Gyan Ganga: रामचरितमानस- जानिये भाग-34 में क्या क्या हुआ

By आरएन तिवारी | Sep 26, 2025

श्री रामचन्द्राय नम:


पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः


दोहा :

जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ।

रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ॥


भावार्थ:-जिस नगर में स्वयं जगदम्बा ने अवतार लिया, क्या उसका वर्णन हो सकता है? वहाँ ऋद्धि, सिद्धि, सम्पत्ति और सुख नित-नए बढ़ते जाते हैं॥

 

चौपाई :

नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥

करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥1॥


भावार्थ:-बारात को नगर के निकट आई सुनकर नगर में चहल-पहल मच गई, जिससे उसकी शोभा बढ़ गई। अगवानी करने वाले लोग बनाव-श्रृंगार करके तथा नाना प्रकार की सवारियों को सजाकर आदर सहित बारात को लेने चले॥1॥

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हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भए सुखारी॥

सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे॥2॥


भावार्थ:-देवताओं के समाज को देखकर सब मन में प्रसन्न हुए और विष्णु भगवान को देखकर तो बहुत ही सुखी हुए, किन्तु जब शिवजी के दल को देखने लगे तब तो उनके सब वाहन सवारियों के हाथी, घोड़े, रथ के बैल आदि डरकर भाग चले॥2॥

 

धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने॥

गएँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कंपित गाता॥3॥


भावार्थ:-कुछ बड़ी उम्र के समझदार लोग धीरज धरकर वहाँ डटे रहे। लड़के तो सब अपने प्राण लेकर भागे। घर पहुँचने पर जब माता-पिता पूछते हैं, तब वे भय से काँपते हुए शरीर से ऐसा वचन कहते हैं॥3॥

 

कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता॥

बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥4॥


भावार्थ:-क्या कहें, कोई बात कही नहीं जाती। यह बारात है या यमराज की सेना? दूल्हा पागल है और बैल पर सवार है। साँप, कपाल और राख ही उसके गहने हैं॥4॥

 

छन्द :

तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा।

सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा॥

जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही।

देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही॥


भावार्थ:-दूल्हे के शरीर पर राख लगी है, साँप और कपाल के गहने हैं, वह नंगा, जटाधारी और भयंकर है। उसके साथ भयानक मुखवाले भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ और राक्षस हैं, जो बारात को देखकर जीता बचेगा, सचमुच उसके बड़े ही पुण्य हैं और वही पार्वती का विवाह देखेगा। लड़कों ने घर-घर यही बात कही।

 

दोहा :

समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं।

बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं॥


भावार्थ:-महेश्वर (शिवजी) का समाज समझकर सब लड़कों के माता-पिता मुस्कुराते हैं। उन्होंने बहुत तरह से लड़कों को समझाया कि निडर हो जाओ, डर की कोई बात नहीं है॥95॥

 

चौपाई :

लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥

मैनाँ सुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी॥1॥


भावार्थ:-अगवान लोग बारात को लिवा लाए, उन्होंने सबको सुंदर जनवासे ठहरने को दिए। मैना (पार्वतीजी की माता) ने शुभ आरती सजाई और उनके साथ की स्त्रियाँ उत्तम मंगलगीत गाने लगीं॥1॥

 

कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥

बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा॥2॥


भावार्थ:-सुंदर हाथों में सोने का थाल शोभित है, इस प्रकार मैना हर्ष के साथ शिवजी का परछन करने चलीं। जब महादेवजी को भयानक वेष में देखा तब तो स्त्रियों के मन में बड़ा भारी भय उत्पन्न हो गया॥2॥

 

भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा॥

मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी। लीन्ही बोली गिरीसकुमारी॥3॥


भावार्थ:-बहुत ही डर के मारे भागकर वे घर में घुस गईं और शिवजी जहाँ जनवासा था, वहाँ चले गए। मैना के हृदय में बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने पार्वतीजी को अपने पास बुला लिया॥3॥

 

अधिक सनेहँ गोद बैठारी। स्याम सरोज नयन भरे बारी॥

जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा॥4॥


भावार्थ:-और अत्यन्त स्नेह से गोद में बैठाकर अपने नीलकमल के समान नेत्रों में आँसू भरकर कहा- जिस विधाता ने तुमको ऐसा सुंदर रूप दिया, उस मूर्ख ने तुम्हारे दूल्हे को बावला कैसे बनाया?॥4॥

 

छन्द :

कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई।

जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥

तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं।

घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥


भावार्थ:-जिस विधाता ने तुमको सुंदरता दी, उसने तुम्हारे लिए वर बावला कैसे बनाया? जो फल कल्पवृक्ष में लगना चाहिए, वह जबर्दस्ती बबूल में लग रहा है। मैं तुम्हें लेकर पहाड़ से गिर पड़ूँगी, आग में जल जाऊँगी या समुद्र में कूद पड़ूँगी। चाहे घर उजड़ जाए और संसार भर में अपकीर्ति फैल जाए, पर जीते जी मैं इस बावले वर से तुम्हारा विवाह न करूँगी।

 

दोहा :

भईं बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि।

करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि॥


भावार्थ:-हिमाचल की स्त्री मैना को दुःखी देखकर सारी स्त्रियाँ व्याकुल हो गईं। मैना अपनी कन्या के स्नेह को याद करके विलाप करती, रोती और कहती थीं-॥96॥

 

चौपाई :

नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥

अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लागि तपु कीन्हा॥1॥


भावार्थ:-मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने मेरा बसता हुआ घर उजाड़ दिया और जिन्होंने पार्वती को ऐसा उपदेश दिया कि जिससे उसने बावले वर के लिए तप किया॥1॥

 

साचेहुँ उन्ह कें मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया॥

पर घर घालक लाज न भीरा। बाँझ कि जान प्रसव कै पीरा॥2॥


भावार्थ:-सचमुच उनके न किसी का मोह है, न माया, न उनके धन है, न घर है और न स्त्री ही है, वे सबसे उदासीन हैं। इसी से वे दूसरे का घर उजाड़ने वाले हैं। उन्हें न किसी की लाज है, न डर है। भला, बाँझ स्त्री प्रसव की पीड़ा को क्या जाने॥2॥

 

जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥

अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥3॥


भावार्थ:-माता को विकल देखकर पार्वतीजी विवेकयुक्त कोमल वाणी बोलीं- हे माता! जो विधाता रच देते हैं, वह टलता नहीं, ऐसा विचार कर तुम सोच मत करो!॥3॥

 

करम लिखा जौं बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू॥

तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका॥4॥


भावार्थ:-जो मेरे भाग्य में बावला ही पति लिखा है, तो किसी को क्यों दोष लगाया जाए? हे माता! क्या विधाता के अंक तुमसे मिट सकते हैं? वृथा कलंक का टीका मत लो॥4॥

 

छन्द :

जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं।

दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं॥

सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं।

बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं॥


भावार्थ:-हे माता! कलंक मत लो, रोना छोड़ो, यह अवसर विषाद करने का नहीं है। मेरे भाग्य में जो दुःख-सुख लिखा है, उसे मैं जहाँ जाऊँगी, वहीं पाऊँगी! पार्वतीजी के ऐसे विनय भरे कोमल वचन सुनकर सारी स्त्रियाँ सोच करने लगीं और भाँति-भाँति से विधाता को दोष देकर आँखों से आँसू बहाने लगीं।

 

शेष अगले प्रसंग में -------------


राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥


- आरएन तिवारी

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