By डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Jul 25, 2018
यह खुशी की बात है कि सरकार ने सामूहिक हिंसा या भीड़ की हिंसा के विरुद्ध सोचना शुरु कर दिया है। यह कितना विचित्र है कि इसका श्रेय हमारे सर्वोच्च न्यायालय को है, उन नेताओं को नहीं, जो जनता की बीच रहने की डींग मारते हैं। यह ठीक है कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने सांसद में सामूहिक हिंसा की निंदा की लेकिन उसके निराकरण की सारी जिम्मेदारी उन्होंने राज्य सरकारों पर छोड़ दी। इस मुद्दे पर मोदी की चुप्पी ने यह छाप छोड़ी कि मानों केंद्र में सरकार नाम की कोई चीज है ही नहीं।
चलिए, अब गाड़ी फिर से पटरी पर आ गई है। अब गृह-सचिव के नेतृत्व में बनी अफसरों की एक कमेटी एक माह में रपट दे देगी कि सामूहिक हिंसा कैसे रोकी जाए ? हो सकता है कि वह रपट काफी अच्छी हो और उसके आधार पर बना कानून देश के स्वयंभू-सिरफिरे और हिंसक नागरिकों को काबू कर सके, जरा डरा सके। रपट जैसी भी आए, मेरा विचार है कि भीड़ की हिंसा किसी भी बहाने से हो, उसकी सजा इतनी सख्त होनी चाहिए कि उसका विचार पैदा होने से ही हिंसक लोगों के पसीने छूटने लगें। एक आदमी की हत्या की सजा पूरी भीड़ के सौ आदमियों को मिले। 15-20 दिन में ही मिले। उन्हें लाल किले, विजय चौक या इंडिया गेट पर लटकाया जाए और तीन दिन तक लटकने दिया जाए तो देखिए, उसका क्या असर होता है !
गाय की रक्षा या बच्चे के अपहरण या विधर्मी से शादी या अछूत के मंदिर प्रवेश या विधर्मी से विवाद आदि किसी भी बहाने से हिंसा करने वालों के होश पहले से उड़ जाएंगे। लेकिन सिर्फ सजा से समाज नहीं बदलेगा। वह हिंसा कई दूसरे रूप धारण कर लेगी, जिसे कानून नहीं पकड़ पाएगा। इसीलिए जरूरी है कि विभिन्न धर्मों के साधु-संत, मुल्ला-मौलवी, पादरी-बिशप, मुनि-भिक्षु लोग अपने अनुयायियों को समझाएं कि भीड़ बनाकर किसी निहत्थे इंसान को मौत के घाट उतारना कितना बड़ा पाप है। जो लोग अपने आप को राष्ट्रवादी और हिंदुत्ववादी कहते हैं, इस मामले में उनकी जिम्मेदारी सबसे ज्यादा है। जब कानून अपना काम करेगा तो वे उसे अपने हाथ में लेकर अपराध क्यों करें ? निहत्थे लोगों पर किसी बहाने से भी भीड़ बनाकर हमला करना शुद्ध कायरता है और हिंदुत्व का भी अपमान है। अपनी सरकार का भी अपमान है। जिसके कानून की रक्षा के लिए आपको कानून तोड़ना पड़े, वह सरकार भी क्या सरकार है?