By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | Jul 02, 2025
गांव में एक दूधवाला था — नाम था लोकतंत्र यादव। जी हाँ, नाम सुनकर भ्रमित मत होइए। न वह संसद जाता था, न किसी गठबंधन में शामिल होता था, पर पूरे गांव की राजनीति उसी के घर से शुरू होकर वहीं समाप्त होती थी। उसके दरवाजे पर हर सुबह दूध लेने की कतार ऐसी लगती थी जैसे मंत्रिमंडल बनने से पहले समर्थन की लाइन। "भैया, मलाई वाला देना!" कोई चिल्लाता, "भैया, आज तो पानी थोड़ा कम मिलाना!" कोई हाथ जोड़ता। लोकतंत्र यादव मुस्कुरा कर कहता, "सबको बराबर मलाई मिलेगी, पर मलाई मेरी नीयत में नहीं, नीतियों में है।" और ये बात सुनकर लोग इतने अभिभूत हो जाते थे जैसे उन्होंने गाँधीजी का अंतिम भाषण सुन लिया हो।
लोकतंत्र यादव का एक सपना था — गांव में ‘दूध सिद्धांत दल’ बनाना। उनका मानना था कि राजनीति को अगर कुछ बचा सकता है तो वह है भैंस की सच्चाई। उन्होंने एक पार्टी बनाई — ‘सफेद क्रांति मोर्चा’। एजेंडा बड़ा सीधा था — हर आदमी को एक गिलास दूध, एक किलो गोबर, और दो झूठे वादे मुफ्त। गांव के सारे बुद्धिजीवी इस विचार से प्रभावित हुए। मास्टर हरिदेव बोले, "अरे, ये तो दूध के नेहरू निकले!" और पंडित गदाधर ने तो अपनी पुरानी धोती तक पार्टी को दान कर दी — बोले, “अब समय है, जब गोबर को सरकार में स्थान मिले।”
पर लोकतंत्र यादव को जल्द ही समझ आ गया कि सिद्धांत से राजनीति चलाना वैसा ही है जैसे बिन चाय के बिस्कुट बेचना। गांव के नेता पहले सिद्धांतों की शपथ लेते, फिर हर बार दही में पानी मिलाते। एक दिन एक नौजवान कार्यकर्ता बोला, "नेता जी, सिद्धांत तो ठीक हैं पर मलाई कैसे मिलेगी?" लोकतंत्र यादव ने गंभीर होकर उत्तर दिया, "बेटा, मलाई मांगोगे तो दही जमाना पड़ेगा, और दही के लिए दूध चाहिए, और दूध के लिए भैंस — और भैंस तो अब संसद में है!"
एक दिन गांव में नई सरकार बनी — ‘स्वच्छ दुहाई दल’। नारा था — "दूध में मिलावट नहीं, पर सपनों में छूट रहेगी।" मुख्यमंत्री बन बैठे — टकले ताऊ। उनकी पहली घोषणा थी — “अब से कोई भी दूधवाला सुबह 4 बजे से पहले दूध नहीं दुहेगा। जनता को ताजगी चाहिए!” इस पर लोकतंत्र यादव बोले — “सर, ताजगी हम लाते हैं, सरकार सिर्फ बिल देती है।” पर टकले ताऊ ने फरमान जारी कर दिया। दूध देर से आने लगा, बच्चों के टिफिन में चाय की जगह पानी और शक्कर घुलने लगे।
गांव के लोगों ने विद्रोह किया। वे ‘भैंस बचाओ मोर्चा’ लेकर पंचायत पहुंच गए। नारों की गूंज थी — “मलाई हमारी, नीतियाँ तुम्हारी क्यों?” और “भैंस तेरी, दूध हमारा!” लोकतंत्र यादव को जनता ने फिर से नेता घोषित कर दिया। लेकिन इस बार वे बोले — “अब राजनीति नहीं, अब मैं सिर्फ भैंस चराऊँगा।” लोगों ने पैर पकड़ लिए — “नेता जी, एक बार फिर मलाई दिलवा दो।” लोकतंत्र यादव ने एक लंबी साँस ली — “जिस देश में सिद्धांत मलाई से भारी हो जाए, वहां दूध भी आँसू बन जाता है।”
कुछ दिनों बाद गांव में ‘त्यागी दल’ बना। घोषणा हुई — “हम पद नहीं लेंगे। हम सेवक बनेंगे।” गांव के अखबार ‘गोधन टाइम्स’ ने ब्रेकिंग न्यूज़ चलाई — “त्यागियों की क्रांति: अब नेता नहीं, दुहैया सेवक बनेंगे।” सब जनता खुश। पर शाम होते-होते त्यागियों में झगड़ा शुरू हो गया — “सेवक कौन बनेगा?” रामधनी बोले — “मैं दूध उबालूँगा।” हरिनाथ गरजे — “मैं मलाई निकालूँगा!” चंद्रकांत भड़क उठे — “सब मलाई तू ही लेगा?” और फिर पतीले हवा में उड़ने लगे। दूध, सिद्धांत और सपने सब बह गए — भैंस गुमसुम खड़ी रही।
अब गांव में एक स्मारक है — ‘दूध सिद्धांत शहीद स्थल’। वहां लिखा है — "यहाँ लोकतंत्र यादव ने आखिरी बार सिद्धांत दुहे थे।" लोग आते हैं, फूल चढ़ाते हैं, बच्चे पूछते हैं — "पापा, ये सिद्धांत किस जानवर का नाम है?" और पापा आह भरते हैं — "बेटा, ये एक ऐसी भैंस थी जो कभी लोकतंत्र में दूध देती थी। अब तो वह सरकारी गोशाला में भर्ती है, और उसकी नज़रें हमेशा रास्ता ताकती रहती हैं — शायद कोई फिर से आदर्शवाद की घास लेकर आए।"
अंत में, लोकतंत्र यादव बूढ़े हो चुके थे। उन्होंने अपने आखिरी भाषण में कहा — "सिद्धांतों का बोझ इतना भारी होता है कि अगर दूध में डाल दो तो मलाई डूब जाती है।" और ये कह कर उन्होंने अपने पुराने दूध के डिब्बे को माला पहनाकर बंद कर दिया। आंखों से आँसू छलक पड़े। कोई पूछ बैठा — "क्या अब दूध भी राजनीति करेगा?" जवाब आया — "नहीं बेटा, अब राजनीति ही दूध को पी जाएगी।" गांव वालों ने एक स्वर में कहा — “अब तो भैंस ही संविधान लिखेगी।” और भैंस… वो चुपचाप खड़ी रही, उसकी आंखों में एक बूंद आंसू चमक रहा था — शायद किसी पुराने नेता का बचा हुआ वादा।
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)