Amethi LokSabha Seat: गांधी परिवार की बेवफाई का शिकार तो नहीं हो गये किशोरी लाल शर्मा

By संजय सक्सेना | May 04, 2024

लखनऊ। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए यह लोकसभा चुनाव आखिरी उम्मीद बन गया है। 1984 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश (उत्तराखंड के गठन से पूर्व) में 85 में 83 सीटें जीतकर सबसे शानदार प्रदर्शन करने वाली कांग्रेस 40 वर्षों के अंदर 2019 के चुनाव में रायबरेली की एक सीट पर सिमट कर रह गई थी। 1984 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की मिली बड़ी जीत के पीछे पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या बड़ी वजह बनी थी, लोगों ने इंदिरा लहर के नाम पर कांग्रेस 51.03 प्रतिशत वोट दिए थे। इसके बाद भाजपा, सपा और बसपा ने अपना-अपना जनाधार बढ़ाया और 2009 के लोस चुनाव में कांग्रेस 21 सीटों पर सिमट गई।


1977 में इमरजेंसी के बाद हुल आम चुनाव के साथ-साथ 1998 में भी कांग्रेस एक भी सीट पर जीत दर्ज नहीं कर सकी थी। इसके बाद मुस्लिमों का वोट बैंक कांग्रेस का साथ छोड़कर सपा के साथ चला गया। वहीं बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस के वंचित समाज के वोट बैंक पर अपना कब्जा कर लिया। 2014 व 2019 के चुनाव में भाजपा ने 71 व 62 सीटों पर जीत दर्ज कर उत्तर प्रदेश से कांग्रेस का पत्ता साफ कर दिया था।

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इस बार कांग्रेस गठबंधन के तहत समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर 17 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जिसमें से रायबरेली से कांग्रेस को सबसे अधिक उम्मीद है। राहुल गांधी ने यहां से नामांकन करके कांग्रेसियों में उत्साह का संचार कर दिया है। 2019 में राहुल अमेठी से हार गये थे। उम्मीद यही थी कि वह फिर से अमेठी में पुनः अपनी खोई सीट हासिल करने क कोशिश करेंगे, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। 2019 में अमेठी से हार कि बाद इस बार अगर राहुल गांधी रायबरेली से चुनाव हार जाते हैं तो उत्तर प्रदेश की राजनीति से गांधी परिवार का बोरिया-बिस्तर सिमट जाएगा।


भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को बुलंद करने के लिए उत्तर प्रदेश से कांग्रेस के सफाए की पूरी रणनीति तैयार कर ली है। एक तरफ जहां भाजपा ने 1.6 लाख बूथों पर मजबूत प्रबंधन किया है तो दूसरी तरफ कांग्रेस केवल 70 हजार बूथों पर ही प्रभारियों की तैनाती कर सकी है। इस बार बसपा ने भी अपना प्रत्याशी रायबरेली से उतारा है। इसलिए कांग्रेस की राह इतनी आसान होने वाली नहीं हैं। अलग बात है कि राहुल के चुनावी मैदान में उतरने से रायबरेली व अमेठी सहित कुछ अन्य सीटों पर भी गठबंधन के चुनाव प्रचार को धार मिलेगी।


बात गांधी परिवार की परम्परागत सीटों रायबरेली और अमेठी की कि जाये तो यहां राहुल गांधी परिवार की सबसे कमजोर कड़ी साबित हो रहे हैं। ऐसा इसलिये कहा जा रहा है क्योंकि हार की डर से राहुल गांधी ने अमेठी से पलायन कर लिया है, जो ऐसे किसी नेता को शोभा नहीं देता है जो स्वयं पार्टी को लीड कर रहा हो। भले ही जयराम रमेश जैसे माउथ पीस कुछ भी कहते रहें। उम्मीद की जा रही थी कि रायबरेली से प्रियंका गांधी को पहला चुनाव लड़ाया जाएगा और राहुल अमेठी से ही चुनावी मैदान में उतरेंगे, लेकिन सियासी मंच पर बड़े-बड़े दावे और मोदी को कोसने वाली प्रियंका हार की डर से मैदान में नहीं उतरी, क्योंकि वह नहीं चाहती थीं कि राजनीति में उनकी ‘बोनी’ ही खोटी हो जाये। सोनिया गांधी ने भी प्रियंका को मनाने के प्रयास किए, लेकिन प्रियंका नहीं मानी। उम्मीद यह है कि यदि राहुल जो वायनाड से भी चुनाव लड़ रहे हैं अगर दोनों सीटों पर जीतते हैं तो वायनाड की सीट प्रियंका के लिए छोड़ देंगे, परंतु यहां प्रियंका जीत ही जायेंगी। यह दावे से नहीं कहा जा सकता है क्योंकि वॉयनाड के मतदाता अभी से राहुल गांधी पर हमलावर हो गये हैं। वह सवाल खड़ा कर रहे हैं कि राहुल गांधी ने रायबरेली से चुनाव लड़ने वाली बात वॉयनाड से छिपाकर धोखा किया है। केरल की वायनाड लोकसभा सीट से सीपीआई उम्मीदवार ऐनी राजा ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी को नसीहत दी है। उन्होंने कहा कि राहुल को दो सीट से लड़ने का अधिकार है, लेकिन ये वायनाड की जनता के साथ अन्याय है। मुझे वायनाड में जीत का भरोसा है। उन्होंने सवाल किया कि कांग्रेस बताए कि अगर दोनों जगह जीते तो राहुल कौन सी सीट छोड़ेंगे? खैर, रायबरेली से राहुल गांधी के ताल ठोंकने की एक वजह और बताई जा रही है कि राहुल वायनाड से जीत को लेकर ज्यादा आश्वस्त नहीं है। अमेठी से 2019 का चुनाव हार चुके हैं, इस बार भी स्मृति ईरानी से उन्हें कड़ी टक्कर मिलती। इसलिए पार्टी एक तीर से दो निशाने साधे हैं।


गांधी परिवार ने अपनी सीट तो बचा ली, लेकिन वर्षो पुराने अपने एक वफादार को अमेठी के चुनावी मैदान में उतर कर उन्हें बुरी तरह से फंसा दिया। लोग सवाल खड़ा कर रहे हैं कि किशोरी लाल शर्मा को 40 वर्षों की गांधी परिवार की सेवा का यही पुरस्कार दिया जा सकता था। मूल रूप से पंजाब के लुधियाना निवासी शर्मा को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी 1983 में पहली बार अपने प्रतिनिधि के रूप में अमेठी लेकर आए थे। इसके बाद से वह अमेठी और रायबरेली में गांधी परिवार के दूत के रूप में सक्रिय रहे हैं, लेकिन उनका ज्यादा समय रायबरेली में ही बीतता था। यहां उनकी हर घर में पहचान थी। किशोरी लाल को यदि गांधी परिवार उनकी सेवा का सचमुच ईमान देना चाहती तो उन्हें अमेठी नहीं रायबरेली से प्रत्याशी बनाती जहां से उनकी जीत की ज्यादा उम्मीद रहती। स्मृति ईरानी को शर्मा कितनी मजबूत चुनौती दे पाएंगे यह आने वाले कुछ दिनों में स्पष्ट होगा।


सवाल यह खड़ा हो रहा है कि गांधी परिवार की बेवफाई का शिकार तो नहीं हो गये हैं अमेठी के कांग्रेस प्रत्याशी किशोरी लाल शर्मा। इसकी पहली झलक तब देखने को मिली जब शर्मा के नामांकन के समय गांधी परिवार का कोई सदस्य उनके साथ नहीं खड़ा दिखा।इतना ही नहीं अन्य बड़ें कांग्रेसी चेहरे भी किशारी लाल शर्मा के नामांकन के समय नदारत थे,जबकि गांधी परिवार चाहता तो ऐसा नहीं होता।

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