Gyan Ganga: भोलेनाथ ने खोली रामकथा की गुत्थी, नारद मुनि का श्राप बना श्रीरामावतार का कारण!

Lord Shiva
ANI
सुखी भारती । Oct 24 2025 6:19PM

गिरिराज कन्या पार्वती चकित रह गईं। उन्होंने विनम्र भाव से कहा- ''प्रभो! जो नारदजी विष्णुभक्तों में श्रेष्ठ हैं, वे स्वयं श्रीहरि को शाप कैसे दे सकते हैं? ऐसा महान योगी मोहवश होकर क्यों भरमित हुआ? कृपा कर वह रहस्य मुझे बताइए।''

जिस प्रकार भगवती गंगा जी की पावन धारा निरंतर अमृत बरसाती हुई धरती को जीवन प्रदान करती है, उसी प्रकार भोलेनाथ के श्रीमुख से भी श्रीरामकथा का अविरल प्रवाह सदैव झरता रहता है। वह कथा केवल पार्वती जी के ही श्रवण हेतु नहीं, अपितु सम्पूर्ण चराचर जगत के कल्याण के लिए होती है। जलन्धर राक्षस के उद्धार तथा तुलसी के अमरत्व की लीला का रसपान करने के पश्चात् जब पार्वती जी का मन शांत हुआ, तब उन्होंने कौतूहलवश पूछा— “प्रभो! श्रीरामावतार की लीला में क्या किसी और का भी योग रहा?”

भोलेनाथ स्नेहसहित बोले— “देवि! श्रीरामावतार के कारणों में एक प्रसंग ऐसा भी है, जो नारद मुनि से जुड़ा हुआ है।” और उन्होंने दोहा सुनाया—

‘नारद श्राप दीन्ह एक बारा।

कलप एक तेहि लगि अवतारा।।

गिरिजा चकित भईं सुनि बानी।

नारद बिष्णु भगत पुनि ग्यानी।।’

यह सुनकर गिरिराज कन्या पार्वती चकित रह गईं। उन्होंने विनम्र भाव से कहा — “प्रभो! जो नारदजी विष्णुभक्तों में श्रेष्ठ हैं, वे स्वयं श्रीहरि को शाप कैसे दे सकते हैं? ऐसा महान योगी मोहवश होकर क्यों भरमित हुआ? कृपा कर वह रहस्य मुझे बताइए।”

इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: महादेव का बड़ा खुलासा: रावण कैसे बना जलंधर राक्षस का अगला जन्म

भोलेनाथ बोले—“हे गिरिजे! एक बार नारद मुनि भक्ति प्रचार करते-करते हिमालय के एक दिव्य प्रदेश में पहुँचे। वहाँ हिमगिरि की गोद में एक पवित्र गुफा थी, जिसके समीप श्रीगंगा जी कल-कल करती हुई प्रवाहित हो रही थीं। चारों ओर हरियाली छाई थी, पुष्पों की सुगंध से वातावरण मधुर हो रहा था, पक्षी अपने स्वरों से प्रभात राग गा रहे थे, और समीर मंद-मंद बहकर प्रकृति को आलोकित कर रही थी।”

‘हिमगिरि गुहा एक अति पावनि।

बह समीप सुरसरी सुहावनि।।

आश्रम परम पुनीत सुहावा।

देखि देवरिषि मन अति भावा।।’

उस रमणीय दृश्य को देखकर नारदजी का मन आत्मविभोर हो उठा। वे सोचने लगे — “जिस प्रभु की भौंहों के हल्के से संकेत पर यह सृष्टि इतना सौंदर्य धारण कर लेती है, स्वयं वे श्रीहरि कितने अद्भुत और अनुपम होंगे!”

ऐसे भाव से पुलकित होकर वे गहन ध्यान में लीन हो गए। उनका चित्त श्रीहरि के चरणकमलों में इस प्रकार एकाग्र हुआ कि उन्हें अपने शरीर और लोक का भान ही न रहा।

परंतु उन्हें यह विस्मरण हो गया कि प्रजापति दक्ष के शाप के कारण वे किसी एक स्थान पर अधिक समय तक ठहर नहीं सकते थे। किंतु जब वे समाधि की परम अवस्था में पहुँचे, तब वह शाप निष्प्रभावी हो गया।


‘सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी।

सहज बिमल मन लागि समाधी।।’

जब मन पूर्णतः ईश्वर में लीन हो जाता है, तब संसार के बंधन, पाप, बाधाएँ या शाप भी उसकी गति को रोक नहीं पाते। यही तो नारदजी ने सिद्ध कर दिखाया। उनका उदाहरण इस सत्य का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि यदि साधक के जीवन में प्रभु सर्वोपरि स्थान पर हों, तो कोई विपत्ति या अभिशाप भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

परंतु हे देवी! यह मानव जीवन का दुर्भाग्य है कि हम तो तुच्छ भय और टोने-टोटकों से ही विचलित हो जाते हैं। नारदजी का मन प्रभु में ऐसा रमा कि समय का भान मिट गया। वे समाधि में युगों तक स्थिर रहे।

उधर देवलोक में देवराज इन्द्र को जब ज्ञात हुआ कि नारद मुनि हिमालय की गुफा में दीर्घकाल से तप में लीन हैं, तो उसके चित्त में अस्थिरता उत्पन्न हुई। स्वर्ग में यद्यपि नृत्य, संगीत और सुख की कोई कमी न थी, तथापि इन्द्र के अंतःकरण में भय का विष पलने लगा। वह सोचने लगा — “निश्चित ही नारद मुनि मेरी इन्द्रासन की कामना कर रहे हैं। तभी तो वे अन्यत्र न जाकर इतने दिनों से एक ही स्थान पर ध्यानस्थ हैं।”

इन्द्र का संशय उसके सुख का हर तत्व निगल गया। उसे हर क्षण यही चिंता सताने लगी कि यदि नारद की तपस्या सफल हो गई, तो उसका सिंहासन खतरे में पड़ जाएगा। वह सोचने लगा — “अब कुछ करना ही होगा, इससे पहले कि यह तपस्या मेरे राज्य को संकट में डाल दे।”

उसे स्मरण हुआ कि एक बार भगवान शंकर की समाधि भी भंग हुई थी और उस समय कामदेव ही भेजे गए थे। इन्द्र ने मन में विचार किया— “कामदेव तो समाधियाँ भंग करने के विशेषज्ञ हैं। क्यों न इस बार भी उन्हीं की सहायता ली जाए?”

यह सोचकर उसने तुरंत कामदेव को स्मरण किया।

कामदेव अपने धनुष और पुष्पबाणों सहित इन्द्र के समक्ष उपस्थित हुए। इन्द्र ने उन्हें सम्मान देकर कहा- “हे मनोहर! देवऋषि नारद गहन तपस्या में लीन हैं। यदि उनकी यह तपस्या पूर्ण हुई, तो वे इन्द्रासन प्राप्त कर सकते हैं। अतः किसी भी उपाय से उनकी समाधि भंग करो। तुम्हारे बाणों की कोमल शक्ति ही इस कार्य में समर्थ है।”

कामदेव ने आदरपूर्वक आज्ञा स्वीकार की और मन ही मन विचार किया — “देखें, इस बार मेरी शक्ति कैसी परीक्षा लेती है।”

इतना कहकर भोलेनाथ ने कथा का यह भाग यहीं रोक दिया और पार्वती जी को संकेत किया कि आगे की कथा अगली बार श्रवण करें— क्योंकि यह प्रसंग नारदजी के मोह, उनके शाप, और श्रीहरि की लीला से जुड़ा हुआ है।

क्रमशः…

- सुखी भारती

All the updates here:

अन्य न्यूज़