शादी का अधिकार, जीवन जीने का अधिकार नहीं है: केंद्र ने HC से कहा

By प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क | Mar 12, 2019

नयी दिल्ली। केंद्र और भारतीय सेना ने दिल्ली उच्च न्यायालय में कहा कि ‘शादी का अधिकार’ मौलिक अधिकार नहीं है और यह संविधान के तहत जीवन जीने के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि जज एडवोकेट जनरल (जैग) विभाग या सेना की किसी अन्य शाखा में वैवाहिक स्थिति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं है। उन्होंने एक जनहित याचिका को खारिज करने की मांग करते हुए एक हलफनामे में यह कहा। इस जनहित याचिका में विवाहित लोगों पर सेना की कानून शाखा जैग विभाग में भर्ती किए जाने से रोक को चुनौती दी गई है।

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केंद्र ने बताया कि प्रतिबंध पुरुषों और महिलाओं दोनों पर है क्योंकि इसमें भर्ती होने से पूर्व के प्रशिक्षण में काफी शारीरिक और मानसिक दबाव होता है और एक बार जब वे इसमें शामिल हो जाते हैं तो उनके शादी करने या बच्चे करने पर कोई रोक नहीं होती। यह हलफनामा वकील कुश कालरा की जनहित याचिका के जवाब में दाखिल किया गया। कालरा ने जैग के लिए विवाहित व्यक्तियों पर लगे प्रतिबंध को ‘संस्थागत भेदभाव’ बताया। हलफनामे में कहा गया है, ‘यह उल्लेखनीय है कि शादी का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत जीवन जीने का अधिकार नहीं हो सकता। यह कहीं भी लिखा या साबित नहीं हुआ है कि किसी व्यक्ति का जीवन शादी के बिना परेशानी भरा या अस्वास्थ्यकर होगा।’ इसमें कहा गया है कि संविधान में शादी का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं बताया गया है।

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इसमें कहा गया है कि साल 2017 तक जैग विभाग में भर्ती के लिए विवाहित महिलाएं योग्य नहीं थी जबकि विवाहित पुरुषों पर कोई प्रतिबंध नहीं था। कालरा ने महिला उम्मीदवारों के साथ भेदभाव के चलते 2016 में इस नीति को चुनौती दी। याचिका लंबित रहने के दौरान ही सरकार ने 14 अगस्त 2017 को एक शुद्धिपत्र जारी किया जिसके अनुसार अब जैग विभाग समेत सेना में शामिल होने की कई योजनाओं के लिए केवल अविवाहित पुरुषों और महिलाओं पर ही विचार किया जाएगा। जज एडवोकेट जनरल सेना, मार्शल और अंतरराष्ट्रीय कानून के मामलों में सेना प्रमुख का कानूनी सलाहकार होता है।

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