पंखों का बोझ (व्यंग्य)

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तभी, एक सुबह, जैसे किसी पटकथा लेखक ने अचानक स्क्रिप्ट बदल दी हो। पिताजी 'यूँ' चले गए—बिना किसी सूचना के, बिना किसी अग्रिम चेतावनी के, जैसे घर की 'छत' का लाइसेंस अचानक रद्द हो गया हो। माँ का हाल ऐसा था, जैसे उन्होंने अपना ख़ुद का रोना भी किराए पर ले रखा हो—लगातार, रुक-रुककर।

सुशीला, अपने पिता की इकलौती लाड़ली थी। इकलौती इसलिए क्योंकि घर के पुरुष सदस्य—पिता और दो छोटे भाई—उसके सामने हमेशा आत्मसमर्पण की मुद्रा में रहते थे। सुशीला का जीवन एक शाही नाटक था, जहाँ छोटी-छोटी बातों पर रो देना उसका 'वीटो पावर' था। नए डिज़ाइन के सैंडल चाहिए? रोना शुरू! रात दस बजे तक टीवी देखने की अनुमति चाहिए? होंठ काँपे, आँखें नम हुईं और पिताजी की ज़मीन खिसक गई। उनके लिए सुशीला के आँसू किसी ख़ज़ाने से कम नहीं थे, जिसे वे तुरंत अपनी सारी दौलत (यानी उसकी हर माँग) देकर ख़रीद लेते थे। उनका सिद्धांत था: बेटी रोती है, यानी अभी भी हमसे प्रेम करती है; जिस दिन रोना बंद कर देगी, समझो वह बाज़ार की हो गई। और सुशीला बड़ी सफ़लता से इस सरकारी मान्यता प्राप्त हथियार का इस्तेमाल कर रही थी। वह अपनी लाड़ली वाली पहचान को भारत सरकार द्वारा प्रमाणित विशेषाधिकार मानती थी, जो हर समस्या का तात्कालिक और अचूक समाधान था। वह एक ख़ूबसूरत, बेफ़िक्र ज़िंदगी जी रही थी—जैसे किसी राजा की गुड़िया हो, जिसे केवल मुस्कुराने और कभी-कभार रोने का अधिकार हो। वह लिपस्टिक के रंग और पर्स के डिज़ाइन पर घंटों माथापच्ची करती थी, क्योंकि बड़े-बड़े दुःख तो पुरुषों के लिए आरक्षित थे। उसका जीवन एक चलता-फिरता विज्ञापन था—'भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार की लाड़ली बेटी: समस्याएँ शून्य, डिमांड अपरिमित।'

तभी, एक सुबह, जैसे किसी पटकथा लेखक ने अचानक स्क्रिप्ट बदल दी हो। पिताजी 'यूँ' चले गए—बिना किसी सूचना के, बिना किसी अग्रिम चेतावनी के, जैसे घर की 'छत' का लाइसेंस अचानक रद्द हो गया हो। माँ का हाल ऐसा था, जैसे उन्होंने अपना ख़ुद का रोना भी किराए पर ले रखा हो—लगातार, रुक-रुककर। छोटे भाई-बहन सदमे में थे, सिर्फ़ इसलिए नहीं कि पिता नहीं थे, बल्कि इसलिए कि अब 'टीवी देखने की देर रात वाली परमिशन' कौन देगा, वे यह नहीं समझ पा रहे थे। घर में सन्नाटा पसरा था, जो अब सुशीला के 'रोना' वाले हथियार को अप्रभावी बना चुका था। आँसुओं की अब बाज़ार में कोई क़ीमत नहीं थी। यह वो समय था, जब 'छोटी-छोटी बातों पर रोने वाली' सुशीला ने एक भयंकर अहसास किया: उसके 'आँसू' सिर्फ़ तभी काम करते थे, जब कोई 'पुरुष' उन्हें पोंछने के लिए तैयार बैठा हो। अब तो उन्हें पोंछने वाला ही ख़ुद रोने की स्थायी मुद्रा में था। इसलिए, सुशीला ने फ़ैसला किया: आँसुओं के व्यापार को तत्काल बंद किया जाए। उसने अपनी आँखों में आए समंदर को दिल के सबसे निचले तल में उतार लिया, जहाँ 'पसंद की लिपस्टिक' और 'नए फ्रॉक' की यादें धूल फाँक रही थीं। उसने अपनी लाड़ली वाली पहचान को एक कोने में फेंका, और 'घर की मुखिया' का नया, ख़ाकी चोला पहन लिया—जैसे उसे तुरंत किसी सरकारी आपातकालीन सेवा में भर्ती कर लिया गया हो।

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उन्नीस साल की सुशीला! वही लड़की जो कल तक माँ से बहस कर रही थी कि कॉलेज में किस ब्रांड की टी-शर्ट पहनकर जाना 'स्टेटस सिम्बल' है, आज उसने सारे परिवार की ज़िम्मेदारी अपने नाज़ुक कन्धों पर नहीं, बल्कि अपने माथे पर उठा ली। माथे पर इसलिए, क्योंकि अब माथा ही उसका 'प्रबंधन विभाग' था। उसने कॉलेज छोड़ा, जो उसका एकमात्र 'टाइमपास क्लब' था, और एक छोटी-सी नौकरी पकड़ ली। नौकरी नहीं, बल्कि परिवार को ज़िंदा रखने का सरकारी ठेका। तनख़्वाह इतनी कम थी कि हँसना भी हराम था, और काम इतना ज़्यादा कि रोना भी फ़ुर्सत नहीं देता था। कई रातें उसकी नींद ने सुसाइड कर लिया, कई दोपहरों में पेट ने हड़ताल कर दी, पर सुशीला ने कभी किसी को शिकायत नहीं की। असलियत तो यह थी कि 'शिकायत' करने के लिए अब उसके पास 'पिता' नहीं थे, जिसके सामने शिकायत का नाटक किया जा सके। जब घर की क़िस्त, राशन का बिल या छोटे भाई की फ़ीस सामने आती, तो वह घबराती नहीं, बल्कि एक गहरी साँस लेती—जैसे किसी 'सरकारी दफ़्तर' की लंबी लाइन में खड़ी हो—और मुस्कुरा देती। यह मुस्कान, उसके भीतर के कराहते दर्द पर चिपकाया गया एक सरकारी स्टीकर था, जो कहता था: "डरो मत, सब ठीक है!"

छोटी-छोटी बातों पर रोने वाली वह लड़की, आज बड़ी से बड़ी मुश्किलों का हँसते-हँसते सामना कर रही थी। और यहीं पर परसाई जी का व्यंग्य दहाड़ मारता है: यह 'हँसते-हँसते सामना' क्या है? यह हँसना नहीं है, यह भारतीय नारीत्व का सरकारी प्रमाणपत्र है, जो उसे यह सिद्ध करने के लिए दिया गया है कि वह 'महान' है। उसका रोना 'कमज़ोरी' था, लेकिन उसका मजबूरी में हँसते रहना, उसकी 'महानता' बन गया। समाज चाहता है कि लड़कियाँ छोटी-छोटी बातों पर रोएँ—ताकि पुरुष उन्हें 'रक्षा' करने वाला मसीहा समझ सकें। लेकिन जब ज़िंदगी की बड़ी मुश्किल आ जाए, तो उन्हें रोना बंद कर देना चाहिए और हँसते हुए काम करना चाहिए—ताकि समाज अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त होकर उन्हें 'त्याग की देवी' का तमगा पहना सके। सुशीला अब 'लाड़ली' नहीं थी; वह एक 'वर्किंग वूमेन' थी, जिसके पास न तो रोने का समय था और न ही फ़्रॉक की क़िस्त चुकाने का पैसा। अब उसके आँसू सूख गए थे, लेकिन उसके भीतर का व्यंग्य अब बड़ा हो चुका था। यही तो लड़कियाँ हैं! छोटी-छोटी बातों पर रो देती हैं, पर ज़िंदगी की बड़ी-बड़ी मुश्किलों का हँसते-हँसते सामना कर लेती हैं—क्योंकि उन्हें मालूम है, बड़ी मुश्किलों में रोने पर कोई कंधा नहीं मिलेगा, सिर्फ़ 'महानता का मेडल' मिलेगा!

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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