Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-18

By आरएन तिवारी | Jul 12, 2024

मित्रो ! आजकल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, तो आइए ! महात्मा विदुर जी की नीतियों को पढ़कर कुशल नेतृत्व और अपने जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारें और अपना मानव जीवन धन्य करें।


प्रस्तुत प्रसंग में विदुर जी ने हमारे जीवनोपयोगी बिन्दुओं पर बड़ी बारीकी से अपनी राय व्यक्त की है। आइए ! देखते हैं –


विदुर जी महाराज अपनी जीवनोपयोगी नीतियों से महाराज धृतराष्ट्र की मलिन बुद्धि को संस्कारित करना चाहते है, वे कहते हैं --- हे महाराज ! हमें अपनी इंद्रियों को वश में रखने की कोशिश करनी चाहिए। इंद्रियों के वश में होकर मनुष्य एक बढ़कर एक अनुचित कार्य करने लगता है। 

इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-17

विदुरजी की सारगर्भित बातें सुनकर महाराज धृतराष्ट्र मन ही मन अति प्रसन्न हुए और उन्होने इस संबंध में और जानने की इच्छा प्रकट की। 


अगार दाही गरदः कुण्डाशी सोमविक्रयी ।

पर्व कारश्च सूची च मित्र ध्रुक्पारदारिकः ॥ 

भ्रूणहा गुरु तल्पी च यश्च स्यात्पानपो द्विजः ।

अतितीक्ष्णश्च काकश्च नास्तिको वेद निन्दकः ॥ 

स्रुव प्रग्रहणो व्रात्यः कीनाशश्चार्थवानपि ।

रक्षेत्युक्तश्च यो हिंस्यात्सर्वे ब्रह्मण्हणैः समाः ॥ 


घर में आग लगाने वाला, विष देने वाला, जारज संतान की कमाई खाने वाला सोमरस बेचने वाला, इत्र बनाने वाला चुगली करने वाला, मित्र द्रोही, परस्त्री गामी, भ्रूण हत्या करने वाला, गुरु स्त्री गामी, ब्राह्मण होकर शराब पीने वाला, कौए की तरह कर्कश स्वभाव वाला नास्तिक, वेद की निन्दा करने वाले इन सभी को ब्रह्महत्यारों के समान समझना चाहिए। 


तृणोक्लया ज्ञायते जातरूपं युगे भद्रो व्यवहारेण साधुः ।

शूरो भयेष्वर्थकृच्छ्रेषु धीरः कृच्छ्रास्वापत्सु सुहृदश्चारयश् च ॥ 


जलती हुई आग से सोने की पहचान होती है, सदाचार से सत्पुरुष की, व्यवहार से साधु की, भय आने पर शूर-वीर की, आर्थिक कठिनाई में धीर की और कठिन आपत्ति में शत्रु एवं मित्र की परीक्षा होती है ॥ 


श्रीर्मङ्गलात्प्रभवति प्रागल्भ्यात्सम्प्रवर्धते ।

दाक्ष्यात्तु कुरुते मूलं संयमात्प्रतितिष्ठति ॥ 


शुभ कर्मो से लक्ष्मी की उत्पत्ति होती है, प्रगल्भता से वह बढ़ती है, चतुराई से जड़ जमा लेती है और संयम से सुरक्षित रहती है ॥ 


अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च ।

पराक्रमश्चाबहु भाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च ॥ 


आठ गुण पुरुष की शोभा बढ़ाते हैं— बुद्धि, कुलीनता, दम, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, अल्प भाषण, यथाशक्ति दान देना और कृतज्ञ होना ॥ 


अष्टौ नृपेमानि मनुष्यलोके स्वर्गस्य लोकस्य निदर्शनानि ।

चत्वार्येषामन्ववेतानि सद्भिश् चत्वार्येषामन्ववयन्ति सन्तः ॥ 


हे राजन् ! मनुष्य लोक में ये आठ गुण स्वर्ग लोक के दर्शन करानेवाले हैं। इन में से चार तो संतो के साथ नित्य सम्बद्ध हैं-उनमें सदा विद्यमान रहते हैं। और चार का सज्जन पुरुष अनुसरण करते हैं ॥ 


यज्ञो दानमध्ययनं तपश् च चत्वार्येतान्यन्ववेतानि सद्भिः ।

दमः सत्यमार्जवमानृशंस्यं चत्वार्येतान्यन्ववयन्ति सन्तः ॥ 


यज्ञ, दान, अध्ययन और तप- ये चार सज्जनों के साथ नित्य निवास करते हैं और इन्द्रिय निग्रह, सत्य, सरलता तथा कोमलता- इन चारों का संत लोग अनुसरण करते हैं ॥ 


इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा घृणा ।

अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः ॥ 


यज्ञ, अध्ययन, दान, तप, सत्य, क्षमा, दया और अलोभ, ये धर्म के आठ प्रकार के मार्ग बताये गये हैं ।। 


न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा न ते वृद्धा ये न वदन्ति धर्मम् ।

नासौ हर्मो यत न सत्यमस्ति न तत्सत्यं यच्छलेनानुविद्धम् ॥ 


जिस सभा में बड़े-बूंढ़े न हों वह सभा नहीं, जो धर्मकी बात न कहें, वे बूढ़े नहीं, जिसमें सत्य नहीं, वह धर्म नहीं और जो कपट से पूर्ण हो, वह सत्य नहीं है ॥

 

सत्यं रूपं श्रुतं विद्या कौल्यं शीलं बलं धनम् ।

शौर्यं च चिरभाष्यं च दशः संसर्गयोनयः ॥ 


सत्य, विनय का भाव, शास्त्रज्ञान, विद्या, कुलीनता, शील, बल, धन, वीरता और चमत्कारपूर्ण बात कहना-ये दस स्वर्ग के साधन हैं ॥ 


पापं कुर्वन्पापकीर्तिः पापमेवाश्नुते फलम् ।

पुण्यं कुर्वन्पुण्यकीर्तिः पुण्यमेवाश्नुते फलम् ॥ 


पापी मनुष्य पापा का चरण करता हुआ फल के रूप में पाप ही प्राप्त करता है और पुण्यकर्म करने वाला मनुष्य पुण्य करता हुआ अत्यन्त पुण्य फल का ही उपभोग करता है ॥ 


पापं प्रज्ञां नाशयति क्रियमाणं पुनः पुनः ।

नष्टप्रज्ञः पापमेव नित्यमारभते नरः ॥ 


इसलिये प्रशंसित व्रत का आचरण करने वाले पुरुष को पाप नहीं करना चाहिये, क्योंकि बारम्बार किया हुआ पाप बुद्धि को नष्ट कर देता है ॥ 


पुण्यं प्रज्ञां वर्धयति क्रियमाणं पुनः पुनः ।

वृद्धप्रज्ञः पुण्यमेव नित्यमारभते नरः ॥ 


जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य सदा पाप ही करता रहता है। इसी प्रकार बारम्बार किया हुआ पुण्य बुद्धि को बढ़ाता है॥ 


वृद्धप्रज्ञः पुण्यमेव नित्यमारभते नरः ।

पुण्यं कुर्वन् पुण्यकीर्तिः पुण्यं स्थानं स्म गच्छति ।


तस्मात् पुण्यं निषेवेत पुरुष: सुसमाहितः ॥ 


जिसकी बुद्धि बढ़ जाती है, वह मनुष्य सदा पुण्य ही करता है। इस प्रकार पुण्यकर्मा मनुष्य पुण्य करता हुआ पुण्यलोक को ही जाता है। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह सदा एकाग्रचित्त होकर पुण्य का ही सेवन करे ।। 


इसलिए विदुर जी कहते है, कि हमें पाप कर्म का त्याग करना चाहिए और पुण्य कर्म में रत रहना चाहिए। 


शेष अगले प्रसंग में ------

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।


- आरएन तिवारी

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