँ तो देवराज इन्द्र और कामदेव, दोनों ही उसी अहंकार के जाल में फँस चुके थे।
देवराज इन्द्र की मूर्खता अपने चरम पर थी। उन्हें यह जाँचने की भी सूझ नहीं पड़ी कि नारद मुनि की समाधि का उद्देश्य क्या है। क्या वे सचमुच स्वर्ग-सिंहासन पर अधिकार चाहते हैं, या प्रभु-भक्ति में लीन हैं? परंतु जब मन पर पद का मद छा जाता है, तब सत्य की आवाज सुनाई नहीं देती।
काश! इन्द्र को प्रभुचरणों की याद होती, तो वे यह समझ पाते कि प्रभु के भक्त के लिए स्वर्ग, केवल मृग-मरीचिका के समान है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस स्थिति का अत्यंत सुंदर चित्रण किया है—
“सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज।।"
अर्थात जैसे मूर्ख कुत्ता अपनी सुखी हड्डी लेकर इसलिए भागता है कि कहीं सिंह उसे न छीन ले, वैसे ही मूढ़ इन्द्र भी नारद मुनि को देखकर भयभीत हो उठे कि कहीं वे उसका पद न छीन लें। परंतु जिन्हें प्रभु-भक्ति की समाधि की सर्वोच्च अवस्था प्राप्त हो चुकी है, उन्हें स्वर्ग के क्षणिक वैभव से क्या प्रयोजन?
अब कामदेव, देवराज इन्द्र के आदेशानुसार, नारद मुनि की ओर प्रस्थान करता है। वहाँ पहुँचकर उसने अपनी मायावी शक्ति से वसंत ऋतु का सृजन कर दिया। क्षणमात्र में समस्त वातावरण परिवर्तित हो उठा। वृक्षों पर विविध रंगों के पुष्प खिल उठे, कोयल की मधुर कूक गूँजने लगी, भौंरे गुंजार करने लगे। सुगंधित पवन तीनों दिशाओं से बहने लगी, जो कामाग्नि को प्रज्वलित करती थी। रम्भा और अन्य देवांगनाएँ संगीत और नृत्य से वातावरण को और भी मनोहर बनाने लगीं।
कामदेव ने यह दृश्य देखकर हर्षित होकर कहा—
“अब तो यह समाधि अवश्य भंग होगी। नारद मुनि जैसे स्थिर तपस्वी भी इस वातावरण से विचलित हुए बिना न रह सकेंगे।”
परंतु यही कामदेव की भ्रांति थी। वह यह भूल गया कि भक्ति की ज्वाला में काम की अग्नि स्वयं भस्म हो जाती है।
नारद मुनि, जिनके हृदय में राम नाम का अनहद नाद गूँज रहा था, वे संसार के किसी भी आकर्षण से विचलित कैसे हो सकते हैं?
जिसकी दृष्टि "प्रेम" में स्थिर है, उसे "काम" डिगा नहीं सकता।
देवराज इन्द्र और कामदेव का यह प्रयत्न केवल यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त था कि जिस मनुष्य के अंतःकरण में असुरक्षा और अहंकार हो, वह देव होकर भी पतन के मार्ग पर चल पड़ता है।
प्रभु का सच्चा भक्त तो स्वयं में पूर्ण होता है। उसे पद, प्रतिष्ठा, यश या वैभव का मोह नहीं रहता।
इन्द्र जैसे देवता, जो स्वर्ग के राजा होकर भी भयभीत हैं, वे वास्तव में दीन हैं। और नारद जैसे मुनि, जो संन्यासी होकर भी अटल हैं, वे वास्तव में धन्य हैं।
अब प्रश्न यही है—
क्या कामदेव अपनी शक्ति से नारद मुनि की समाधि को भंग कर पाता है?
क्या देवराज इन्द्र का संशय सत्य सिद्ध होता है, अथवा वह स्वयं अपने भ्रम में फँस जाता है?
इस रहस्य को जानने हेतु—
अगले अंक की प्रतीक्षा कीजिए...
क्रमशः
- सुखी भारती