Ganesh Chaturthi: अपने उपासकों की सारी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं भगवान गणेश

By शुभा दुबे | Sep 07, 2024

गणेश चतुर्थी हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। माना जाता है कि इस दिन विघ्नहर्ता भगवान श्रीगणेश का जन्म हुआ था। दस दिवसीय यह त्योहार देश भर में धूमधाम से मनाया जाता है। विशेषकर महाराष्ट्र में इस पर्व को लेकर उत्साह चरम पर होता है और दस दिनों तक पूरा राज्य गणेशमय हो जाता है। शिवपुराण में कहा गया है कि भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी मंगलमूर्ति गणेश की अवतरण तिथि है, जबकि गणेशपुराण के अनुसार गणेशावतार भाद्रपद शुक्ल की चतुर्थी को हुआ था।


भगवान गणेश का स्वरूप अत्यन्त ही मनोहर एवं मंगलदायक है। वे अपने उपासकों पर शीघ्र प्रसन्न होकर उनकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। उनके अनन्त नामों में सुमुख, एकदन्त, कपिल, गजकर्णक, लम्बोदर, विकट, विघ्ननाशक, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचन्द्र तथा गजानन− ये बारह नाम अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। इन नामों का पाठ अथवा श्रवण करने से विद्यारम्भ, विवाह, गृह−नगरों में प्रवेश तथा गृह नगर से यात्रा में कोई विघ्न नहीं होता है। देवसमाज में गणेशजी को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। भगवान श्री गणेशजी की पूजा किसी भी शुभ कार्य के करने के पहले की जाती है। मोदक इनका सर्विप्रय भोग है और चूहा इनका प्रिय वाहन है। इनकी शादी ऋद्धि तथा सिद्धि नामक के साथ हुई। इस पर्व से जुड़ी एक मान्यता यह भी है कि इस दिन के रात्रि में चंद्रमा का दर्शन करने से मिथ्या कलंक लग जाता है।

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गणेश चतुर्थी के दिन प्रातःकाल स्नान आदि के बाद सोने, तांबे, मिट्टी आदि की गणेशजी की प्रतिमा स्थापित की जाती है और उनका आह्वान किया जाता है। उनका तिलक कर पान, सुपारी, नारियल, लड्डु तथा मेवे चढ़ाए जाते हैं। उन्हें कम से कम 21 लड्डुओं का भोग लगाने की परम्परा है। इनमें से पांच लड्डुओं को गणेशजी के पास ही रहने देना चाहिए बाकी लड्डुओं का प्रसाद बांट देना चाहिए। सुबह और शाम को गणेशजी की आरती की जानी चाहिए और पूजन के बाद नीची नजर से चंद्रमा को अर्घ्य देकर ब्राम्हणों को भोजन कराकर यथाशक्ति दक्षिणा देनी चाहिए।


कथा− एक बार भगवान शंकर माता पार्वती के साथ नर्मदा नदी के तट पर गये और वहां पार्वती जी के साथ चौपड़ खेलने की इच्छा जताई। हार जीत का निर्णय कौन करे इसके लिए पार्वती जी ने घास के तिनकों का एक पुतला बनाकर उसे कहा कि बेटा हार जीत का निर्णय तुम्हीं करना। संयोग से तीन बार लगातार पार्वती ही जीतीं लेकिन जब निर्णय सुनाने की बारी आई तो बालक ने भगवान शंकर को विजयी बताया। इससे क्रुद्ध होकर माता पार्वती ने उसे एक पैर से लंगड़ा होने और कीचड़ में रहने का शाप दे दिया। बालक ने जब अपनी अज्ञानता के लिए माफी मांगी तो माता पार्वती को उस पर दया आ गई और उन्होंने कहा कि ठीक है यहां नाग कन्याएं गणेश पूजन के लिए आएंगी तो उनके उपदेश से तुम गणेश व्रत करके मुझे प्राप्त करोगे। इसके बाद वह भगवान के साथ कैलाश पर्वत पर चली गईं। लगभग एक वर्ष बाद श्रावण माह में नाग कन्याएं गणेश पूजन के लिए वहां आईं। नाग कन्याओं ने गणेश व्रत करने की विधि उस बालक को भी बताई तो उसने भी 12 दिनों तक गणेशजी का व्रत किया। गणेशजी उस बालक के व्रत से प्रसन्न हुए और उसे मनवांछित फल मांगने के लिए कहा।


बालक ने कहा कि भगवान मेरे पैरों में इतनी शक्ति दे दो कि मैं खुद से चल कर कैलाश पर्वत पर अपने माता−पिता के पास जा सकूं। भगवान गणेशजी ने बालक की इच्छा पूरी कर दी। जिससे बालक कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर के पास जा पहुंचा। जब भगवान ने उससे पूछा कि वह यहां तक कैसे आया तो उसने गणेश व्रत की महिमा बता डाली। नर्मदा नदी के तट पर हुई घटना के बाद से माता पार्वती भी भगवान शंकर से अप्रसन्न चल रही थीं इसलिए भगवान शंकर ने भी गणेश व्रत किया तो माता पार्वती भागी−भागी उनके पास आईं और पूछा कि आपने ऐसा क्या किया कि मैं आपके पास भागी−भागी चली आई तो उन्होंने गणेश व्रत के बारे में बताया। इसके बाद माता पार्वती ने गणेश व्रत किया जिससे उनके पुत्र कार्तिकेय उनके पास आ गये। उन्होंने भी अपनी मां के मुख से इस व्रत के माहात्म्य के बारे में सुनकर यह व्रत किया और इस व्रत के बारे में विश्वामित्र जी को बताया। इस प्रकार इस व्रत के माध्यम से गणेशजी ने जैसे इन सभी की मनोकामना पूरी की उसी प्रकार वह इस व्रत को करने वाले हर श्रद्धालु की मनोकामना पूरी करते हैं।


इस पर्व से जुड़ी एक और कथा है जो इस प्रकार है− एक बार भगवान शंकर स्नान करने के लिये भोगवती नामक स्थान पर गये। उनके चले जाने के पश्चात माता पार्वती ने अपने मैल से एक पुतला बनाया जिसका नाम उन्होंने गणेश रखा। माता ने गणेश को द्वार पर बैठा दिया और कहा कि जब तक मै स्नान करूं किसी भी पुरुष को अन्दर मत आने देना। कुछ समय बाद जब भगवान शंकर वापस आये तो गणेशजी ने उन्हें द्वार पर ही रोक दिया, जिससे क्रुद्ध होकर भगवान शंकर ने उनका सिर धड़ से अलग कर दिया और अन्दर चले गये। पार्वती जी ने समझा कि भोजन में विलम्ब होने से भगवान शंकरजी नाराज हैं सो उन्होंने तत्काल दो थालियों में भोजन परोस कर शंकरजी को भोजन के लिये बुलाया। शंकरजी ने दो थालियों को देखकर पूछा कि यह दूसरा थाल किसके लिये है, तो पार्वतीजी ने जवाब दिया कि यह दूसरा था पुत्र गणेश के लिये है जो बाहर पहरा दे रहा है। यह सुनकर भगवान शंकर बोले कि मैंने तो उसका सिर धड़ से अलग कर दिया है। यह सुनकर पार्वती जी को बहुत दुख हुआ और वह भगवान महादेव से अपने प्रिय पुत्र गणेश को जीवित करने की प्रार्थना करने लगीं। तब शंकरजी ने हाथी के बच्चे का सिर काटकर बालक के धड़ से जोड़ दिया जिससे बालक गणेश जीवित हो उठा और माता पार्वती बहुत हर्षित हुईं। उन्होंने पति और पुत्र को भोजन कराकर स्वयं भोजन किया। चूंकि यह घटना भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को हुयी थी इसलिये इस तिथि का नाम गणेश चतुर्थी रखा गया।


शुभा दुबे

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