भाजपा का नारा ''बेटी बचाओ'' की जगह ''एमजे अकबर'' बचाओ हो गया है

By योगेन्द्र योगी | Oct 16, 2018

देश और समाज को नैतिकता और अनुशासन का पाठ पढ़ाने वाले राजनेता खुद किस हद तक बेशर्म हैं, इसका अंदाजा #MeToo कैम्पेन से लगाया जा सकता है। विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर पर उनके संपादकीय कार्यकाल के दौरान महिला पत्रकारों ने यौन दुर्व्यवहार के आरोप लगाए हैं। इन आरोपों के बाद इस्तीफा देने के बजाए अकबर और केन्द्र सरकार निर्लज्जता से पर्दा डाल रही है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह इन मामलों की जांच की दलील दे चुके हैं। अकबर इन मामलों को झूठा करार देने पर उतारू हैं। आरोप लगाने वाली महिला पत्रकारों ने अभी तक कोई वैधानिक शिकायत दर्ज नहीं कराई है। केंद्र सरकार के मंत्री और अकबर इसी का फायदा उठा रहे हैं और उन्होंने आरोप लगाने वालों पर ही मानहानि का मुकदमा ठोंक दिया है।

 

गौरतलब है कि अन्य प्रतिष्ठानों की तुलना में मीडिया संस्थानों में संपादक का दर्जा सम्मानजनक माना जाता है। उनसे उच्च आदर्शों पर चलने की अपेक्षा के साथ ही समाज को दशा-दिशा देने की उम्मीद की जाती है। किसी नामचीन संपादक के खिलाफ आरोप लगाना और वो भी यौन दुर्व्यवहार का, आसान नहीं है। भारतीय दोमुंही समाज में ऐसे मामलों में आवाज उठाना किसी दुस्साहसिक कार्य से कम नहीं हैं। यह निश्चित है कि जिन महिलाओं ने आरोप लगाए हैं, उनकी दबी टीस को #MeToo ने जाहिर करने का मंच दिया है। इन महिलाओं ने अकबर के खिलाफ किसी सजा की मांग नहीं की है, सिर्फ अपने साथ हुई ज्यादतियों का इजहार किया है।

 

होना तो यह चाहिए था कि ऐसे आरोपों की फेहरिस्त सामने आते ही अकबर से इस्तीफा ले लिया जाना चाहिए था। वैसे भी मंत्री पद से इस्तीफा कोई सजा नहीं है। किसी भी सांसद का मंत्री पद कोई अधिकार नहीं है। मंत्री पद प्रधानमंत्री के विवेक पर निर्भर करता है। इस्तीफे के बाद यदि सरकार और पार्टी की अन्दरूनी जांच में आरोपों को गलत पाया जाता तो, अकबर का मंत्री पद वापस कर उनकी और सरकार की प्रतिष्ठा बहाल की जा सकती है। इसके विपरीत पार्टी और सरकार जिस तरह से अकबर के बचाव में उतर आई, उससे जाहिर है कि नेताओं के लिए हर चीज के दोहरे मानदंड हैं।

 

वह चाहे कानून की पालना हो या फिर नैतिक मूल्यों की। यदि ऐसे ही यौन उत्पीड़न के आरोप कांग्रेस के किसी नेता पर लगते तो निश्चित तौर पर विपक्ष खासतौर भाजपा संस्कृति और नैतिकता की दुहाई देते हुए आसमान सिर पर उठा लेती। उसमें भी यदि कांग्रेस का नेता अल्पंसख्यक होता तो आरोपों की आग उगलने में भाजपा का हरावल दस्ता पीछे नहीं रहता। इसे लव जेहाद जैसा ही माना जाता। कई तरह की देश विरोधी संज्ञाओं से कांग्रेस को नवाजा जाता। इसके विपरीत अकबर चूंकि भाजपा में अल्पसंख्यकों के मुखौटे के तौर पर शामिल हैं, ऐसे में इस्तीफा लेने पर मुखौटा उतरने का खतरा है।

 

यूं भी अकबर का मामला #MeToo कैम्पेन में आरोपों में शामिल दूसरों से अलग है। अकबर देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके पास संवैधानिक पद की जिम्मेदारी है। जिस पर ऐसी जिम्मेदारी हो, उससे सार्वजनिक जीवन में में पारदर्शिता, ईमानदारी और नैतिकता की उम्मीद लाजिमी है, जबकि दूसरे आरोपियों के साथ ऐसा नहीं है। अकबर और सरकार की सीधी जवाबदेयी आम लोगों से है। आश्चर्य तो इस बात का है कि रामराज्य की दुहाई देने वाली भाजपा राम के चरित्र को कहीं भी चरितार्थ करती नजर नहीं आती। सीता को मात्र उंगली उठाने के कारण राम ने त्याग दिया। इसके विपरीत यहां तो अकबर के खिलाफ हाथ उठाएं ही नहीं गिनाए भी जा रहे हैं। इसके बावजूद भाजपा अकबर के बचाव की तरकीबें ढूंढने में जुटी हुई है।

 

पिछले एक पखवाड़े से आरोपों की झड़ी के बावजूद अकबर को यह कह कर बचाया जाता रहा कि अभी वो विदेश के दौरे पर हैं। यह दौरा भी इतना जरूरी नहीं था कि देश में उठ रहे बवाल के बीच रद्द करके उन्हें वापस नहीं बुलाया जा सकता था। भाजपा को सबसे बड़ा डर यह है कि यदि अकबर से इस्तीफा ले लिया तो कांग्रेस और विपक्षी दल इसे चुनावों में भुनाएंगे। विकास के मुद्दे पर कहीं यह मुद्दा हावी न हो जाए। अकबर इस्तीफा दें या नहीं, कांग्रेस और विपक्ष अब इस मुद्दे को भुनाए बिना नहीं मानेंगे। इस तरह की गंदगी की राजनीति करने में कोई भी दल पीछे नहीं रहा।

 

भाजपा ने भी ऐसा कोई मौका नहीं गंवाया है, ऐसे में विपक्ष ऐसे मौके को हाथ से नहीं जाने देगा। मौजूदा दौर में देश की राजनीति जिस दौर से गुजर रही है, उसमें नैतिकता, चारित्रिक दृढ़ता और राष्ट्रवाद सिर्फ जुमले बन कर रह गए हैं। ये जुमले दूसरे पर लागू करने के लिए सिद्धान्त बन जाते हैं, जब बारी अपने पर अमल करने की आती है तो खालिस जुमले बन कर रह जाते हैं। 

 

विदेश राज्यमंत्री अकबर के प्रकरण से यही साबित होता है कि राजनीति अब पूरी तरह कालिख की कोठरी बन गई है। इसमें दाखिल होने के बाद सब दूसरों को दाग दिखाते हैं। अपने दामन पर लगे दाग किसी को दिखाई नहीं देते। नेता कहते भले ही हों किन्तु अब राजनीति का वह दौर पाताल लोक गया, जब लालबहादुर शास्त्री ने महज एक रेल दुर्घटना पर इस्तीफा देकर नैतिकता के उच्च मानदंडों का पालन किया था। अब हालात इसके विपरीत हैं। चाहे कितने ही आरोप लग जाएं, नेता तब तक कुर्सी से चिपके हुए रहते हैं जब तक उन्हें जबरन धकेला नहीं जाए। आकंठ तक आरोपों में डूबने के बाद भी नेता कुर्सी से टस से मस होने का नाम नहीं लेते। #MeToo जैसा कैम्पेन नारी सशक्तिकरण और बराबरी के उस दर्जे की सामाजिक असलियत भी उजागर करता है। संवैधानिक दृष्टि से कहने को यह दर्जा बराबरी का हो पर व्यवहारिक तौर पर दोयम ही बना हुआ है।

   

-योगेन्द्र योगी

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