By अभिनय आकाश | Aug 26, 2020
भारत के पड़ोस में लगातार अपना नेटवर्क मजबूत करने में लगे चीन को एक करारा झटका लग सकता है। श्रीलंका में नई सरकार ने काम संभाल लिया है और देश के विदेश सचिव, जयनाथ कोलोमबाज ने ये साफ कर दिया कि श्रीलंका क्षेत्रीय संबंधों को लेकर “इंडिया फर्स्ट” की नीति पर काम करेगा यानी श्रीलंका भारत की सुरक्षा के खिलाफ कोई काम नहीं करेगा। हालांकि आज ही की तरह साल 2009 से 2014 तक श्रीलंका में महिंदा राजपक्षे की ही सरकार थी। फ़र्क सिर्फ इतना है कि तब महिंदा राजपक्षे देश के राष्ट्रपति थे। शुरुआत दिनों में तो भारत के साथ उनके संबंध मधुर थे, लेकिन सरकार का कार्यकाल समाप्त होते-होते संबंध तल्ख़ हो गए थे।
चीन की चाल का शिकार श्रीलंका
महिंदा राजपक्षे ने 2005 से 2015 के बीच बतौर राष्ट्रपति दो कार्यकाल पूरे किए। उनकी सत्ता चीन के लिए बहुत शुभ रही। राजपक्षे चीन से कर्ज़ मांगते जाते और चीन कर्ज़ देता जाता। श्रीलंका के सिर पर चीन का करीब 83 हज़ार करोड़ रुपया का कर्ज़ हो गया और इसी कर्ज़ के कारण दिसंबर 2017 में श्रीलंका को अपना हंबनटोटा बंदरगाह चीन के सुपुर्द करना पड़ा। चीन का जाना परखा फाॅर्मूला इंवेस्टमेंट यानी निवेश, श्रीलंका हो या मालदीव, पाकिस्तान हो या नेपाल। चीन इन देशों में खूब निवेश करता है उन्हें खूब कर्जा देता है। तरक्की के सुनहरे सपने बेचता है। फिर इसी कर्ज की राह वो वहां अपने सामरिक हित साधता है।
भारत श्रीलंका संबंध
भारत को श्रीलंका का यह कदम नागवार गुज़रा था। श्रीलंका के विदेश सचिव ने कहा है इस बार ऐसा नहीं होगा, और भारत की सामरिक संवेदनाओं का ख़्याल रखा जाएगा, क्योंकि ऐसा न करना स्वयं श्रीलंका के लिए भी नुकसानदेह होगा। राजपक्षे परिवार के कई सदस्य सरकार का हिस्सा हैं और राष्ट्रपति गोटाबाया और प्रधानमंत्री महिंदा ने फैसला किया है कि पिछली बार वाली गलती इस बार नहीं दोहरायी जायेगी। अपनी भौगोलिक स्थिति की वजह से हिन्द महासागर में श्रीलंका महत्वपूर्ण है, और न चाहते हुए भी वह एक तरफ भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमरीका और दूसरी तरफ चीन के बीच चल रहे पावर गेम का गवाह रहेगा।