उत्तर प्रदेश में तरह−तरह के अपराधों पर अंकुश लगाना किसी भी सरकार के लिए हमेशा चुनौतीपूर्ण होता है। अपराधों पर नियंत्रण नहीं लगा पाने के कारण ही 2007 और 2012 में समाजवादी पार्टी की सरकार को जनता ने उखाड़ फेंका था। अपराध नियंत्रण के लिए योगी सरकार कटिबद्ध दिखाई दे रही है। अपराधियों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई का दावा भी किया जाता है, लेकिन कई मामलों में संगठित तरीके से अपराध करने वालों के सामने सरकार के हाथ बंधे नजर आते हैं। इस प्रकार का ही एक अपराध है भूमाफियाओं द्वारा सरकारी या किसी कमजोर की निजी जमीन पर अवैध कब्जा कराना। लखनऊ में सरकारी और निजी जमीनों पर अवैध कब्जे का धंधा उन गरीबों के लिए अभिशाप बना गया है जिनकी जमीन भू−माफियाओं की नजर में चढ़ जाती है।
हालात तब ज्यादा खराब हो जाते हैं जब कानून के रक्षक ही भक्षक बन जाते हैं। लोगों को इंसाफ दिलाने वाले हाथ संगठित होकर अपराध करना शुरू कर देते हैं। भले ही यह लोग खून−खराबा, लूटपाट, अपहरण, फिरौती जैसे जघन्य अपराध नहीं करते हों, लेकिन इनका अपराध किसी भी दशा में कम करके नहीं आंका जा सकता है। इन लोगों को भूमाफियाओं की श्रेणी में रखा जा सकता है जो भोले−भाले लोगों और बुजुर्गों की जमीन पर गिद्ध जैसी दृष्टि जमाए रहते हैं। इन संगठित अपराधियों द्वारा किसी को घर बेचने के लिए मजबूर किया जाता है तो किसी की जमीन पर विवाद खड़ा करके ब्लैकमेलिंग के सहारे धन उगाही की जाती है। लखनऊ में तेजी से विकसित हो रहे क्षेत्रों में तमाम ऐसी घटनाएं सामने आती रहती हैं, जहां जब कोई भू−स्वामी अपनी जमीन पर निर्माण कार्य शुरू करता है तो उसकी जमीन पर गिद्ध दृष्टि लगाए लोग आ धमकते हैं और जमीन को विवादित बताकर काम रूकवा देते हैं। कई मामलों में तो थानों में बैठकर इस ब्लैकमेलिंग के धंधे को अंजाम दिया जाता है।
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लखनऊ में यह संगठित अपराध खूब फलफूल रहा है। जब गांव−देहात और दूर−दराज के जिलों से आए लोग लखनऊ में अपने लिए एक आशियाना बनाने को सोचता है, तभी वह अपने लिए मुसीबत मोल ले लेता है। दूसरों की जमीन को अपना बताकर इसमें सफेदपोश से लेकर काला कोट और खाकी वर्दी को शर्मसार करने वाले दबंग, कुछ तथाकथित पत्रकार, नगर निगम के भ्रष्ट कर्मचारी और लेखपाल तक शामिल रहते हैं, जो संगठित तरीके से भू−माफियाओं की तरह हर तरफ घूमते मिल जाते हैं। इनका नेटवर्क इतना मजबूत है कि कोई व्यक्ति अपनी जमीन पर ईंट भी रखता है तो इनको भनक लग जाती है और यह लोग आ धमकते हैं। फिर शुरू हो जाता है ब्लैकमेलिंग और धन उगाही का धंधा।
लखनऊ का मंडियांव, हसनगंज, रायबरेली रोड़ से लेकर कानपुर और सुलतानपुर रोड़ तक का इलाका इन अपराधियों और दबंगों का अड्डा बन चुका है। इस क्षेत्र में चाहे अज्ञात लाशों के मिलने के मामले हों या फिर अवैध खनन, प्रापर्टी विवाद, अवैध कब्जा हो या भूमाफियागिरी के मामले, इनकी खबरें आम रहती हैं। ऐसे मामलों में यहां अकसर खूनी संघर्ष देखने को मिल जाता है। हाल ही में मंडियांव क्षेत्र में जमीन कब्जे को लेकर प्रधान समर्थक व किसान नेता के बीच जमकर खूनी संघर्ष और मारपीट हुई। घंटों चली इस मारपीट में दोनों पक्षों से दर्जन भर से ज्यादा लोग घायल हो गए जिनमें कुछ की हालात नाजुक बनी हुई है। ऐसे मामलों में पुलिस की भूमिका अकसर संदिग्ध और दबंगों के प्रति झुकाव वाली रहती है।
जमीन या मकान कब्जाने का अपराध संगठित तरीके से अंजाम दिया जाता है। इसलिए भुक्तभोगी के पास इंसाफ के सभी रास्ते बंद हो जाते हैं। न उसकी थाने में तहरीर लिखी जाती है, न वह अदालत की चौखट पर दस्तक दे पाता है। इन भू−माफियाओं के सामने मकान−जमीन के असली मालिक की स्थिति ठीक वैसे ही हो जाती है, जैसे 'झूठ के आगे सच्चा रोवे।'
भू−माफियाओं के हौसले इतने बुलंद हैं कि आम आदमी तो दूर इनके चंगुल से भारतीय सेना तक की जमीन सुरक्षित नहीं है। लखनऊ में छावनी क्षेत्र में दिनों दिन आलीशान कोठिया बन रही हैं। ये कोठियां आर्मी अधिकारियों की नहीं बल्कि सत्ता और केंद्र के रसूख वालों की हैं। यह बात बहुत किसी को समझ में नहीं आती है कि ऐसा कौन सा तंत्र है जो सेना की संवेदनशील क्षेत्र में कोठियों की खरीदी−फरोख्त के लिए हरी झण्डी देता है। यहां जमीन की बिक्री से छावनी क्षेत्र की सुरक्षा में भी सेंध लगने का डर बना रहता है।
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गौरतलब है कि देश भर की सैन्य छावनियां लंबे समय से आतंकियों के निशाने पर रही हैं। कई छावनियों पर आतंकी हमले की असफल कोशिश भी हो चुकी है। इतना संवेदनशील मसला होने के बावजूद लखनऊ स्थित मध्य कमान में लापरवाही के चलते कोई गंभीर घटना होती है तो उसकी जिम्मेदारी किस पर होगी ? सेना की रिपोर्ट बताती है कि सेना की गतिविधियों की निगरानी−जासूसी रखी जा रही है। कैंट क्षेत्र बाहरी अवांछित तत्वों का अड्डा बनता जा रहा है। बताते हैं कि सेना के कुछ कर्मचारियों ने छावनी क्षेत्र की कीमती जमीन पर बाहरियों को बसाने का धंधा शुरू कर दिया है। ऐसे लोगों ने मध्य कमान की अचल संपत्तियों को लूटने का ठेका ले रखा है। सेना के सूत्र बताते हैं कि मध्य कमान मुख्यालय के पास स्थित आधा दर्जन कैंपिग ग्राउंडों का कहीं अता−पता नहीं है। किसी दौर में मध्य कमान के पास 13 कैंपिंग ग्राउंड थे, लेकिन अब कवेल 7 कैंपिंग ग्राउंड बचे हैं।
मध्य क्षेत्र के मुख्यालय जोन में स्थित कोठियों पर किसी एक दल का नहीं बल्कि सभी दलों के बड़े नेताओं, आईएएस अधिकारियों और रियल स्टेट के कारोबारियों का कब्जा हो चुका है। दिवंगत नेता डॉ. अखिलेश दास हों या कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी, उनके समधि ब्रजेश मिश्र, एनएचआरएम घोटाले में फंसे आईएएस अधिकारी प्रदीप शुक्ला, उनकी पत्नी आराधना शुक्ला, उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भइया, भाजपा नेता एवं व्यापारी नेता सुधीर हलवासिया, रियल स्टेट कारोबारी संजय सेठ समेत कई अन्य नेताओं, नौकरशाहों और दलालों को कैंट की बड़ी−बड़ी कोठियां और उससे लगी जमीन के बड़े हिस्से इन्हें कैसे मिल गए। इसका जवाब देने के लिए कोई तैयार नहीं है। सेना भी इस पर कुछ बोलने से बचती है। वह यह भी बताने को तैयार नहीं है कि किस कानून के तहत बाहरी लोगों को सैन्य क्षेत्र में आलीशान कोठियां हासिल हुईं ? यह तक की अन्य लोगों की देखा−देखी बसपा नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी तक ने सैन्य क्षेत्र की एक विवादास्पद कोठी पर कब्जा कर लिया है। कैंट इलाके के थिमैया रोड़ पर स्थित 12 नम्बर की विवादास्पद कोठी को औन−पौने भाव में खरीद कर नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने अपने कब्जे में ले लिया हैं। शालीमार बिल्डर्स के खालिद मसूद थिमैया रोड़ पर ही और संजय सेठ की महात्मा गांधी रोड़ पर कोठियां हैं, जो सेना के ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट के बगैर ही इन कोठियों पर काबिज हैं।
-अजय कुमार