By सुखी भारती | Jul 31, 2025
भगवान शंकर माता पार्वती को वह उपदेश दे रहे हैं, जो मानव जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। महापुरुषों ने इस उपदेश को श्रीराम कथा के नाम से जाना है। मानव का वास्तविक उदेश्य यह तो कभी नहीं था, कि इस नश्वर तन से केवल संसार के भोगों को ही भोगा जाये। निश्चित ही यह मानव तन माटी के ढेर में परिर्वतित हो जायेगा। किंतु इससे पहले कि हम माटी की कहानी बने, हमें शरीर रहते-रहते, ईश्वर को जानना है। किंतु मनुष्य का यह दुर्भाग्य है, कि वह अपने सीस को संतों के श्रीचरणों में झुकाने की बजाये, उलटे अकड़ दिखाता है। मानव की यही वृति देखकर भगवान शंकर कहते हैं-
‘तेसिर कटु तुंबरि समतूला।
जे नमत हरि गुर पद मूला।।’
भगवान शंकर ने कहा, कि जो लोगों का सीस श्रीहरि एवं गुरु के श्रीचरणों में नहीं झुका, उनका सीस ऐसा है, मानों तुमड़ी हो। तुमड़ी एक ऐसा फल होता है, जो दिखने में तो बहुत सुंदर होता है। मन करता है, कि उसे देखते ही मुख में डाल लिआ जाये। किंतु उसमें गलती से भी अगर किसी ने अपने दाँत गढा लिये, तो उसमें कालकूट विष जैसी कड़वाहट, उसके मानों प्राण ही हर लेगी। उसके बाद वह कितना भी शहद चाट ले, उसका मुख कड़वा ही रहता है। ठीक इसी प्रकार से गुरु और श्रीहरि के पद कमलों में जो सीस नहीं झुका, वह दिखने में भले ही कितना ही सुंदर क्यों न हो, वह तुमड़ी के फल के समान होता है। औरंगजेब ने भले ही अपना राज्य दूर-दूर तक फैला लिआ था। उसके सीस पर सुंदर से सुंदर ताज सजा था। किंतु उसके सीस का मूल्य मात्र इतना था, कि उसको तुमड़ी की संज्ञा ही दी जा सकती थी।
संतों का सदैव से ही यह संदेश रहा है, कि जीवन तो है ही क्षणभँगुर। तो क्यों न इसे ऐसे महान कार्य में लगाया जाये, कि तन माटी होने के पश्चात भी, पूरी दुनिया हमारे मृत-स्थान पर अपना मस्तक टेके। यह केवल तभी संभव है, जब हम भक्ति मार्ग का अनुसरण करें।
आगे भगवान शंकर उच्चारण करते हैं-
‘जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी।
जीवत सव समान तेइ प्रानी।।
जो नहिं करइ राम गुन गाना।
जीह सो दादुर जीह समाना।।’
अर्थात जिस हृदय में ईश्वर की भक्ति का वास नहीं हुआ, वह प्राणी में कहने को तो प्राण हैं। किंतु वास्तव में वह मृत की ही श्रेणी में आता है। वह जीवित मुर्दा है। मुर्दे को जैसे भीतर से कीड़े खाने लग जाते हैं, दुर्गंध आने लगती है, ठीक उसी प्रकार से जिस हृदय में, श्रीहरि की भक्ति का उदय नहीं हुआ, वह जीवित शव के समान है। उसमें सदैव पाँच विकारों की दुर्गंध आती रहती है। यही वह दुर्गंध है, जो रावण में आती थी। सोच कर देखिए, कि इस बू ने रावण को कहीं का नहीं छोड़ा। उसका स्वर्ण का बना लंका रुपी घर, उसकी शौभा का साधन नहीं बन पाया। काम की दुर्गंध कितनी भयंकर मन को पीड़ित करने वाली है, आप रावण के जीवन चरित्र को उठाकर देख सकते हैं।
फिर भगवान शंकर ने संसार में ऐसे लोगों की भी चर्चा की है, जो दिन भर अपनी जीहवा से किसी की निंदा चुगली अथवा व्यर्थ की बातों को किया करते हैं। संसारिक व्यंग्य है, कि उन्हें बिना चुगली के रोटी भी नहीं पचती। भोलेनाथ कहते हैं, कि हे पार्वती! ऐसे लोगों को मैं मेंढक की श्रेणी में रखता हुँ। मेंढक की वृति होती है, कि वह दिन भर टर्र टर्र करता रहता है। उसकी टर्र टर्र समाज का कल्याण करने से तो रही। किंतु हाँ! वह हमारे कानों में ध्वनि प्रदूषण करने में अवश्य ही काम आती है। इसलिए किसी भी कीमत पर हमें संसार की व्यर्थ की बातों में न लगकर, प्रभु की गाथा ही गानी चाहिए। उसकी महिमा गाने में ही हमारा कल्याण है।
क्रमशः
- सुखी भारती