मुँह मियाँ मिट्ठू (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | May 19, 2025

राजन नामक प्राणी एक छोटे से नगर में जन्मा, लेकिन महापुरुष बनने की महत्त्वाकांक्षा लेकर बड़ा हुआ। वैसे तो वह सरकारी दफ्तर में तीसरे दर्जे का क्लर्क था, लेकिन आत्मा में वह एक प्रधानमंत्री, मस्तिष्क में एक नोबेल पुरस्कार विजेता, और दिल में एक बॉलीवुड हीरो था। समस्या बस इतनी थी कि उसे कोई और ऐसा नहीं मानता था – तो उसने खुद ही मानना शुरू कर दिया।


राजन को "मुँह मियाँ मिट्ठू" बनने की कला में पीएचडी प्राप्त थी। वह खुद को ऐसा प्रचारित करता जैसे चुनावी पोस्टर पर मुस्कुराता हुआ नेता – "विकास का दूसरा नाम – राजन!" वह जब भी किसी से मिलता, उसकी बातचीत की शुरुआत होती, "आपको शायद पता नहीं, मैं पहले भी कई बार न्यूयॉर्क जा चुका हूँ..." फिर चाहे वह न्यूयॉर्क पास की मिठाई की दुकान क्यों न हो।

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राजन का संवाद-संग्रह एकतरफा था – सामने वाला सुनता और राजन अपने महान कार्यों की बुलेट ट्रेन चलाता। "मैं कॉलेज में टॉपर था," वह कहता, जबकि हकीकत में उसने गणित के पेपर में सवाल को ‘कविता’ समझकर लिखा था – “घटाना है जीवन, जोड़ना है अनुभव।”


एक दिन राजन ने ठान लिया कि छोटा शहर उसकी प्रतिभा के लिए छोटा पड़ रहा है। जैसे एक मोर को पिंजरे में बंद कर दिया गया हो। उसने एक बड़े शहर की ओर प्रस्थान किया, जहां उसे एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी मिल गई। पहले ही दिन ऑफिस में घुसते ही उसने घोषणा कर दी – "मैं तो यहाँ CSR हेड बनने आया हूँ।" जबकि नौकरी की प्रोफ़ाइल थी – “डाटा एंट्री ऑपरेटर।”


राजन ने अपने सहकर्मियों को बताना शुरू किया कि वह एक प्रसिद्ध लेखक हैं। "मेरी कहानियाँ पढ़कर लोग रो पड़ते हैं।" जब किसी ने पूछा, "कहाँ छपी हैं?" तो बोले – "एक विदेशी जर्नल में, नाम याद नहीं आ रहा, कुछ फ्रेंच में था – शायद ‘द वायर’ या ‘द विडर’।” फिर बोले, "छपने से पहले ही बेस्टसेलर घोषित हो गई थीं।"


उसने दावा किया कि वह एक राष्ट्रीय स्तर के क्रिकेटर रह चुके हैं। जब पूछा गया, "किस टीम से खेले?" तो राजन बोले – "दिल्ली डॉल्फ़िन्स… एक सीक्रेट टीम थी, BCCI को बताना भी मना था।" जब सबने हँसते हुए उसकी तरफ देखा तो उसने विषय बदल दिया – “मेरी माँ एक अंतरराष्ट्रीय पेंटर थीं, जिनकी पेंटिंग्स आज भी पेरिस की गलियों में बिकती हैं – हाँ, गूगल पर नहीं मिलेंगी, वो underground artist थीं।”


ऑफिस के लोग पहले तो उसकी बातों पर हँसते रहे, फिर ध्यान देना छोड़ दिया। अब जब भी राजन बोलता, तो कान बंद कर लिए जाते थे। ऑफिस में उसे ‘फील-गुड चैनल’ कहा जाने लगा – फ्री में मूड ठीक करने वाली झूठी बातें सुननी हो तो राजन के पास चले जाओ।


लेकिन एक दिन आफ़त आ गई – दफ़्तर में नया बॉस आया। वह तेज, सख्त और ईमानदार था। राजन ने सोचा, “चलो, इसे भी अपने झूठे पराक्रम से प्रभावित करूँ।” उसने बॉस को देखते ही कहा, “सर, मैं आपको पहले भी टेड टॉक में मिल चुका हूँ, मैं स्पीकर था – ‘द आर्ट ऑफ ह्यूमिलिटी’ पर बात की थी।”


बॉस ने घूरते हुए कहा, “मुझे आपके बारे में बहुत कुछ सुनने को मिला है। लेकिन अब मैं खुद सुनना चाहता हूँ – आप असल में हैं क्या?”


राजन ने झूठों की बरसात शुरू ही की थी कि बॉस ने हाथ उठा दिया – “बस! आप या तो सच्चाई बताएँ या यहाँ से जाएँ।”


राजन को पहली बार लगा कि ज़िंदगी कोई सेल्फी नहीं है जिसे फिल्टर लगाकर सुंदर बना लिया जाए। उसने रुककर कहा, "सर, मैं दरअसल एक आम इंसान हूँ, जो खास बनने का ढोंग करता रहा।"


बॉस मुस्कुराया और कहा, "सच बोलना भी एक कला है, जो मुश्किल जरूर है, लेकिन टिकाऊ है। आपको एक मौका दिया जाता है। आगे से झूठ मत बोलिए – वरना अगला झूठ आपकी नौकरी ले जाएगा।”

 

उस दिन के बाद राजन बदल गया – या यूँ कहिए कि उसके झूठों का पेट्रोल खत्म हो गया। अब वह ऑफिस में चुपचाप बैठा काम करता है। कभी-कभी जब पुरानी आदतें उभरती हैं, तो वह खुद से कहता है – "राजन, खुद को महान बताना आसान है, महान बनना मुश्किल। और याद रख, झूठ जितना मीठा होता है, उसका पकड़ा जाना उतना ही कड़वा होता है।”


- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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