राहुल लोगों के बीच स्वीकार्य नहीं, सोनिया ही कांग्रेस का नेतृत्व करें

By कुलदीप नैय्यर | Aug 30, 2017

सुप्रीम कोर्ट का फैसला कठोर और स्पष्ट है। भारतीय संविधान की बुनियादी बातों− औरतों और मर्दों को अपनी मर्जी से जीने की आजादी से कोई समझौता नहीं हो सकता है। मैं चाहता था कि मुसलिम समुदाय ने तीन तलाक, जो संविधान की भावना के विपरीत है, पर पाबंदी को स्वीकार कर लिया होता। लेकिन ऐसा लगता है, मानो कट्टरपंथी जैसा चाहते थे वही होता रहा।

मुस्लिम महिला शाहबानो के मामले के साथ भी यही था, जहां सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया तथा एक लंबी कानूनी लड़ाई के बाद 1985 में निर्वाह−खर्च तय किया। मुसलमानों ने फैसले को कबूल नहीं किया और दलील दी कि कोर्ट पर्सनल कानून से संबंधित मामलों में हस्तक्षेप के लिए स्वतंत्र नहीं है। मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अनुसार, तलाकशुदा औरतों को परवरिश−खर्च और महर के जरिए मदद देने की व्यवस्था शरियत के तहत होती है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस दलील को नहीं माना तथा परवरिश की राशि तय कर दी।

 

सेकुलर समाज में तीन तलाक के लिए कोई जगह नहीं है। पाकिस्तान तथा बांग्लादेश समेत दुनिया के ज्यादातर मुसलिम देशों ने इस पर पाबंदी लगा दी है। लेकिन भारत में ऐसी स्थिति है कि इस पर बहस नहीं हो सकती है। दिखाने के लिए होने वाली बहस को भी हस्तक्षेप कहकर खारिज कर दिया जाता है। तीन तलाक का इस्तेमाल जारी है और मर्दों का बोलबाला कम नहीं हुआ।

 

इसके विपरीत, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के हस्तक्षेप से हिंदू पर्सनल कानून अस्तित्व में आया। उन्होंने पहली बार हिंदू धर्म में तलाक की शुरूआत की। संविधान सभा के अध्यक्ष और अत्यंत सम्मानित डॉ. राजेंद्र प्रसाद की ओर से नेहरू का तीव्र विरोध हुआ। नेहरू की ही चली क्योंकि सरकारी मशीनरी पर उनका नियंत्रण था।

 

मुसलमानों ने भी दशकों से इस चुनौती का सामना किया है। तीन तलाक को कुरान की स्वीकृति नहीं है, लेकिन यह लंबे समय से टिका हुआ है। कुछ मुसलिम औरतों ने सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इस बारे में लैंगिक समानता पर विचार किया जाना चाहिए। सरकार ने इस बारे में सहमति ढूंढ़ने के लिए प्रश्नावली जारी करने की सोची थी, लेकिन इसे जारी करने से परहेज किया। 

 

मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसका जोरदार विरोध किया। संयोग से, इसमें कोई महिला सदस्य नहीं है। लेकिन औरतों की सलाह लिए बगैर यह अपनी शर्तें थोपता रहता है। औरतें खुद इसका विरोध करती रही हैं, लेकिन मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड ऐसी नीति पर चलती है जिसमें औरतों की राय तक नहीं ली जाती है। और, इसलिए कट्टरपंथियों का निर्देश चलना जारी है।

 

इस सवाल का किसी दिन संसद के सामने आना तय है क्योंकि परिस्थिति को लेकर मुसलिम समुदाय के अलग−अलग वर्ग और दूसरे लोग भी उत्तेजित हैं। ज्यादातर मुसलिम औरतों की ओर से सामाजिक बहिष्कार है। दूसरी ओर, मुसलिम मर्दों का बोलबाला जारी है, इसके बावजूद कि वे मानते हैं कि पैगंबर मर्द और औरतों के साथ समान बर्ताव चाहते थे। लेकिन जब इस विचार को कानून में दर्ज करने की बात आती है तो बोर्ड इसकी परवाह नहीं करता।

 

कोई भी बहस कैसे हो सकती है अगर मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड लोगों की राय जानने वाली प्रश्नावली का सीधे−सीधे विरोधी हो? देश के अलग−अलग हिस्सों की औरतों ने प्रदर्शन किए और मांग की कि उनकी राय ली जाए। नरेंद्र मोदी सरकार कोई कदम उठाने से हिचकिचा रही कि उसे गलत नहीं समझा जाए। चीजों को उस बिंदु पर छोड़ा नहीं जा सकता है।

 

संसद को आगे आना चाहिए और पहले दोनों सदनों में इस मुद्दे पर बहस करनी चाहिए कि समुदाय, खासकर इनकी औरतें इस सवाल पर क्या महसूस करती हैं। जाहिर है, चुनावी वजहों से राजनीतिक पार्टियां खामोशी अख्तियार करना चाहती हैं। अस्सी सीटों वाले सबसे बड़े हिंदी भाषी राज्य उत्तर प्रदेश समेत कई राज्य हैं जहां मुसलिम समुदाय इस स्थिति में दिखाई देता है कि तय करें कि सत्ता में कौन रहे।

 

उदाहरण के तौर पर, समाजवादी पार्टी नेता मुलायम सिंह यादव मुसलिम वोट जुटाने में सक्षम थे क्योंकि समुदाय कांग्रेस से अलगाव महसूस कर रहा था। हाल के चुनावों में सत्ता विरोधी लहर का असर हुआ और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को उस समय के कैबिनेट मंत्री आजम खान, जिन्हें मुसलमानों के संरक्षक के रूप में पेश किया गया, के होते हुए भी पराजित कर दिया गया।

 

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी जिनका भाषण बिना सोचे−विचारे होता है, मुसलमानों को अपनी ओर करना चाहते हैं। लेकिन आमतौर पर वह लोगों के बीच स्वीकार्य नहीं हैं और शायद यह बेहतर होगा कि सोनिया गांधी खुद ही पार्टी का नेतृत्व करें। अब उन पर इटालियन होने का लेबल नहीं रह गया है। वह अपने नाम पर बेटे के मुकाबले ज्यादा भीड़ आकर्षित करती हैं। यह कांग्रेस के लिए चुनौती है जिसने राहुल गांधी पर अपना दांव लगा दिया है, लेकिन धीरे−धीरे मान रही है कि वह लोगों के बीच स्वीकार्य नहीं हो पा रहे हैं। वास्तव में, उनके मुकाबले उनकी बहन प्रियंका गांधी की ज्यादा लोकप्रिय छवि है। 

 

यह शर्म की बात है कि एक सेकुलर लोकतांत्रिक देश तीन तलाक जैसी प्रथा के साथ रह रहा है, सिर्फ किसी समुदाय की नाराजगी के भय के कारण। प्रधानमंत्री ने मुसलिम विधवाओं के लिए पेंशन के लिए कानून बनाकर घपला किया। इसने बेवजह बाबरी मस्जिद विरोधी आंदोलन को हवा दी और पीवी नरसिंहा राव की सरकार में मसजिद ध्वस्त कर दी गई। बाकी तो इतिहास है।

 

इसी तरह, तीन तलाक को जारी नहीं रखा जा सकता है क्योंकि यह संविधान की भावना के खिलाफ है। वास्तव में यह आश्चर्य की बात है कि संविधान में नीति निदेशक तत्वों में समान नागरिक कानून की बात रहने के बाद भी यह इतने लंबे समय तक रह गया। आजादी के बाद की विभिन्न सरकारों ने इस सवाल को टाला। मोदी सरकार भी यह कर सकती है। लेकिन यह हल नहीं है। देर−सबेर, तीन तलाक को जाना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह बता दिया कि इस बारे में संविधान की व्याख्या किस तरह की जानी चाहिए।

 

कट्टरपंथियों की ओर से मुसलिम समुदाय को गुमराह किया जा रहा है। दुर्भाग्य से, राजनीति भी घुस गई है। भारतीय जनता पार्टी की नजर 2019 के चुनावों पर है। अनेकता का माहौल इससे बिगड़ना नहीं चाहिए। सुप्रीम कोर्ट या यूं कहिए कि किसी भी अदालत के लिए हस्तक्षेप का कोई आधार नहीं होगा अगर संविधान की प्रस्तावना का पालन होता है जो सेकुलर और लोकतंत्रिक शासन है।

 

- कुलदीप नायर

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