ड्रैगन और हाथी की मुलाक़ात से वैश्विक राजनीति में बड़ी हलचल हो गयी है

By नीरज कुमार दुबे | Sep 01, 2025

तियानजिन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाक़ात को सिर्फ़ औपचारिक कूटनीतिक शिष्टाचार मान लेना भूल होगी। यह दरअसल उन जटिल और उलझे रिश्तों को नया आकार देने का प्रयास था, जिन्हें पूर्वी लद्दाख में चीनी घुसपैठ ने गहरी चोट पहुँचाई थी। सीमा पर खून बहने के बाद अब बीजिंग नरमी दिखा रहा है, तो यह उसकी मज़बूरी है— भारत की नहीं। भारत ने यह बार-बार साफ किया है कि रिश्ते तभी आगे बढ़ेंगे जब सीमा पर शांति होगी। मोदी ने तियानजिन में यही संदेश दोहराया कि “सीमा स्थिर रहेगी तभी भरोसा टिकेगा।” देखा जाये तो चीन की पंचशील वाली बात भारत के लिए खोखले आश्वासन से ज्यादा मायने नहीं रखती क्योंकि पिछले वर्षों का अनुभव यही कहता है कि बीजिंग के शब्द और ज़मीन पर उसका व्यवहार मेल नहीं खाते। असली सवाल अब यही है कि क्या बीजिंग अपने वादों को ज़मीन पर उतारेगा, या फिर एक बार फिर “हाथ मिलाओ और पीछे से वार करो” वाली नीति अपनाएगा? फिलहाल तस्वीरें चमकीली हैं, लेकिन भारत ने बहुत स्पष्ट कर दिया है कि रिश्तों की असली परीक्षा सीमा पर होगी, कूटनीतिक भोज या लाल कालीन पर नहीं।


देखा जाये तो भारत और चीन के द्विपक्षीय संबंध शुरू से ही जटिल रहे हैं। यह 1949 से कभी गहरे मतभेदों तो कभी सीमित सामंजस्य के उतार-चढ़ाव से गुज़रे हैं। पूर्वी लद्दाख में चीनी घुसपैठ से शुरू हुई कठिनाइयों के बाद अब विश्व की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ भारत और चीन, अपने संबंधों को पटरी पर लाने के इच्छुक दिख रही हैं। कज़ान (रूस) में पिछले वर्ष आयोजित ब्रिक्स शिखर सम्मेलन से यह प्रक्रिया शुरू हुई थी जिसे तिआनजिन में आगे बढ़ाया गया है।

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देखा जाये तो भारत हमेशा से अपनी रणनीतिक स्वायत्तता को महत्व देता रहा है। डोनाल्ड ट्रंप की ‘मेरा कहना मानो वरना टैरिफ झेलो’ वाली नीतियों ने इस सिद्धांत की सबसे बड़ी परीक्षा ली। मोदी ने न ट्रंप की ‘नोबेल पुरस्कार’ वाली हठधर्मिता को महत्व दिया, न ही उनकी टीम की उकसावे भरी बातों पर प्रतिक्रिया दी। भारत ने रूसी तेल खरीदने का निर्णय भी जारी रखा और पीछे नहीं हटा। तिआनजिन में शी जिनपिंग के साथ बैठक का सबसे बड़ा संदेश यही था कि भारत अपने निर्णय स्वतंत्र रूप से लेगा और किसी तीसरे देश की इच्छा से प्रभावित नहीं होगा।


हम आपको यह भी बता दें कि चीन की ‘वुल्फ वॉरियर डिप्लोमेसी’ अब नरम पड़ती दिखाई दे रही है। इसके पीछे कई कारण हैं। जैसे- चीन की धीमी होती अर्थव्यवस्था, रियल एस्टेट जैसे क्षेत्रों की समस्याएँ और बढ़ती युवा बेरोज़गारी, जिसने ‘नकली काम’ करने वाली कंपनियों तक को जन्म दिया है। हालाँकि, चीनी राजनीति में फिर से अतिराष्ट्रवाद लौट सकता है। भारत इस संभावना को समझता है और इसी कारण एलएसी पर अपनी रक्षा क्षमता मज़बूत करते हुए चीन के साथ रिश्तों को नए सिरे से संतुलित कर रहा है।


देखा जाये तो ट्रंप के टैरिफ ने वैश्विक व्यापार के नियम बदल दिए हैं। ऐसे में भारत को नए बाज़ारों की तलाश है। नई दिल्ली चाहती है कि बीजिंग भारतीय निर्यात को निष्पक्ष पहुँच दे। यह सच है कि इससे अमेरिका के बाज़ार में हुए नुकसान की पूरी भरपाई नहीं होगी, लेकिन व्यापार असंतुलन को चीनी निवेश से संतुलित किया जा सकता है। यदि चीन भारतीय उद्योग के लिए रेयर अर्थ मैग्नेट जैसे महत्वपूर्ण कच्चे माल की आपूर्ति फिर शुरू करता है, तो भारत दूरसंचार, रक्षा, सेमीकंडक्टर और अन्य रणनीतिक क्षेत्रों जैसी निगेटिव लिस्ट को छोड़कर बाकी क्षेत्रों में धीरे-धीरे चीनी एफडीआई की अनुमति दे सकता है। दूसरी ओर, ट्रंप-युग की उथल-पुथल में चीन को भी आर्थिक अवसरों की ज़रूरत है। ऐसे में वह भारत के करीब आना चाह रहा है लेकिन भारत के लिए आगे बढ़ने के दौरान सतर्कता बरतना भी जरूरी है।


वैसे कुल मिलाकर देखें तो तियानजिन में शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भेंट ने अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के गलियारों में गहरी हलचल पैदा कर दी है। यह सिर्फ दो पड़ोसी देशों के बीच एक औपचारिक मुलाक़ात नहीं थी, बल्कि वैश्विक राजनीति के बदलते समीकरणों के बीच एक महत्वपूर्ण संकेत भी थी। मुलाकात के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया कि भारत की विदेश नीति किसी तीसरे देश की नज़र से नहीं देखी जानी चाहिए। मोदी ने स्पष्ट कहा कि सीमा पर शांति और स्थिरता रिश्तों के लिए बीमा पॉलिसी जैसी है। दोनों पक्षों ने पिछले साल की सफल डिसएंगेजमेंट प्रक्रिया पर संतोष जताया और सीमा विवाद का "न्यायपूर्ण, तर्कसंगत और स्वीकार्य समाधान" निकालने की प्रतिबद्धता दोहराई। हालाँकि, चीनी बयान ने पंचशील सिद्धांतों का हवाला देते हुए यह कहा कि सीमा विवाद पूरे रिश्तों को परिभाषित नहीं करना चाहिए। यह भारतीय दृष्टिकोण से थोड़ा भिन्न था।


हम आपको बता दें कि कुछ विश्लेषकों का मानना है कि भारत-चीन निकटता से भारत-अमेरिका संबंध प्रभावित हो सकते हैं। परंतु यह दृष्टिकोण सतही है क्योंकि भारत कोई लेन-देन वाली शक्ति नहीं, बल्कि एक सभ्यतागत शक्ति है जो दीर्घकालिक दृष्टिकोण से संबंध बनाती है। लोकतांत्रिक मूल्य, बहुलतावादी समाज और मुक्त हिंद-प्रशांत के साझा हित भारत-अमेरिका साझेदारी की नींव हैं। यह साझेदारी अस्थायी मतभेदों को झेल सकती है।

 

 

तियानजिन में मोदी-शी मुलाक़ात भारत की रणनीतिक स्वायत्तता, आर्थिक हितों की सुरक्षा और वैश्विक संतुलन बनाने के प्रयासों का हिस्सा भी है। भारत अब यह स्पष्ट संकेत दे रहा है कि वह अमेरिका और चीन दोनों के साथ संबंध रख सकता है— लेकिन अपनी शर्तों पर, अपने हितों के आधार पर। भारत-चीन संबंधों की दिशा आगे इस बात पर निर्भर करेगी कि बीजिंग अपने आश्वासनों को ठोस कार्यवाही में बदल पाता है या नहीं। तब तक यह यात्रा अभी शुरुआती चरण में ही मानी जाएगी। वैसे यह मुलाकात बताती है कि 21वीं सदी की भू-राजनीति और भू-अर्थशास्त्र में भारत और चीन की भूमिका निर्णायक होगी।


हम आपको यह भी बता दें कि राजीव गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक, यानि तबसे लेकर अब तक हर भारतीय प्रधानमंत्री ने चीन के साथ स्थिर संबंध बनाने की कोशिश की है। वर्तमान सरकार भी इसी दिशा में आगे बढ़ रही थी लेकिन 2020 में पूर्वी लद्दाख, विशेषकर गलवान घाटी में चीनी सैन्य कार्रवाई ने इस प्रक्रिया को गहरी चोट पहुँचाई। भारत ने तब यह स्पष्ट किया था कि जब तक सीमा विवाद का समाधान संतोषजनक ढंग से नहीं होता, तब तक सामान्य संबंध निलंबित रहेंगे। अक्टूबर 2024 में पूर्वी लद्दाख में सैन्य गतिरोध के समाधान की घोषणा के बाद दोनों देशों ने वार्ता और आदान-प्रदान को पुनः आरंभ करने का निर्णय लिया। वीज़ा नियमों में ढील, सांस्कृतिक कार्यक्रम, सीमापार नदियों पर आँकड़ों का साझा करना और सीधी हवाई सेवाओं की बहाली जैसे कदम इसी क्रम में उठाए गए हैं। हाल ही में चीनी विदेश मंत्री वांग यी की भारत यात्रा भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा रही।


मोदी को होंगछी कार देने का कारण!


हम आपको यह भी बता दें कि शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शिखर सम्मेलन के अवसर पर तियानजिन पहुँचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चीनी सरकार ने विशेष सम्मान देते हुए "मेड इन चाइना" होंगछी (Hongqi) कार उपलब्ध कराई। यह वही प्रतिष्ठित "रेड फ़्लैग" मॉडल है, जिसे राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपनी आधिकारिक यात्राओं में प्रयोग करते हैं। हम आपको याद दिला दें कि 2019 में महाबलीपुरम में शी की भारत यात्रा के दौरान भी इसी कार का उपयोग किया गया था। होंगछी की शुरुआत 1958 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष नेताओं के लिए हुई थी। आज यह कार "चीन की आत्मनिर्भरता" और राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक मानी जाती है। इसी तरह, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को उनके विशेष "Aurus" वाहन में तियानजिन में भ्रमण कराया गया। यह रूसी कंपनी ऑरस मोटर्स द्वारा निर्मित रेट्रो-शैली की कार है, जो रूस के राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है।

 

 

प्रतीकों के पीछे संदेश को देखें तो मोदी को होंगछी उपलब्ध कराना केवल एक वाहन व्यवस्था नहीं है, बल्कि चीन की ओर से यह संकेत है कि भारत के साथ रिश्तों को विशेष महत्व दिया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में अक्सर ऐसी छोटी-छोटी प्रतीकात्मक बातें गहरे संदेश देती हैं। इसी पृष्ठभूमि में राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने मोदी से कहा कि "यह समय है जब ड्रैगन और हाथी साथ आएं और मित्र बनें।" इसके जवाब में प्रधानमंत्री मोदी ने भी परस्पर विश्वास, सम्मान और संवेदनशीलता के आधार पर संबंध आगे बढ़ाने की प्रतिबद्धता जताई। मोदी ने यह भी रेखांकित किया कि भारत-चीन सहयोग केवल दोनों देशों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सीधे तौर पर 2.8 अरब लोगों के जीवन से जुड़ा है।


जिनपिंग के 'दाहिने हाथ' से मिले मोदी


इसके अलावा, तिआनजिन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मुलाक़ात के अतिरिक्त एक अलग बैठक चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की पोलितब्यूरो स्थायी समिति के सदस्य और शी के बेहद करीबी सहयोगी, साई ची से भी की। हम आपको बता दें कि साई ची अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शी जिनपिंग के दाहिने हाथ के रूप में देखे जाते हैं। अमेरिकी हलकों में यह चर्चा तक रही थी कि ट्रंप के शपथग्रहण समारोह में साई को राष्ट्रपति की ओर से प्रतिनिधि के रूप में भेजा जाए।

 

 

भारतीय अधिकारियों के अनुसार, प्रधानमंत्री मोदी ने इस बैठक में साई को भारत-चीन संबंधों को लेकर अपना दीर्घकालिक दृष्टिकोण बताया और दोनों शीर्ष नेताओं की सहमति को साकार करने में उनके सहयोग की अपेक्षा जताई। इसके प्रत्युत्तर में साई ची ने दोहराया कि चीन भारत के साथ द्विपक्षीय आदान-प्रदान को विस्तार देना चाहता है और आपसी सहमति के आधार पर रिश्तों को और बेहतर बनाने के पक्ष में है। विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने जानकारी दी कि मूलतः चीन की ओर से यह प्रस्ताव था कि साई ची प्रधानमंत्री मोदी के सम्मान में राष्ट्रपति शी की ओर से एक भोज का आयोजन करें। यह कदम चीन द्वारा मोदी की यात्रा को विशेष महत्व दिए जाने का संकेत था, क्योंकि भारत के प्रधानमंत्री का चीन दौरा लगभग सात वर्षों के अंतराल के बाद हो रहा था। किंतु कार्यक्रमों की व्यस्तता के कारण भोज संभव नहीं हो सका और इसकी जगह एक संक्षिप्त बैठक आयोजित की गई।


देखा जाये तो यह बैठक केवल औपचारिकता नहीं थी, बल्कि चीन की आंतरिक शक्ति संरचना और कूटनीतिक संकेतों की झलक भी देती है। साई ची जैसे नेता से मोदी की मुलाक़ात इस बात का प्रतीक है कि बीजिंग भारत के साथ संबंध सुधारने और उन्हें नई दिशा देने को लेकर गंभीर है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि शी जिनपिंग ने मोदी की यात्रा को विशेष प्राथमिकता दी और अपने सबसे भरोसेमंद सहयोगी को इस भूमिका में आगे किया। यह कूटनीतिक संकेत भारत-चीन रिश्तों में संभावित नरमी और नई शुरुआत की ओर इशारा करते हैं। दोनों देशों के बीच पिछले वर्षों में सीमा विवाद और अविश्वास की खाई गहरी हुई थी, लेकिन इस प्रकार की बैठकों से यह संदेश जाता है कि दोनों नेतृत्व इस खाई को पाटने का प्रयास कर रहे हैं।


इसके अलावा, तियानजिन मुलाक़ात का एक और पहलू भी है। यह बैठक उस समय हुई जब "ट्रम्प प्रशासन" की टैरिफ़ नीतियों ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार को अस्थिर कर दिया है। ऐसे समय में भारत और चीन का साथ आना वैश्विक समुदाय को यह संकेत देता है कि एशियाई ताकतें अपने हितों की रक्षा के लिए नए समीकरण बनाने को तैयार हैं।


बहरहाल, तिआनजिन शिखर सम्मेलन की तस्वीरें और घटनाएँ केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि भूराजनीतिक संदेश से भरी हुई हैं। भारत, चीन और रूस विश्व राजनीति के तीन बड़े खिलाड़ी हैं। मोदी द्वारा पुतिन और शी को साथ खींचकर खड़ा करना केवल मित्रता का प्रदर्शन नहीं, बल्कि यह संकेत है कि वैश्विक शक्ति-संतुलन में एशिया की भूमिका और गहरी होगी। अमेरिका और पश्चिम के साथ चुनौतियों के बीच, मोदी का पुतिन और शी, दोनों के साथ संतुलन साधना दर्शाता है कि भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखना चाहता है। यह “न किसी के खिलाफ़, न किसी पर निर्भर” की नीति का स्पष्ट संकेत है। SCO के मंच पर यह सामंजस्य एशिया-केंद्रित बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था का खाका है। यदि भारत, चीन और रूस सहयोग को वास्तविक रूप दें, तो यह न केवल क्षेत्रीय बल्कि वैश्विक राजनीति का समीकरण बदल सकता है।


-नीरज कुमार दुबे

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