By नीरज कुमार दुबे | Oct 28, 2025
चुनाव आयोग ने 12 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR) के दूसरे चरण की शुरुआत की है। देखा जाये तो यह कोई मामूली कवायद नहीं है क्योंकि लगभग 51 करोड़ मतदाताओं का सत्यापन होगा। घर-घर जाकर बीएलओ तीन दौर में जांच करेंगे, ऑनलाइन फार्म भी भरे जा सकेंगे। देखने में यह लोकतंत्र की सफाई का अभियान है, पर इसके भीतर कई परतें हैं और कुछ असहज सवाल भी हैं।
एसआईआर के तहत मृतक, स्थानांतरित या काल्पनिक नामों को हटाया जाएगा और नये योग्य मतदाताओं को जोड़ा जाएगा। बिहार में हुई पहली एसआईआर के बाद 68 लाख नाम हटाए गए— सोचिए, इतने वर्षों से ये नाम किसको और किस उद्देश्य से वोट डाल रहे थे? इस दृष्टि से देखें तो एसआईआर की घोषणा स्वागत योग्य है। लेकिन सवाल तब उठता है जब चुनाव आयोग 2002–2004 की पुरानी मतदाता सूची को वैधता का स्थायी प्रमाण मान लेने की घोषणा करता है।
चुनाव आयोग का कहना है कि जिनका नाम या जिनके अभिभावकों का नाम 2002 से 2004 की एसआईआर में था, उन्हें दस्तावेज़ देने की जरूरत नहीं होगी। यह छूट नीतिगत भूल है। इसका निहितार्थ यह है कि “2002 से पहले भारत में कोई घुसपैठ नहीं हुई और 2002–2004 की सूची में दर्ज हर व्यक्ति भारत का वैध नागरिक है।” बीस साल पुरानी मतदाता सूची के सहारे घुसपैठियों की नागरिकता को एक तरह से स्थायी करना मानो लोकतंत्र की चौकी पर “पहरेदारों की छुट्टी” की घोषणा कर देना है। 2002–2004 की सूची को “सत्य” घोषित करना एक सुविधाजनक शॉर्टकट है, पर लोकतंत्र कभी शॉर्टकट से नहीं चलता। चुनाव आयोग को चाहिए कि वह इस नीति की पुनर्समीक्षा करे, ताकि जनता को यह भरोसा रहे कि मतदाता सूची में कोई घुसपैठिया नहीं है।