By तरूण विजय | Oct 02, 2019
हिंदू की संघर्ष यात्रा सदियों से सतत् चली आ रही है और यदि विश्व में अकेली ऐसी सभ्यता के रूप में हिंदू धर्म की सनातन अग्नि को किसी ने बचाए रखा है तो उनमें पराक्रमी हिंदु सम्राटों का योगदान रहा है तो उतना ही बड़ा योगदान रहा संतों और संत समाज शिल्पियों का जिन्होंने अनाम अजान अचीन्हें रहते हुए भी अपने रक्त से हिंदू धर्म का उपवन सींचा। भास्कर राव ऐसे ही सूर्य थे। सूर्य तो उनके नाम में ही निहित था लेकिन उनका व्यक्तित्व और कृतित्व सूर्य की असंख्य रश्मियों को शांत, मृदुल आत्मीयता में बदल दिया करता था। अपनेपन की उष्मा और मां के वात्सल्य की ठंडक। समाज के बहुत से प्रसिद्ध व्यक्ति ऐसे होते हैं जो स्वयं चमकते हैं परंतु अपने पीछे एक भी कार्यकर्ता की लीक नहीं छोड़ पाते, किसी को गढ़ नहीं पाते, केवल ज्यों पूर्व से ही प्रभासित हैं उन्हीं की परावर्तित आभा अपनी ओर मोड़ चमक फिर अस्ताचलगामी हो जाते हैं। भास्कर राव स्वयं प्रभा के उद्भासित थे। उन्होंने अपने तेज और तप से हजारों घरों को समर्पित संघ कार्यालय में बदल दिया और हजारों युवाओं को स्वयंसेवकत्व की दीक्षा देखकर पाशविक और बर्बर वामपंथी हिंसा के विरुद्ध चट्टान की तरह खड़ा कर दिया।
कुछ समय पहले सोशल मीडिया पर केरल के मास्टर सदानंदन की बेटी यमुना भारती की चर्चा हुई। वामपंथी हिंसा के कारण सदानंद जी को कक्षा में पढ़ाते समय वामपंथी आतंकवादियों ने अपने हमले का शिकार बनाया और उनके दोनों पांव काट दिए। किसी तरह बचे और उन्होंने अपना परिवार हिम्मत और हौसले के साथ संघ के एक स्वयंसेवक की चट्टानी दृढ़ता को दिखाते हुए पाला पोसा और उन्हीं की बेटी यमुना भारती ने कालीकट विश्वविद्यालय की सिविल इंजीनियरिंग परीक्षा में प्रथम क्रमांक जिसे फर्स्ट क्लास फर्स्ट कहा जाता है, हासिल कर अपने पिता पर हमले का मानव विद्या विकास से प्रतिशोध ले लिया।
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कौन है सदानंद मास्टर। वे और उनके जैसे अनेक कार्यकर्ता भास्कर राव द्वारा केरल में रचे गए संघ संसार की देन है। ऐसे एक नहीं अनेक, अनेक नहीं अनेकानेक ज्ञात, अल्पज्ञात और प्राय: अज्ञात उदाहरण हैं। अगर भास्कर राव एक सूर्य थे तो उनकी सबसे बड़ी देन, इस भारत और भारत की हिंदू सभ्यता की रक्षा में निमित कवच समान युवकों को गढ़ने के रूप में यह कही जा सकती है कि एक भास्कर ने हजार भास्कर निर्मित किये।
उनको जानना अपने से मिलने जैसा होता था। शांत, शीतल, मंद समीर। या भास्कर राव हमें हमेशा दोनों एक जैसे ही लगे। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी उनका मंद मुस्काता सौम्य चेहरा कभी व्यग्र या उद्विग्न नहीं होता था। संघ कार्य उनके जीवन के रोम रोम में बसा था। पर कभी किसी भी क्षण किसी भी कार्यकर्ता का अगर मन उदास है उसकी कोई व्यथा है या उस पर कोई परिवारिक संकट भी आन पड़ा है तो भी उस घर के रक्त बंधु सदस्य के नाते हैं, यह समझ कर उन्होंने समाधान का प्रयास किया। यह कह कर कभी पीछे नहीं हटे कि भाई मैं तो संघ प्रचारक हूं आपकी इस समस्या से मुझे सहानुभूति है पर मैं कुछ कर नहीं सकता।
संघ को समझना है तो अपनेपन के संबंधों से समझना होगा। ग्रंथ, बौद्धिक और कार्यक्रम तो बाद में आते हैं और वास्तव में ग्रंथ, बौद्धिक और कार्यक्रम मूलत: उस अपनेपन के धागे रचने के लिए ही किये जाते हैं जिसे हिन्दू संगठन भी कहा जाता है। यही वह अपनापन था जिसने केरल में सामान्य आर्थिक दृष्टि से विपन्न, मजदूर, किसान, मछुआरों, अध्यापकों, रिक्शा चालकों, बिजली और अन्य सामान्य मरम्मत करने वालों के बीच संघ का काम प्रारम्भ करवाया। केरल में भास्कर राव संघ के प्रचारक, अधिकारी के नाते नहीं बल्कि किसी के भाई, किसी के पिता समान, किसी के अनुज, किसी के मामा या चाचा बन गये थे। वे घर के सदस्य थे जो शाखा भी जाते हैं- ना कि शाखा जाने के लिये कहने वाले जो घर भी आते हैं।
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कितना फर्क है इन दोनों में।
पर ये फर्क था भास्कर राव और सामाजिक संगठन के नाते संगठन करने वाले अन्य नेताओं में।
संघ में एक शब्द का प्रयोग होता है- एकरूपता। जब साधक और साध्य एक हो जाये, जब पथ अखिल भारतीय संगठन मंत्री बने। केरल से राष्ट्रीय स्तर पर जनजातीय समाज के संगठन शिक्षा और आर्थिक विकास, धर्म जागरण तथा अहिन्दू षड्यंत्रों से उनकी रक्षा का एक बड़ा और भिन्न प्रकार का दायित्व उनको मिला। और वह भी किस आयु में- जब वे 65 वर्ष के हो गये थे। यह वह आयु होती है जब जीवन एक निश्चित गति को प्राप्त हो चुका होता है। पथ निर्धारित होता है और शेष वर्ष आराम से निकालने का मन होता है।
लेकिन 65 वर्ष की आयु में भास्कर राव जी को मानो वह एक नया दायित्व और अध्याय रचने का काम दिया मानो वे उस समय 65 नहीं बल्कि 35 वर्ष के हों।
लेकिन भास्कर राव ने वनवासी कल्याण आश्रम को वही सब कुछ दिया जो 25 और 35 वर्ष के युवा कार्यकर्ता एक नवीन संगठन को दे सकते थे। नयी दिशा, नयी योजनाएं, नये कार्यकर्ताओं का जोड़ना और सेवा शिक्षा तथा आर्थिक विकास के कार्यक्रमों के साथ-साथ अपने धर्म और संस्कृति को बचाने के लिये उसी लौह दृढ़ता का समावेश जो केरल के प्रथम प्रांत प्रचारक के रूप में दिखाई थी।
मैं तब दादरा नागर हवेली में था। वनवासी कल्याण आश्रम के पूर्णकालिक के रूप में। 1981 से 1986 तक। 1986 सितम्बर में पांचजन्य में आया कार्यकारी सम्पादक के नाते। कल्याण आश्रम में और उसके बाद पांचजन्य में भास्कर राव से निरंतर सम्पर्क रहा। वे जब भी आते थे उनके साथ पत्र व्यवहार, मिलना सतत् चला। पहले वे झंडेवाला कार्यालय में रूकते थे बाद में उन्होंने वनवासी कल्याण आश्रम के मलकागंज कार्यालय में ही रुकना शुरू किया। प्राय: दिल्ली आगमन पर एक भोजन हमारे यहां अवश्य रहता था। काम की बात ? नहीं, सिर्फ घर की बातें। उस समय दिल्ली में वनबंधु का कार्यालय और उसका यहां कुछ नये पन के साथ छपने का उनका मन था। पांचजन्य में काम करते हुए उन्होंने मुझे वनबंधु के सम्पादक का भी दायित्व दिया। हमने कुछ समय दिल्ली से वारली शैली की चित्रकला वाले शुभकामना पत्र बनाकर भेजने और विक्रय करने प्रारम्भ किये। उन्हें मेरी माताजी की बहुत चिन्ता रहती थी। उनकी आंखों के दो ऑपरेशन हो चुके थे और वे देहरादून में अकेले रहती थीं। पूज्य रज्जू भैया ने अम्मा के पास भास्कर राव जी से कह कर असम से पहले दो और फिर अगले साल पांच वनवासी छात्र देहरादून में पढ़ने भेजे ताकि वे बच्चे पढ़ें भी और अम्मा का अकेलापन भी दूर हो। उसी काम को आगे बढ़ा कर भास्कर राव जी ने देहरादून में वनवासी छात्रावास और विद्यालय प्रारम्भ करने में मदद दी जो आज 20 साल हो गये पर सतत् गतिमान हैं। भास्कर राव इस प्रकार कार्यकर्ताओं का संसार रच देते थे।
उनका जन्म 5 अक्टूबर 1919 को तत्कालीन बर्मा (वर्तमान म्यांमार) की राजधानी रंगून के निकट दास गांव में हुआ था। जहां उनके पिता शिवराम कलंबी चिकित्सक थे। मूलत: भास्कर राव का वंश यानी कलंबी परिवार गोवा के मंगेशी गांव से है। इसी गांव से लता मंगेशकर का परिवार है। जहां मंगेश देव का प्राचीन मंदिर है। भास्कर राव की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा म्यांमार में हुई थी। काल की गति ऐसी कि बचपन में ही उनके माता-पिता का देहांत हो गया। अत: शेष शिक्षा मुंबई के रॉबर्ट मनी हाई स्कूल और सेंट जेवियर्स कॉलेज से प्राप्त की। कुछ समय नौकरी करने के बाद उन्होंने बंबई विश्वविद्यालय से (1945) में एल.एल.बी. की डिग्री हासिल की। वे बचपन से ही स्वयंसेवक थे। परमपूज्य गुरुजी, भाऊराव देवरस और दत्तोपंत जी के सम्पर्क में रहने के कारण 1946 में वे संघ के प्रचारक बन गये और उस समय संघ कार्य के असंभव माने जाने वाले केरल में संघ कार्य बढ़ाने का दायित्व दिया। जहां दत्तोपंत ठेगड़ी जी ने संघ कार्य को गति दी थी।
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भास्कर राव जी निरंतर प्रवास तथा वनवासी क्षेत्रों में हर क्षेत्र और हर प्रकल्प को स्वयं देखते और दिशा देते थे। उनका स्वास्थ्य पहले से ही गिरावट की ओर था। हृदय रोग के कारण शनै: शनै: उनकी गति और शक्ति पर असर पड़ने लगा और अचानक डॉक्टरों ने पाया कि उन्हें कैंसर है। दैवेच्छा के आगे किसकी चली है। 12 जनवरी 2002 को केरल एर्नाकुलम में उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। केरल प्रारम्भ से उनकी कर्म भूमि रही और उन्होंने अंतिम प्रयाण भी केरल की माटी को नमन करके किया।
भास्कर राव हमारे समय के महात्मा ही थे। जिन्होंने गांधी जी और दीनदयाल जी को नहीं देखा, उन्होंने भास्कर राव की छवि में गांधी और दीनदयाल दोनों को पाया।
-तरूण विजय