तीसरा मोर्चा कभी सफल नहीं रहा, इस बार के प्रयास भी बेकार जाएंगे

By बद्रीनाथ वर्मा | Apr 11, 2018

यूपी और बिहार की तीन लोकसभा सीटों पर मिली विपक्षी पार्टियों की जीत से एक बार फिर तीसरे मोर्चे के गठन की सुगबुगाहट तेज हो गई है। ऐसा इसलिए क्योंकि क्या वाकई कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा जोड़कर तीसरे मोर्चे की तैयारी में जुटा विपक्ष 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले मोदी सरकार के सामने कोई बड़ा मोर्चा खड़ा कर पाएगा? इसी के साथ एक सवाल यह भी है कि कांग्रेस की इसमें कोई भूमिका रहेगी भी या नहीं। यह सवाल इसलिए भी कि तीसरे मोर्चे के गठन के लिए तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की कोलकाता में ममता बनर्जी के साथ मुलाकात का संकेत है कि राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष के लिए एकजुट होना कितना मुश्किल होने जा रहा है। 

 

विपक्षी गठबंधन के धरातल पर आने से पहले इसके ढांचे को लेकर मतभेद सबके सामने है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री राव एक गैर भाजपाई और गैर कांग्रेसी दलों का गठजोड़ चाहते हैं, जबकि ममता बनर्जी ने कांग्रेस सहित अन्य दलों से तालमेल के विकल्पों को खुला रखा है। लेकिन अगर तीसरा मोर्चा बनता है तो क्या वह मजबूत और स्थिर विकल्प बन पाएगा? इसी के साथ यह सवाल भी मौजूं है कि इसका नेतृत्व कौन करेगा? नेताओं का व्यक्तिगत अहंकार भी एक समस्या है, इनमें से कोई भी नेता दूसरे नेता के नेतृत्व को स्वीकारने में सहज नहीं है। इन दलों में से प्रायः हरेक दल का नेता खुद को प्रधानमंत्री मटेरियल से कम नहीं मानता है। ऐसे में इन दलों को एक मंच पर लाना और एकजुट रखना कछुआ तौलने के बराबर है। मौजूदा समय में गैर भाजपाई धड़े में ऐसा कौन सा नेता है, जिसे चुनौती नहीं मिलेगी? निःसंदेह कई नेता अपने प्रांतों में प्रभावशाली हैं, मगर इनमें से कोई भी प्रधानमंत्री मोदी की छवि की बराबरी कर सकता है क्या? 

 

यदि शरद पवार से शुरू करें तो भाजपा के विरुद्ध विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करने की मंशा रखने वालों में से एक वह भी हैं, लेकिन उनकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल खड़ा है। उन्हें आमतौर पर चतुर और सिर्फ अपना फायदा देखने वाले शख्स के तौर पर देखा जाता है। पवार की उम्र 78 वर्ष है, जो विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करने में एक चुनौती बनी हुई है। यशवंत सिन्हा ने एक बार कहा था कि एक नेता का दिमाग 75 साल के बाद काम करना बंद कर देता है।

 

इस मामले में राहुल गांधी सुरक्षित हैं, क्योंकि उनकी उम्र 48 वर्ष है, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष को अभी भी परिपक्व नहीं समझा जाता। वहीं ममता बनर्जी 63 वर्ष की हैं। दिल्ली में उनके सहयोगी (केजरीवाल) उनके प्रति पूर्ण समर्थन भी दिखाते हैं। लेकिन अग्निकन्या की छवि बस पश्चिम बंगाल तक सिमटी हुई है। इसी तरह यदि अखिलेश यादव (45) और मायावती (62) की बात करें तो वह भी उत्तर प्रदेश से आगे नहीं बढ़ पाये हैं। नीतीश कुमार (67) को एक बार जरूर संभावित प्रधानमंत्री लायक उम्मीदवार समझा गया, लेकिन उन्होंने महाबली मोदी की छत्रछाया में रहना ही बेहतर समझा। 

 

ऐसे में सोनिया गांधी (72) विपक्षी एकता की धुरी बन सकती हैं। लेकिन उनकी भी कुछ कमियां हैं। उनका स्वास्थ्य इसके आड़े आ रहा है। दूसरा प्रधानमंत्री बनने के सवाल पर उनका विदेशी मूल का मुद्दा इसके आड़े आ जाता है। वह फिलहाल डिनर डिप्लोमेसी में ही व्यस्त हैं और इसी डिप्लोमेसी के जरिए भाजपा विरोधी गठबंधन के जुगाड़ में लगी हुई हैं। बावजूद इसके सच्चाई ये भी है कि विपक्ष के पास सोनिया गांधी के अलावा कोई ऐसा विकल्प नहीं है। जिसकी गैर भाजपाई धड़े में अन्य किसी उम्मीदवार की तुलना में बड़े पैमाने पर स्वीकार्यता हो।

 

इससे इतर तीसरे मोर्चे की बात करने वाले सभी दल केवल अपने-अपने राज्यों तक ही सिमटे हुए हैं। उदाहरण के लिए तेलंगाना में चंद्रशेखर राव के लिए कांग्रेस उपयुक्त नहीं हो सकती, लेकिन ममता बनर्जी के मामले में ऐसा नहीं है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री कांग्रेस से दूरी बनाए रखना चाहते हैं। वहीं ममता बनर्जी इसमें सहज हैं। वह भाजपा की चुनौती से निपटने के लिए कांग्रेस का साथ चाहती हैं। इसी प्रकार मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी जैसी पार्टी के भीतर भी दुविधा है। केरल की वाम सरकार कांग्रेस से नजदीकी बढ़ाने के पक्ष में नहीं है, जबकि पश्चिम बंगाल का वामदल भाजपा के विरुद्ध कांग्रेस के साथ गठबंधन के लिए तैयार है। 

 

गैर भाजपाई पार्टियां जानती हैं कि उनमें से कोई भी केंद्र सरकार को अपने दम पर चुनौती देने में सक्षम नहीं है। महाबली मोदी के खिलाफ सामयिक तौर पर भले ही इनमें से कुछ दल एकजुट हो जायें लेकिन उनकी एकजुटता कायम रहेगी ही यह कोई भी सीना ठोंककर नहीं कह सकता। क्योंकि अतीत में हुए इस तरह के गठबंधनों का हश्र जनता भूली नहीं है। उदाहरण के लिए जनता पार्टी (1977-1980) के दौरान मोरारजी देसाई, चरण सिंह और जगजीवन राम के बीच में द्वंद्व युद्ध था। इसी तरह जनता दल (1989-1991) के दौरान वी.पी. सिंह, देवी लाल और चंद्रशेखर के बीच भी ऐसी ही स्थिति थी। दूसरी तरफ भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी और अब नरेंद्र मोदी के नामों को कहीं से भी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा।  

 

-बद्रीनाथ वर्मा

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