नेताओं की जिन्नावादी नीति भारत की एकता के लिए खतरनाक

By राकेश सैन | Mar 26, 2018

कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने शिवभक्त लिंगायत व वीरशैव संप्रदाय को अल्पसंख्यक वर्ग का दर्जा देने के लिए केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजा है। योजना सफल होती है तो ये शिवभक्त हिंदू नहीं कहलाएंगे। कहने को हर राजनीतिक दल राष्ट्रीय एकता, एकजुटता की बातें करता है, पर वास्तव में वोटों की खातिर पृथकतावाद का पोषण करने से किसी को गुरेज नहीं है। सवाल है कि इस दोगली नीति से भारत एक राष्ट्र की दिशा में आगे बढ़ सकेगा? ब्रिटिश शासकों ने भारतीयों को विभाजित करने के लिए समय-समय पर ऐसे वर्गों को चिन्हित किया जिन्हें वे अपने लिए उपयोगी समझते थे। शेष समाज को उन्होंने सामान्य श्रेणी कहा। इसी में से अल्पसंख्यकवाद और बहुसंख्यकवाद का जिन्न पैदा हुआ। साल 1891 के भारत जनगणना आयुक्त से जब पूछा गया कि हिन्दू की व्याख्या क्या है, तो उन्होंने कहा कि मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन, निचली जातियां, पहाड़ी व जनजातियों आदि को निकाल कर जो बचता है उसे हिन्दू कह सकते हैं। अब तो यह सीमा भी सिकुड़ गयी है। ओबीसी के नाम पर हिन्दू जनसंख्या का एक बड़ा भाग जातिवादी पतन की पटरी पर दौड़ पड़ा है। पिछली सदी में मोहम्मद अली जिन्ना ने देश का विभाजन करवाया। आज अल्पसंख्यकवादी राजनीति के रूप में हर दल में मुस्लिम लीग और नेताओं में जिन्ना बनने की होड़ मची दिखाई दे रही है।

वैसे अल्पसंख्यक शब्द की परिभाषा संविधान में नहीं है। स्पष्टत: संविधान निर्माताओं ने पूरे समाज को समग्र रूप में देखा। संविधान में अल्पसंख्यक शब्द का विवरण धारा 29 से लेकर 30 तक और 350ए से लेकर 350बी तक शामिल है। परिभाषा के अभाव का नेताओं ने खूब राजनीतिक लाभ उठाया। इसकी मनमाफिक व्याख्या कर मनचाहे वर्गों को अल्पसंख्यक दर्जा देते रहे। अल्पसंख्यक का सुविधाजनक अर्थ करके उनके लिए विविध विशेषाधिकार, सुविधाएं, संस्थान आदि बना-बनाकर दशकों से घातक राजनीति होती रही है। देश हित में जरूरी है कि किसी समुदाय, दल या नेता को मनमानी न करने दी जाए। भारत में अल्पसंख्यक अवधारणा की जरूरत ही नहीं। ब्रिटिश भारत में कोई नस्लवादी उत्पीड़न नहीं था। अगर था तो अल्पसंख्यक गोरे अंग्रेजों को ही विशिष्ट अधिकार हासिल थे। इससे पहले 800 साल तक मुसलमानों ने देश में शासन किया जो गिनती में चाहे अल्पसंख्यक परंतु वास्तव में शासक थे। लेकिन पश्चिमी समाज की नकल कर भारत में अल्पसंख्यक संरक्षण की अवधारणा मतिहीन होकर अपना ली गई। यह गैर-अल्पसंख्यक के विरुद्ध दोहरा अन्याय बना क्योंकि बहुसंख्यक समाज विदेशी शासन में भी और आज स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी असमानता का शिकार हो रहा है। बात केवल यहीं तक सीमित रहती तो भी खैर थी, अब तो अल्पसंख्यकवाद हिंदू समाज के विघटन का कारण भी बनने लगा है। सुविधाओं व विशेषाधिकार के लालच में समाज के विभिन्न अंग मुख्यधारा से कटने का प्रयास करते दिख रहे हैं। इसके लिए हिंदू समाज की विविधता को विभिन्नता बताया जाने लगा है और इसी आधार पर मुख्यधारा से कटने का मार्ग ढूंढा जाने लगा है।

 

बौद्ध, जैन, सिख समाज को अल्पसंख्यक दर्जा मिलना और इसके लिए इन समाजों से ही आंदोलन होना स्पष्ट उदाहरण है कि अल्पसंख्यकवादी राजनीति मोहम्मद अली जिन्ना की छोटी बहन साबित हो रही है। कितनी त्रासदी है कि दुनिया में हिंदुत्व की पताका फहराने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती के पैरोकार आर्य समाजी, भगवान परशुराम के वंशज ब्राह्मण समाज, आनंदमार्गी, रामकृष्ण मिशन के अनुयायी भी अल्पसंख्यक दर्जे की मांग उठा चुके हैं। यह तो गनीमत है कि अदालतों व समाज हितचिंतकों ने इस विघटन को सफल नहीं होने दिया अन्यथा आज जितनी जातियां हैं उतने ही धर्म अस्तित्व में आ सकते हैं। आज लिंगायत व वीरशैव समाज भी इसी कड़ी में शामिल हो गया है और दुर्भाग्य की बात है कि कुछ वोटों के लालच में अपने आप को राष्ट्रीय पार्टी कहने वाली कांग्रेस इस अलगाव को हवा दे रही दिख रही है। रोचक व विरोधाभासी बात तो यह है कि साल 2013 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जिन लिंगायतों को अल्पसंख्यक दर्जा देने की मांग को अस्वीकार कर दिया था आज उसी पार्टी की कर्नाटक सरकार ने अल्पसंख्यकवादी पत्ता खेला है। समाज में इसी बिखराव से बचने के लिए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश आरएस लोहाटी अल्पसंख्यक आयोग को बंद करने की जरूरत जता चुके हैं।

 

इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार अल्पसंख्यक, एक विस्तृत समाज में एक विशिष्ट सांस्कृतिक, वंशीय या जातीय समूह के रहने वालों को कह सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्तावों में भी इसकी कोई निश्चित परिभाषा नहीं है। व्यावहारिक दृष्टि से अल्पसंख्यक वे हैं जो दूसरे देशों से किसी भी कारण से अपना देश छोड़कर आते हैं। भारत के सन्दर्भ में केवल यहूदी तथा पारसी ही इस श्रेणी में आते हैं। रोचक बात है कि यहूदी और पारसी अपने आप को अल्पसंख्यक कहलवाना पसंद नहीं करते जबकि भारत भूमि पर ही पैदा हुए विभिन्न पंथ व संप्रदाय जो व्यवहारिक रूप में हिंदू समाज के ही अंग हैं अपने को अल्पसंख्यक घोषित करवाने की जुगत में हैं ताकि कुछ सरकारी सुविधाएं बटोरी जा सकें। वोटों की राजनीति अलगाव की इस आग में घी का काम कर रही है। समय की मांग है कि लिंगायत समाज के संबंध में राष्ट्रहित को ध्यान में रख कर निर्णय लिया जाना चाहिए। अन्यथा समाज का विभाजन भविष्य में राष्ट्र का विभाजन बना तो वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व को आने वाली पीढिय़ां विभाजन के प्रतीक जिन्ना व मुस्लिम लीग की श्रेणी में स्थान देगी।

 

-राकेश सैन

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