गुरु महिमा (कविता)

By अंजली खत्री | Sep 04, 2021

समाज में शिक्षा, शिक्षक एवं शिक्षक सम्मान का स्तर निरंतर विघटित हो रहा है इस कविता के माध्यम से कवियत्री ने आज की युवा पीढ़ी को शिक्षकों के महत्व एवं उनके सम्मान के प्रति चेतन करवाना चाहती है।


गुरु जोहरी कमाल का, पत्थर दियो तराश।

स्वयं प्रज्वलित होकर के, ज्ञान का कियो प्रकाश।।


गुरु गुण असहज है, करे दुर्लभ काज।

कौवा भी मोती चुगे, बने परिंदा बाज़।।


गुरु-स्थान सबते ऊंचा, ज्यों ऊंचा आकाश।

लक्ष्य का भेदन नाहीं, ना तिमिर मन प्रकाश।।


खाली गागर कुम्हार ने, गुरू को दियो थमाए।

गुण वर्षा ऐसी हुई, गागर भरती जाए।।


गुरु-दाता ज्ञान का, दे कड़वी मीठी सीख।

बन भिक्षुक ग्रहण करूं, मैं ज्ञान विद्या की भीख।।


पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोई।

मार्गदर्शन गुरू का, मिले सो पंडित होय।।


जित जन गुरु मंदा कहि, तित जन मूर्ख जात।

जित डाली बैठे रहि, तित पै आरी चलात।।


गुरु दुर्लभ उपकार का, ऋण  कैसे दऊ चुकाए।

कौवा से हंस कियो, मोती दीयो चुगाय।।


गुरु निस्वार्थ उपकार का, ऋण कैसे दऊ चुकाए।

अमानुष से मानुष कियो, दरिद्रता दूर भगाए।।


गुरु मूसल लौह का, गेहूं धान सब पिस जाई ।

जित जोर ते लागे, तित महीन बन जाई ।।


गुरु मणि पारस की, दुर्लभ खजाना कुबेर।

लोहे को कंचन करे, जो छू ले इक बेर ।।


कुमति को ज्ञान नाही, करै जो गुरु अपमान।

कीच सनयो जीवन माही, धोए ना जाए बिन गुरु ज्ञान।।


भवसागर मझधार में, जीवन नईया डोले खाए ।

जित हुए गुरु कृपा, डूबती पार लग जाए।।


चंचल चिड़िया नादान सा, मन डाल डाल भटकाय।

गुरु साधे पंख जो, ऊंची उड़ान भर जाए।।


गुरु कृपा की महिमा, लखि लखि लख वार।

गागर में इह कहां समाई, विशाल सागर अति अपार।।


- अंजली खत्री

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