शून्य वैवाहिक बंधन को ढोते रहने से कोई लाभ नहीं

By प्रीटी | Aug 10, 2016

शादी जन्म−जन्मांतरों का बंधन होता है। लेकिन खंडित और शून्य वैवाहिक जीवन टूट ही जाए तो अच्छा है। ऐसे वैवाहिक जीवन को घसीटते रहने से क्या फायदा, जिसमें वे न स्वयं को विवाहित कह पाते हैं और न ही अविवाहित होते हैं। वे अन्यत्र विवाह कर पाने के लिए भी स्वतंत्र नहीं होते इसलिए यह अत्यंत पीड़ादायक स्थिति होती है, चाहे उसके लिए कोई भी जिम्मेदार हो।

 

यह सच है कि विवाह गुड्डे−गुडियों का खेल नहीं है। जहां विवाह पारिवारिक जीवन की संरचना करते हैं वहीं इनकी पृष्ठभूमि में चरित्रवान समाज और राष्ट्र का निर्माण होता है। इसलिए विवाह जैसे महत्वपूर्ण किंतु नाजुक मामलों में अति महत्वाकांक्षा एवं स्वेच्छाचारिता न हो इसके लिए पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय स्तर पर आचार संहिताएं एवं कानून हैं।

 

विवाह जैसे अटूट संबंधों को बेशक टूटना नहीं चाहिए मगर जब वे भार बन जाएं तब उन्हें टूट जाने में कोई हर्ज नहीं है। कई बार मां−बाप या परिवारजन नहीं चाहते कि संबंध टूटें। आप जयपुर के राजीव शर्मा का ही उदाहरण लें, वह पुलिस इंस्पेक्टर रहे हैं। सरोज उनकी इकलौती बेटी थी। बाप ने सरल, सुयोग्य रमेश को नौकरी दिला कर एहसानों तले दबा दिया और उसके सामने दामाद बनने का प्रस्ताव रखा तो रमेश उसे टाल न सका।

 

शादी के बाद रमेश का जीवन नरक बन गया। सरोज उसके गले की हड्डी बन गई। शराब और क्लब की जिंदगी में डूबी रहने वाली सरोज उसे रास नहीं आ रही थी। उधर राजीव शर्मा ने अपने पुलिसिया व्यवहार से रमेश को इतना आतंकित कर दिया कि वह तलाक नहीं ले पाया। एक दिन उसने नारकीय जीवन से तंग आकर आत्महत्या कर ली।

 

इसलिए खंडित एवं शून्य हो चुके विवाहों को तोड़ कर निवृत्ति पा ली जाए, यही अच्छा है। एक सर्वेक्षण के अनुसार हत्या और आत्महत्या के शिकार होने वाले अधिकांश दंपतियों में पारिवारिक कलह का कारण खंडित विवाह है। साथ ही देखने में आया है कि परिवार में बिखराव रहने के कारण कई लोग आपराधिक गतिविधियों की ओर भी रुख कर जाते हैं। ऐसे लोग यौन कुंठित होते हैं जिसके कारण व्याभिचार की घटनाओं को जन्म मिलता है।

 

कानून किसी विवाह को सख्ती के द्वारा संपन्न होने से तो रोक सकता है लेकिन किसी प्रभावहीन या टूटे विवाह की फिर से स्थापना नहीं कर सकता। बेशक गुजारा भत्ता या अन्य दायित्वों को पूरा करने के लिए उन पर कानूनी दबाव बना दिया जाए पर पति−पत्नी के रूप में वे परस्पर व्यवहार करें, यह बाध्यता नहीं थोपी जा सकती।

 

ऐसी स्थिति में यह उचित है कि बेकार हो चुके विवाहों को जारी रखने की विवशताएं किसी भी तरह समाप्त की जाएं। इसके लिए आवश्यक है कि पति−पत्नी स्वयं दांपत्य संबंधों की समीक्षा करते हुए अपने अंतर्मन को टटोलें। जब ऐसा लगे कि साथ रह पाना सर्वथा असंभव है तब विवाह संबंध परस्पर सहमति से समाप्त करने का निर्णय ले लें। ऐसा करते समय न निरर्थक जल्दबाजी करें और न ही अहं व हठी दृष्टिकोण अपनाएं।

 

यह भी आवश्यक है कि कानून द्वारा तलाक के लिए और भी सहज एवं सरल प्रक्रिया अपनाई जाए। परिवार एवं समाज में विवाह एवं दांपत्य की परम्परागत रूढि़वादी व दकियानूसी सोच जैसे कि बाल विवाह, दहेज विवाह आदि पर रोक लगाई जाए तो परिवार टूटने से बच सकेंगे।

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