By योगेंद्र योगी | Dec 31, 2025
वोट बैंक का लालच सत्तारुढ़ दलों को इस कदर हाथ बांधे रखने के लिए मजबूर रखता है कि बेशक प्राकृतिक आपदाओं के विनाश से लोगों की जान ही क्यों न चली जाए। इसकी सरकारों को चिंता—परवाह नहीं है। लगता है उनका एकमात्र उद्देश्य बन गया है हर हाल में वोट बैंक को बनाए रखना। ऐसी प्रवृत्ति की पुनरावृत्ति तब सामने आई सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड सरकार के प्रति जबरदस्त नाराजगी जताई। सुप्रीम कोर्ट ने वन भूमि पर अतिक्रमण के मामले में उत्तराखंड सरकार की कड़ी आलोचना की। कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार और उसके अधिकारी मूकदर्शक की तरह बैठे रहे और अदालत ने खुद मामले में संज्ञान लेते हुए केस दर्ज किया। इस मामले में सीजेआई सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की अवकाशकालीन पीठ ने उत्तराखंड के मुख्य सचिव को एक जांच समिति गठित करने और रिपोर्ट प्रस्तुत प्रस्तुत करने का निर्देश दिया।
प्राकृतिक आपदाओं की दृष्टि से उत्तराखंड देश का सर्वाधिक संवदेनशील राज्य है। हर साल होने वाली प्राकृतिक आपदा भारी तबाही मचाती है। जिससे जान—माल का भारी नुकसान होता है। इसका प्रमुख कारण है प्रकृति से छेड़छाड़। इसमें विकास के नाम पर वनों का विनाश और वन भूमि पर अतिक्रमण प्रमुख है। पिछले आठ वर्षों में उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाओं के कारण 3,554 लोगों की जान गई, 5,948 लोग घायल हुए और अरबों रुपये की संपत्ति का नुकसान हुआ। मानसून का मौसम लगातार घातक साबित होता है, जिससे राज्य की पहले से ही नाजुक भूभाग पर हर साल एक नया घाव हो जाता है। बादल फटने से धारली में आई भीषण बाढ़ में 5,948 लोग घायल हुए और अरबों रुपये की संपत्ति का नुकसान हुआ।
उत्तराखंड एक खतरनाक चक्र में फंस गया है। व्यापक और सक्रिय आपदा प्रबंधन के अभाव में, "देवभूमि" (देवताओं की भूमि) प्रकृति के प्रकोप से लगातार क्षतिग्रस्त होती रहेगी। विशेषज्ञों का मानना है कि दशकों से हो रही देवदार के पेड़ों की कटाई ही उत्तरकाशी में बादल फटने की बढ़ती घटनाओं का मुख्य कारण है। देवदार के पेड़ों की जड़ें घनी होती हैं जो मिट्टी को बांधकर रखती हैं, कटाव को रोकती हैं और भारी बारिश या भूस्खलन के दौरान मलबे और पानी के बहाव को रोककर संवेदनशील हिमालयी क्षेत्रों की रक्षा करती हैं। वैज्ञानिकों का स्पष्ट मत है कि यदि धराली में ऐतिहासिक देवदार के वन क्षेत्र बरकरार रहते, तो इस आपदा का प्रभाव काफी हद तक कम हो जाता, या शायद नगण्य ही हो जाता।
एक समय उत्तराखंड के ऊंचे और हिमालयी क्षेत्र – विशेष रूप से समुद्र तल से 2,000 मीटर से ऊपर के इलाके – देवदार के घने जंगलों से आच्छादित थे। प्रति वर्ग किलोमीटर में औसतन 400 से 500 देवदार के पेड़ पाए जाते थे। वन, जो प्राकृतिक ढलानों को स्थिर रखते हैं, उनकी कमी से जल निकासी बाधित होती है और पारिस्थितिकी तंत्र कमजोर होता है, जिससे आपदाओं का प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है। पेड़-पौधे मिट्टी को जकड़कर रखते हैं। जब पेड़ कटते हैं, तो मिट्टी ढीली पड़ जाती है और भारी बारिश के दौरान आसानी से बह जाती है, जिससे भूस्खलन और मलबा प्रवाह होता है, जैसा कि 2013 के केदारनाथ आपदा में देखा गया था।
5 अगस्त, 2025 को उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के धराली में आई विनाशकारी आपदा ने एक बार फिर प्राकृतिक आपदाओं के प्रति हिमालयी राज्य की दीर्घकालिक संवेदनशीलता को उजागर कर दिया था। इस त्रासदी में 66 लोग लापता हुए। पिछले एक दशक में राज्य में लगभग 18,464 प्राकृतिक आपदाएँ दर्ज की गई, जिनसे भारी नुकसान हुआ है। उत्तराखंड का इतिहास कई बड़ी आपदाओं से भरा पड़ा है। वर्ष 1991 के उत्तरकाशी भूकंप में 768 लोगों की जान गई, उसके बाद 1998 के मालपा भूस्खलन (225 मौतें) और 1999 के चमोली भूकंप (100 मौतें) का नंबर आता है। साल 2013 की केदारनाथ बाढ़ सबसे विनाशकारी रही, जिसमें 5,700 से अधिक लोगों की जान गई, जबकि 2021 की रेनी आपदा में मरने वालों की संख्या में 206 रही। पिछले एक दशक में दर्ज की गई 18,464 घटनाओं में से चौंका देने वाली 12,758 घटनाएं भारी बारिश और उसके बाद आई बाढ़ के कारण हुईं।
भारत में 2024-2025 के आंकड़ों के अनुसार, 13,000 वर्ग किलोमीटर से ज़्यादा वन भूमि पर अतिक्रमण है, जो कि दिल्ली, सिक्किम और गोवा के कुल क्षेत्रफल से भी ज़्यादा है। मध्य प्रदेश और असम सबसे ज़्यादा प्रभावित राज्य हैं, जहाँ लाखों हेक्टेयर भूमि पर कब्जा है, जबकि पूर्वोत्तर राज्यों में भी बड़ी मात्रा में वन भूमि अतिक्रमित है। जिससे वन, वन्यजीव और पर्यावरण को गंभीर खतरा है। केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु मंत्रालय द्वारा देश भर में वन भूमि पर अतिक्रमण के संबंध में जारी आंकड़ों के मुताबिक वन भूमि पर सर्वाधिक अतिक्रमण वाले राज्यों में मध्य प्रदेश और असम सबसे आगे हैं, जहाँ सबसे ज़्यादा वन क्षेत्र पर अवैध कब्जे हैं। इसके अलावा कर्नाटक, महाराष्ट्र और ओडिशा जैसे राज्य भी महत्वपूर्ण अतिक्रमण वाले राज्यों की सूची में शामिल हैं।
केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु मंत्रालय ने वन भूमि पर अतिक्रमण के संबंध राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) को सौंपी एक रिपोर्ट में बताया था कि मार्च 2024 तक 25 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कुल 13,05,668.1 हेक्टेयर (या 13,056 वर्ग किमी) वन क्षेत्र अतिक्रमण के अंतर्गत था। इनमें राज्यों और केंद्रशासित प्रदेश अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, असम, अरुणाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, चंडीगढ़, छत्तीसगढ़, दादर और नगर और दमन और दीव, केरल, लक्षद्वीप, महाराष्ट्र, ओडिशा, पुडुचेरी, पंजाब, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, झारखंड, सिक्किम मध्य प्रदेश, मिजोरम और मणिपुर शामिल हैं।
इसके अलावा बिहार, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, नागालैंड, दिल्ली, जम्मू और कश्मीर और लद्दाख ऐसे राज्य और केंद्र शासित प्रदेश हैं जिन्होंने वन अतिक्रमण से संबंधित आंकड़े और विवरण प्रस्तुत नहीं किए। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश की सरकारें पर्यावरण और वनों के विनाश को रोकने के लिए कितनी चिंतित हैं। यह मुद्दा राजनीतिक दलों के एजेंडे में शामिल नहीं है। कारण साफ है इससे वोट नहीं मिलते, उल्टे वन भूमि पर अतिक्रमियों को हटाने से वोट बैंक का नुकसान होता है। यही वजह है कि सभी दल ऐसे मुद्दों पर चुप्पी साधे रहते हैं। इसके बावजूद कि पर्यावरण बिगड़ने से होने वाली तबाही की कीमत देश को हर साल भारी जान—माल से चुकानी पड़ती है।
- योगेन्द्र योगी