नेपाल से सीखा सबक! भारत में आंदोलनों का अध्ययन कर भविष्य की रणनीति बनाएगी मोदी सरकार

By नीरज कुमार दुबे | Sep 15, 2025

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में यह निर्देश दिया है कि 1974 से अब तक देश में हुए प्रमुख आंदोलनों का गहन अध्ययन किया जाए, ताकि यह समझा जा सके कि किन कारणों से बड़े पैमाने पर असंतोष पनपता है और भविष्य में "स्वार्थी तत्वों" द्वारा आंदोलन की आड़ में अशांति फैलाने की संभावनाओं को रोका जा सके।


देखा जाये तो 1974 का वर्ष भारतीय राजनीति में विशेष महत्व रखता है। यह वही दौर था जब जेपी आंदोलन ने बिहार से उठकर राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण किया और अंततः 1975 में आपातकाल की पृष्ठभूमि बनी। उसके बाद से छात्र आंदोलनों, किसान आंदोलनों, आरक्षण विरोधी और समर्थनकारी आंदोलनों, अन्ना हज़ारे का भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन, शाहीन बाग का नागरिकता संशोधन कानून विरोध और हालिया किसान आंदोलन, ये सभी भारत की लोकतांत्रिक राजनीति के निर्णायक पड़ाव रहे हैं।

इसे भी पढ़ें: भ्रष्टाचार रोकने वाला कानून हो पाएगा पास?

देखा जाये तो अमित शाह का यह कदम मात्र अतीत की घटनाओं की सूची तैयार करना नहीं है, बल्कि आंदोलन की प्रकृति, उनकी पृष्ठभूमि, उनसे हुई सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल और उनके सकारात्मक या नकारात्मक परिणामों को समझना है। सवाल यह है कि कौन-से आंदोलन वास्तविक जनआकांक्षाओं के प्रतिनिधि थे? किन आंदोलनों को संगठित समूहों या बाहरी ताकतों ने दिशा दी? आंदोलन कब लोकतांत्रिक विमर्श का हिस्सा बने और कब हिंसा या अराजकता में बदल गए? इन सवालों का उत्तर ढूंढ़ना इस अध्ययन का मूल मकसद प्रतीत होता है।


मोदी सरकार की इस कवायद के वर्तमान संदर्भ में मायने समझें तो इसके लिए हमें यह देखना होगा कि आज भारत ऐसे समय में है जब सूचना और संचार तकनीक ने आंदोलन करने की शैली को बदल दिया है। सोशल मीडिया के ज़रिए आंदोलन बहुत तेज़ी से आकार ले सकते हैं। साथ ही स्थानीय असंतोष देखते-देखते राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बन जाता है। इसके अलावा, विपक्षी दल और अंतरराष्ट्रीय मंच भी आंदोलनों को राजनीतिक रंग देने में सक्रिय रहते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में गृह मंत्रालय की इस पहल के कई मायने हैं। जैसे- सरकार आंदोलन के पीछे छिपी वास्तविक सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को समझकर बेहतर नीतियाँ बना सकेगी। साथ ही अगर किसी आंदोलन को विदेशी या विध्वंसकारी ताकतें भड़काती हैं, तो उनकी पहचान करना आसान होगा। इसके अलावा, मोदी सरकार यह भी दर्शाना चाहती है कि वह लोकतांत्रिक अधिकारों और अनुशासन के बीच संतुलन कायम रखने के पक्ष में है। मोदी सरकार का यह निर्णय यह भी बताता है कि केंद्र सरकार आंदोलनों की राजनीति को सिर्फ तात्कालिक चुनौती नहीं मानती, बल्कि दीर्घकालिक नीति-चिंतन के विषय के रूप में देख रही है।


हालाँकि, सरकार के इस फैसले की आलोचनाएँ होनी भी संभव हैं। विपक्ष इसे "आंदोलनों को बदनाम करने की कोशिश" कह सकता है। देखा जाये तो लोकतांत्रिक व्यवस्था में आंदोलन असहमति जताने का वैध साधन हैं, ऐसे में उनका अध्ययन करने को कुछ लोग नागरिक अधिकारों पर अंकुश की तैयारी मान सकते हैं। वैसे अमित शाह का यह निर्णय केवल अतीत को खंगालने का नहीं, बल्कि भविष्य की राजनीति को दिशा देने का प्रयास है। यह कदम यह स्पष्ट करता है कि केंद्र सरकार आंदोलन की राजनीति को हल्के में नहीं ले रही और उसे राष्ट्रीय सुरक्षा, लोकतांत्रिक व्यवस्था और सामाजिक स्थिरता से जोड़कर देख रही है। अब देखना होगा कि यह अध्ययन संतुलित दृष्टिकोण अपनाता है या फिर केवल आंदोलनों को "स्वार्थी तत्वों" की कारस्तानी करार देने तक सीमित रह जाता है।


हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि नेपाल में जेन-ज़ेड युवाओं के आंदोलन ने यह दिखाया है कि नई पीढ़ी पारंपरिक राजनीति से असंतोष प्रकट करने के लिए सड़कों पर उतरने से हिचकती नहीं। इसके अलावा, दक्षिण एशिया के अन्य देशों— जैसे बांग्लादेश और श्रीलंका में भी हाल में जन आंदोलनों ने सत्ता परिवर्तन या राजनीतिक उथल-पुथल को जन्म दिया है। दुनिया के अन्य हिस्सों में अरब स्प्रिंग के उदाहरण से यह स्पष्ट हो चुका है कि जनता की असंतुष्टि, यदि समय रहते संभाली नहीं जाए, तो वह तख़्तापलट या शासन परिवर्तन का कारण बन सकती है। इसी पृष्ठभूमि में नरेंद्र मोदी सरकार का 1974 से अब तक के आंदोलनों का अध्ययन करने का निर्णय महत्वपूर्ण प्रतीत होता है। यह कदम केवल अतीत के आंदोलनों का विश्लेषण भर नहीं है, बल्कि भविष्य में असंतोष को किस रूप में प्रकट होने से रोका जाए, इसकी रणनीति तैयार करने की दिशा में उठाया गया कदम भी लगता है।


बहरहाल, देखा जाये तो भारत एक बड़ा लोकतंत्र है और यहाँ आंदोलन लोकतांत्रिक अधिकार भी हैं, किंतु अगर इन आंदोलनों को बाहरी ताक़तें या संगठित हित समूह मोड़ देते हैं तो वे राष्ट्रीय सुरक्षा और स्थिरता के लिए चुनौती बन सकते हैं। नेपाल या श्रीलंका जैसी स्थितियाँ भारत में नहीं उत्पन्न हों, यह सुनिश्चित करना मोदी सरकार की प्राथमिकता है। इसलिए अमित शाह का यह फैसला केवल आंतरिक सुरक्षा का प्रश्न नहीं, बल्कि क्षेत्रीय राजनीति और लोकतांत्रिक स्थिरता के संदर्भ में भी अहम है। इस तरह, मोदी सरकार का यह कदम इस बात का संकेत है कि भारत अब आंदोलनों को सिर्फ़ लोकतांत्रिक असहमति का मंच नहीं मानता, बल्कि उन्हें संभावित भू-राजनीतिक खतरे और स्थिर शासन व्यवस्था के लिए चुनौती के रूप में भी देख रहा है। यही इसकी गंभीरता और प्रासंगिकता है।


-नीरज कुमार दुबे

प्रमुख खबरें

Dhurandhar X Review | रणवीर सिंह की धुरंधर पर दर्शकों का प्यार बरसा, फिल्म को कहा दिलचस्प एक्शन-ड्रामा, देखें फर्स्ट डे फर्स्ट शो रिव्यु

IndiGo Flights Cancellation: उड़ानें रद्द होने के बीच DGCA ने फ्लाइट क्रू के लिए बनाए गए Weekly Rest Norms वापस लिए

IndiGo ने आज की सारी उड़ानें रद्द कीं, हजारों यात्री फंसे, Civil Aviation Minister ने Airline को लगाई फटकार

एक महीने चावल छोड़ा, तो शरीर में दिखे ये 3 बड़े बदलाव, आप भी हो जाएंगे हैरान!