बस कुछ खिला पिला कर जनता को वोट डालने के लिए जीवित रखती हैं सरकारें

By संतोष उत्सुक | Jun 23, 2018

पिछले दिनों एक रिपोर्ट आई थी जो यह बताकर गई कि हम कुछ मामलों में अपने पड़ोसियों से भी पीछे हैं। यह मामले हैं रोज़गार, रहन सहन सुधार, नई पीढ़ी का भविष्य, पर्यावरण सुधार, स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रशिक्षण व नागरिक सुविधाएं। यह देश हैं नेपाल, बंगला देश, श्रीलंका और हाँ पाकिस्तान भी। हम इस रिपोर्ट को झूठा कहकर दूसरी तरफ खिसका सकते हैं। रिपोर्ट कार्ड तो बच्चों का ही असली होता है जो अभिभावकों को परेशान कर देता है। यह मामले निर्जीव हैं इसलिए किसी को भी परेशान करने की हिम्मत कैसे कर सकते हैं। नहीं कर सकते। कोई भी शासक वही रिपोर्ट देखना व बांचना पसंद करता है जिसमें उसकी वाहवाही हो या सीधे सीधे राजनीतिक फायदा उगाने लायक हो।

 

समानता, एकता व सबका जैसे शब्दों के अँधेरे झुरमुट में, पिछले दिनों हमारी शानदार असमानता अपना परचम लहरा चुकी है। यह महज़ एक इत्तेफाक था कि इस रिपोर्ट का कसैला स्वाद चखने के लिए दावोस में वर्ल्ड इकोनोमिक फॉर्म का मंच रहा। यह हमारी मर्ज़ी है कि कॉफ़ी को स्वादिष्ट कहें या ज्यादा स्ट्रोंग। अंतर्राष्ट्रीय राइटस समूह, आकस्फैम की इस रिपोर्ट ने वहां आने वालों का ध्यान आकर्षित किया होगा या नहीं, क्यूंकि कितने महत्वपूर्ण मंचों पर अनेक संजीदा रिपोर्ट्स, विशेष व्यक्तियों द्वारा अनदेखी रह जाया करती हैं। आज तक का शानदार आंकड़ा यह है कि ‘न्यु इंडिया’ की तिहत्तर प्रतिशत दौलत एक प्रतिशत समृद्ध लोगों के पास है। विकास की राह पर चलते हुए पिछले साल सत्रह नए अरबपति बने। राजनीतिक नज़र से देखकर यह मानने में कोई हर्ज़ नहीं कि यह रिपोर्ट गलत है लेकिन अगर यह रिपोर्ट सही है तो तल्ख़ सच्चाई चीख़ चीख़ कर कह रही है कि सतासठ करोड़ लोगों की पुरानी, फटी झोली में देश की मात्र एक प्रतिशत दौलत है।

 

कई अन्य रिपोर्ट्स की तरह खतरनाक लगती यह रिपोर्ट फिर से समझाने का प्रयास करती है कि महंगे मकान, ज़ेवर, गाड़ियां आधारित जीडीपी हमारी झूठी शान बघारती है। इस शान की छाया में आज भी बार बार महान, समृद्ध पारम्परिक भारतीय संस्कृति का गुणगान किया जाता है, लेकिन सिर्फ गुणगान। हज़ारों साल पहले हुए ऋषि, मुनियों, महापुरुषों के सद्वचनों को वर्तमान परिस्थितियों में भी प्रासंगिक बताकर उनके बताए मार्ग पर चलने को प्रेरित किया जाता है। नियमित रूप से गांधीजी के अनमोल शब्दों का उल्लेख होता है, मगर चरम प्रतिस्पर्धा, राजनैतिक ईर्ष्या, धार्मिक कट्टरता, जातिगत व साम्प्रदायिक उन्माद के वातावरण में नैतिकता आधारित पुराने आदर्शों की बात कोरी उपदेशात्मक ही लगती है। पृथ्वी को मां कहते रहते हैं मगर यह भुला दिया है कि हमने इस मां का आँचल कितने स्वार्थपूर्ण तरीके से तार तार किया है।

 

बढ़ती तकनीक और डिजिटल क्रांति नए समाधान ढूँढने में लाभदायक हैं मगर यह भी तो कठोर सत्य है कि फैलती तकनीक व मशीनीकरण की वजह से ही रोज़गार घटा है। सच तो यह है कि सरकारों की तमाम कोशिशें आम गरीब तबके को केवल भरमाने के लिए होती हैं। बस उन्हें कुछ खिला पिला कर जीवित रखना है ताकि हर चुनाव में वोट डालने लायक रहें। अराजकता कभी खत्म न होने वाली नमी की तरह जिंदगी में फैली रहती है। दैनिक आधार पर मज़दूरी, घरेलू काम, सब्जी के ठेले या अन्य कितने ही छोटे मोटे काम करने वालों के लिए दो जून की रोटी व बच्चों की शिक्षा अर्जित करना कड़ा संघर्ष है। हमारे देश की सरकारों ने राजनैतिक ताक़त के बल पर ऐसी वैश्विक अर्थ व्यवस्था का निर्माण जारी रखा है जिसमें अमीर और अधिक धन इक्कट्ठा करने में सक्षम बने रहे। लोकतंत्र का असली अर्थ तो गुम कर दिया है।

 

क्या अमीर और गरीब के बीच बढ़ती गहरी खाई दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की व्यवस्था के लिए शर्म की बात नहीं? क्या हमारे देश में प्रसिद्ध लेखक आइन रैंड का कहा लागू हो रहा है या कर दिया गया है। उनके अनुसार दो किस्म का न्याय होना चाहिए एक सामान्य लोगों के लिए दूसरा विशिष्टों के लिए। यहाँ न्याय तो क्या एक से लेकर सब चीज़ें सामान्य व विशिष्टों के लिए अलग अलग हैं। डरावना सच चाहे प्रदूषण रोकने के मामले में पाकिस्तान और चीन से पीछे रह जाने बारे हो या सांस्कृतिक प्रदूषण फैलते जाने के बारे में, हम हर सच को नकारने के आदी हो चले हैं। क्या हमें नई अच्छी रिपोर्ट का इंतज़ार है जो शुद्ध राजनीतिक हो।

 

-संतोष उत्सुक 

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