ऐसी हो शहर की सरकार (व्यंग्य)

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Prabhasakshi
संतोष उत्सुक । May 17 2025 12:52PM

व्यवस्था इतनी अनुशासित हो कि विकास के ठेके अपने खास लोगों को ज्यादा मिलें। जो नए पार्टी पार्षद ठेकेदार बनना चाहें देर न करें। सरकारी विभागों में तालमेल हमेशा की तरह कम रहे। उनके बीच समन्वय स्थापित करवाने की कोशिश करना गुस्ताखी जैसा रहे।

वोटर मंथन से चुनाव जीतकर, समाजसेवी बंदे जब शहर की नई सरकार बनाने के लिए बैठक करते हैं तो उनके दिमाग में तरह तरह के इरादे आते और जाते हैं। आम जनता से किए वादों को भूलते ही नई योजनाएं आपसी कुश्ती करने लगती हैं। सबसे पहली योजना जो उनके मेहनती दिमाग में कुलबुलाती है, हर काम हो, चाहे भ्रष्टाचार मुक्त न हो। कार्य योजना बने लेकिन कार्यन्वित हो न हो। ज़्यादातर कामों में पारदर्शिता लाने का जोखिम न लिया जाए। बजट का दुरूपयोग लोकतान्त्रिक परम्पराओं के अनुसार  ही किया जाए।

व्यवस्था इतनी अनुशासित हो कि विकास के ठेके अपने खास लोगों को ज्यादा मिलें। जो नए पार्टी पार्षद ठेकेदार बनना चाहें देर न करें। सरकारी विभागों में तालमेल हमेशा की तरह कम रहे। उनके बीच समन्वय स्थापित करवाने की कोशिश करना गुस्ताखी जैसा रहे। तालमेल हो गया तो काम शीघ्र होने लगेंगे, नेतागिरी परेशान हो जाएगी फिर तिकड़मी राजनीति का क्या होगा। ऐसा होना मुश्किल है कि अफसरों और नेताओं की जगह आम जनता की बात सुनी जाए। अगर ऐसा प्रस्ताव पास किया गया कि अफसर महीने में एक बार क्षेत्र का गंभीर दौरा करें, अतिक्रमण पर सख्त कार्रवाई करें तो उनका शरीर भी जोखिम में पड़ सकता है। शहर की सरकार ऐसा कैसे कर सकती है, नहीं कर सकती, बड़ा मुश्किल काम है जी ।

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शहर की सड़कें सफाई के बिना खुश रहें, उनके गड्ढे यानी स्पीड ब्रेकर सलामत रहें। कुव्यवस्था का दोष बढ़ती गाड़ियों और बदलते वक़्त को दिया जाए। चालान करने वाला अधिकारी कभी कभार ही आए और सिर्फ खानापूर्ति करे। पौधारोपण कर हरियाली बढ़ाना, पौधों की देखभाल करना, पानी देना वगैरा बहुत समय लेने वाला काम है। इसकी जगह शहर की सुन्दरता स्थायी रूप से बढाने के लिए, प्लास्टिक के वृक्ष, पौधे और फूल प्रयोग करने का प्रस्ताव पास हो। भविष्य की सोच वाले विचारों को मौक़ा न मिले। 

कल का क्या भरोसा, दुनिया में खतरा बढ़ता जा रहा है। बड़ी ताकतें एक दूसरे को धमका रही हैं। जाने माने प्रवचक, विचारक और लाइफ कोच, आज में जीने की वकालत करते हैं। शहर की प्रकाश व्यवस्था, स्वच्छता और कूड़ा समितियां बनाकर अभियान चलाते रहना चाहिए ताकि समय बीतता रहे। शहर की सरकार यह अच्छी तरह समझे कि वास्तविक स्थिति बदलने से आसान है बातें करना, अभियान चलाते रहना, प्रस्ताव पास कर प्रेस नोट छपवाते रहना। एंटी सोशल मिडिया पर सोशल बने रहना।  

बढ़ता ट्रैफिक, गलत पार्किंग, पार्किंग की कमी, फुटपाथ पर कब्ज़ा, सार्वजनिक परिवहन की अनुपलब्धता बारे समाज के बुद्धिजीवी लोगों से बात न की जाए क्यूंकि उनके पास सिर्फ सलाह होती है। जो काम होते हैं वे अबुद्धिजीवियों के कारण होते हैं। नशे का धंधा और प्रयोग कम नहीं होता क्यूंकि उसमें कई ताकतें मिलकर काम करती हैं। शहर की सरकार वहां अपनी टांग नहीं अड़ा सकती। नौजवानों को खेलने को कहा जाता है, खेलने कूदने से भूख लगेगी तो बेरोज़गार खाएंगे क्या। पढाई का स्तर उठता नहीं, सरकार को ज़्यादा पढ़े लिखों की ज़रूरत होती नहीं। विज्ञापन खूब चलते हैं जिनमें नारे, जुमले, सुंदर चेहरे सिर्फ लुभाते हैं। बेहतर दुनिया के ख़्वाब आते हैं।  

शहर की सरकार ऐसी होनी चाहिए, जिसके पार्षद, अधिकारी और कर्मचारियों को यहां वहां फेंके कूड़े को उठवाने, नालियों की बदबू सूंघने, जहां तहां टूटी गलियां और सडकों पर गिरने, शहर के अंधेरे कोनों में ठोकरें खाने जाने की फुर्सत न हो। सरकार का हिस्सा होना आसान नहीं है। एक एक सीट की जीत का जुगाड़ लगाने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। मोहल्लों और वार्डों के ख़ास लोग ही चुनकर शहर की सरकार बनाते हैं। जीतकर काबिल हुए नेताओं को पता होता है कि जन सुविधाएं बढ़ाना, एक जैसी सुविधाएं देना आसान नहीं है। इस सन्दर्भ में, नए फैशनेबल कपडे पहनकर, संकल्प लेना और दिलाना आसान है। उन्हें समझ होती है कि आम लोग तो पैदा ही गलत नक्षत्रों में होते हैं, उनका ज्यादा ध्यान रखने की ज़रूरत नहीं है। 

प्रभावशाली लोग ही फायदा उठाने के लिए अधिकृत होते हैं, उन्हें तंग करने की जुर्रत नहीं होनी चाहिए। अभिनव प्रयोग करने वाले व्यक्ति चुने गए तो स्वस्थ कार्यसंस्कृति को ठेस पहुंच सकती है इसलिए शहर की सरकार का निर्माण करते हुए जातपात, पहुंच और धन का ध्यान रखा जाता है ताकि जानदार आरामदार, शानदार, ईनामदार और महान सरकार बने।   

- संतोष उत्सुक

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