गृहणियों का गणित (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा 'उरतृप्त' | Nov 21, 2025

शान्ता देवी के घर में दो 'कार्यशील महिलाएं' थीं—बहू 'रागिनी' और बेटी 'माधवी'। दोनों ही गृहणी। पर शान्ता देवी के मन के खाते-बही (लेखा-जोखा) में दोनों का मूल्य कभी बराबर नहीं हुआ। रागिनी, जो चौबीस घंटे घर की 'सरकारी मशीनरी' थी, उसका काम 'आवश्यक' श्रेणी में आता था। वह अन्नपूर्णा, सफाईकर्मी, नर्स और मैनेजर की भूमिका एक साथ निभाती थी। सुबह पाँच बजे उठकर वह घर के पहियों में तेल डालती थी, ताकि जीवन की 'रेलगाड़ी' पटरी से न उतरे। वहीं, माधवी, जो पास के शहर में अपने ससुराल में थी, उसका आना-जाना किसी 'विशेष अतिथि' के आगमन जैसा था। शान्ता देवी का मन कहता था: "रागिनी तो 'कम्पलसरी आइटम' है, जिसके बिना दाल में नमक नहीं पड़ सकता। और माधवी? वह तो 'शो पीस' है, जिससे बाहर वाले खुश होते हैं।" यह मूल्य-निर्धारण बड़ा ही वैज्ञानिक था: जो महिला पास है और निरंतर सेवा में है, वह केवल 'ज़रूरत' है। जो दूर है और कभी-कभी आती है, वह 'प्यार' है। पास वाली मशीन है, दूर वाली भावना। यह भ्रम हर भारतीय घर में गहरी जड़ें जमा चुका है, जहाँ 'उपलब्धता' ही महिला के मूल्य को घटा देती है।


एक बार घर में बड़ा धार्मिक अनुष्ठान ('पूजा' नहीं, बल्कि 'घर की साख' का प्रदर्शन) तय हुआ। रिश्तेदार ऐसे आने वाले थे, मानो किसी सरकारी जाँच कमेटी का दौरा हो। तीन दिन पहले ही त्रासदी हो गई। श्री रामनाथ जी (शान्ता देवी के पति) की कमर ने अचानक 'हड़ताल' कर दी। वे पलंग से ऐसे चिपक गए, जैसे किसी सरकारी फ़ाइल से अधिकारी। अब पूजा की तैयारी कौन देखेगा? रिश्तेदारों की 'आव-भगत' का प्रबंधन कौन करेगा? शान्ता देवी के होश उड़ गए। उन्होंने तुरंत महसूस किया कि उनकी घरेलू प्रबंधन प्रणाली ध्वस्त हो गई है। ऐसे में रागिनी आगे आई। बिना किसी नाटक या शिकायत के, उसने 'अराजकता-नियंत्रण अधिकारी' का पद संभाल लिया। वह सुबह-सुबह पंद्रह लोगों का भोजन, ससुर जी को समय पर दवा, घर की सजावट—सब संभाल रही थी। वह घर की धुरी बन गई थी। अगर धुरी टूटती, तो पूरा घर 'गोल-गोल' घूमकर गिर जाता। उसका काम अदृश्य था, पर अनिवार्य। वह पंद्रह मिनट लेट होती, तो रामनाथ जी की दवा छूटती। वह एक दिन रुकती, तो पूरा घर भूखा सोता। उसकी मेहनत का कोई हिसाब नहीं था, क्योंकि गृहणी की मेहनत को 'प्रेम' नामक सरकारी सब्सिडी में डालकर शून्य कर दिया जाता है।

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इसी बीच, दूसरा संकट आया—सामाजिक दबाव। दूर की एक बुआ जी का फोन आया। उनका आदेश था कि उन्हें 'खास पारंपरिक व्यंजन' चाहिए, जो केवल शान्ता देवी को बनाना आता था। शान्ता देवी बीमार पति के पास थीं, रसोई में जा नहीं सकती थीं। अब रिश्तेदार नाराज़ होंगे! परंपरा टूटेगी! और बुआ जी की नाराज़गी का मतलब था, पूरे खानदान में 'मुसीबत' का वायरस फैलना! शान्ता देवी भावनात्मक दिवालियेपन के कगार पर थीं। तभी, माधवी (बेटी) आई। उसने रसोई में हाथ-पैर नहीं मारे (क्योंकि रसोई उसका 'विभाग' नहीं था, वह तो रागिनी का 'स्थायी कार्यालय' था)। माधवी ने माँ को हिम्मत दी, और सीधे 'कूटनीति' पर उतर आई। उसने फोन उठाया और बुआ जी से ऐसे बात की, मानो वह अंतर्राष्ट्रीय संधि करा रही हो। उसने बुआ जी को विश्वास दिलाया कि व्यंजन न बनने का कारण 'प्रेम' की कमी नहीं, बल्कि 'स्वास्थ्य' का संकट है। बुआ जी का गुस्सा शांत हुआ। माधवी ने केवल फ़ोन पर बात नहीं की, उसने रिश्तों के टूटे तारों को जोड़ा, माँ के मन का बोझ हल्का किया। उसे याद था कि पिताजी को बचपन में कौन सा नुस्खा आराम देता था। माधवी परिवार की 'पहचान और बंधन' थी—वह कड़ी जो टूटते हुए रिश्तों को भावनात्मक गोंद से जोड़ती थी।


जब अनुष्ठान समाप्त हुआ और रिश्तेदार 'खुश' होकर चले गए, तो शान्ता देवी को सत्य का ज्ञान हुआ। यह ज्ञान ऐसा था, जैसे सालों बाद किसी सरकारी दफ्तर में ईमानदारी दिख गई हो। उन्होंने दोनों को पास बुलाया। उनकी आवाज़ में पश्चाताप नहीं, बल्कि एक गृहणी के मूल्य की देर से हुई समझ थी। "रागिनी," उन्होंने कहा, "तुम इस घर की धुरी हो। तुम एक महान इंजीनियर हो, जिसके बिना यह दैनिक चक्र थम जाता। तुम आधार हो।" फिर माधवी का हाथ थामा, "और माधवी, तुम इस परिवार की कड़ी हो। तुमने रिश्तों की जटिलताओं को संभाला। यह काम रागिनी नहीं कर सकती थी, क्योंकि वह तो मशीन थी, भावनाओं का राजनैतिक प्रबंधन तुम ही कर सकती थी।" शान्ता देवी ने अपने आँसू पोंछे, "मैंने गलती की! मैंने तुम दोनों के काम को 'बहू का काम' और 'बेटी का काम' कहकर बाँट दिया। एक घर को अंदर से मज़बूती देती है, और दूसरी बाहर के रिश्तों को थामे रहती है। एक के काम में 'प्रेम' कम दिखता है, क्योंकि वह 'नियमित' है। दूसरे के काम में 'प्रेम' ज़्यादा दिखता है, क्योंकि वह 'कभी-कभार' होता है। पर दोनों ही गृहणियाँ हैं, और दोनों का मूल्य बराबर है।" यह सीख मार्मिक थी, क्योंकि यह उस भारतीय समाज के माथे पर एक पीड़ादायक व्यंग्य थी, जो नियमित सेवा देने वाली महिला को 'उपलब्ध' मानकर उसका मूल्य घटा देता है, और 'भावनात्मक' सहारा देने वाली महिला को 'देवी' बनाकर उसकी तारीफ़ करता है, जबकि घर को चलाने के लिए धुरी और कड़ी दोनों की उतनी ही आवश्यकता है।


- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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