Gyan Ganga: रामचरितमानस- जानिये भाग-43 में क्या क्या हुआ

By आरएन तिवारी | Nov 28, 2025

श्री रामचन्द्राय नम:


पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः


दोहा :

सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।

छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥


भावार्थ:-जैसे मूर्ख कुत्ता सिंह को देखकर सूखी हड्डी लेकर भागे और वह मूर्ख यह समझे कि कहीं उस हड्डी को सिंह छीन न ले, वैसे ही इन्द्र को नारदजी मेरा राज्य छीन लेंगे, ऐसा सोचते लाज नहीं आई॥

 

चौपाई :

तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥

कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहिं भृंगा॥1॥


भावार्थ:-जब कामदेव उस आश्रम में गया, तब उसने अपनी माया से वहाँ वसन्त ऋतु को उत्पन्न किया। तरह-तरह के वृक्षों पर रंग-बिरंगे फूल खिल गए, उन पर कोयलें कूकने लगीं और भौंरे गुंजार करने लगे॥1॥

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चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥

रंभादिक सुर नारि नबीना। सकल असमसर कला प्रबीना॥2॥


भावार्थ:-कामाग्नि को भड़काने वाली तीन प्रकार की शीतल, मंद और सुगंध सुहावनी हवा चलने लगी। रम्भा आदि नवयुवती देवांगनाएँ, जो सब की सब कामकला में निपुण थीं,॥2॥

 

करहिं गान बहु तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हिं पानि पतंगा॥

देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥3॥


भावार्थ:-वे बहुत प्रकार की तानों की तरंग के साथ गाने लगीं और हाथ में गेंद लेकर नाना प्रकार के खेल खेलने लगीं। कामदेव अपने इन सहायकों को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और फिर उसने नाना प्रकार के मायाजाल किए॥3॥

 

काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥

सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासू। बड़ रखवार रमापति जासू॥4॥


भावार्थ:-परन्तु कामदेव की कोई भी कला मुनि पर असर न कर सकी। तब तो पापी कामदेव अपने ही नाश के भय से डर गया। लक्ष्मीपति भगवान जिसके बड़े रक्षक हों, भला, उसकी सीमा मर्यादा को कोई दबा सकता है? ॥4॥

 

दोहा :

सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।

गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥


भावार्थ:-तब अपने सहायकों समेत कामदेव ने बहुत डरकर और अपने मन में हार मानकर बहुत ही आर्त वचन कहते हुए मुनि के चरणों को जा पकड़ा॥126॥

 

चौपाई :

भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥

नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥1॥


भावार्थ:-नारदजी के मन में कुछ भी क्रोध न आया। उन्होंने प्रिय वचन कहकर कामदेव का समाधान किया। तब मुनि के चरणों में सिर नवाकर और उनकी आज्ञा पाकर कामदेव अपने सहायकों सहित लौट गया॥1॥

 

मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥

सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥2॥


भावार्थ:-देवराज इन्द्र की सभा में जाकर उसने मुनि की सुशीलता और अपनी करतूत सब कही, जिसे सुनकर सबके मन में आश्चर्य हुआ और उन्होंने मुनि की बड़ाई करके श्री हरि को सिर नवाया॥2॥

 

तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥

मार चरति संकरहि सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥3॥


भावार्थ:-तब नारदजी शिवजी के पास गए। उनके मन में इस बात का अहंकार हो गया कि हमने कामदेव को जीत लिया। उन्होंने कामदेव के चरित्र शिवजी को सुनाए और महादेवजी ने उन नारदज को अत्यन्त प्रिय जानकर इस प्रकार शिक्षा दी-॥3॥

 

बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥

तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ॥4॥


भावार्थ:-हे मुनि! मैं तुमसे बार-बार विनती करता हूँ कि जिस तरह यह कथा तुमने मुझे सुनाई है, उस तरह भगवान श्री हरि को कभी मत सुनाना। चर्चा भी चले तब भी इसको छिपा जाना॥4॥


नारद का अभिमान और माया का प्रभाव 


दोहा :

संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।

भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥


भावार्थ:-यद्यपि शिवजी ने यह हित की शिक्षा दी, पर नारदजी को वह अच्छी न लगी। हे भरद्वाज! अब कौतुक सुनो। हरि की इच्छा बड़ी बलवान है॥

 

चौपाई :

राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥

संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥1॥


भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी जो करना चाहते हैं, वही होता है, ऐसा कोई नहीं जो उसके विरुद्ध कर सके। श्री शिवजी के वचन नारदजी के मन को अच्छे नहीं लगे, तब वे वहाँ से ब्रह्मलोक को चल दिए॥1॥

 

एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥

छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥2॥


भावार्थ:-एक बार गानविद्या में निपुण मुनिनाथ नारदजी हाथ में सुंदर वीणा लिए, हरिगुण गाते हुए क्षीरसागर को गए, जहाँ वेदों के मस्तकस्वरूप मूर्तिमान वेदांतत्व लक्ष्मी निवास भगवान नारायण रहते हैं॥2॥

 

हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥

बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥3॥


भावार्थ:-रमानिवास भगवान उठकर बड़े आनंद से उनसे मिले और नारदजी के साथ आसन पर बैठ गए। चराचर के स्वामी भगवान हँसकर बोले- हे मुनि! आज आपने बहुत दिनों पर दया की॥3॥

 

काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥

अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥4॥


भावार्थ:-यद्यपि श्री शिवजी ने उन्हें पहले से ही बरज रखा था, तो भी नारदजी ने कामदेव का सारा चरित्र भगवान को कह सुनाया। श्री रघुनाथजी की माया बड़ी ही प्रबल है। जगत में ऐसा कौन जन्मा है, जिसे वे मोहित न कर दें॥4॥

 

दोहा :

रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान।

तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥


भावार्थ:-भगवान रूखा मुँह करके कोमल वचन बोले- हे मुनिराज! आपका स्मरण करने से दूसरों के मोह, काम, मद और अभिमान मिट जाते हैं (फिर आपके लिए तो कहना ही क्या है!)॥128॥

 

चौपाई :

सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें॥

ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥1॥


भावार्थ:-हे मुनि! सुनिए, मोह तो उसके मन में होता है, जिसके हृदय में ज्ञान-वैराग्य नहीं है। आप तो ब्रह्मचर्यव्रत में तत्पर और बड़े धीर बुद्धि हैं। भला, कहीं आपको भी कामदेव सता सकता है?॥1॥


नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥

करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥2॥


भावार्थ:-नारदजी ने अभिमान के साथ कहा- भगवन! यह सब आपकी कृपा है। करुणानिधान भगवान ने मन में विचारकर देखा कि इनके मन में गर्व के भारी वृक्ष का अंकुर पैदा हो गया है॥2॥

 

बेगि सो मैं डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥

मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मैं सोई॥3॥


भावार्थ:-मैं उसे तुरंत ही उखाड़ फेंकूँगा, क्योंकि सेवकों का हित करना हमारा प्रण है। मैं अवश्य ही वह उपाय करूँगा, जिससे मुनि का कल्याण और मेरा खेल हो॥3॥

 

तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥

श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥4॥


भावार्थ:-तब नारदजी भगवान के चरणों में सिर नवाकर चले। उनके हृदय में अभिमान और भी बढ़ गया। तब लक्ष्मीपति भगवान ने अपनी माया को प्रेरित किया। अब उसकी कठिन करनी सुनो॥4॥

 

शेष अगले प्रसंग में -------------


राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥


- आरएन तिवारी

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