इसलिए मोदी ने कर दी रविशंकर प्रसाद, डॉ. हर्षवर्धन और प्रकाश जावड़ेकर की मंत्री पद से छुट्टी

By नीरज कुमार दुबे | Jul 09, 2021

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल का जितना बड़ा विस्तार किया है उससे बड़ा तो फेरबदल कर दिया है। प्रधानमंत्री समेत चार-पाँच शीर्ष मंत्रियों को छोड़ दें तो पूरी सरकार का स्वरूप ही बदल गया है। इसे आप मोदी 2.0 की दूसरी सीरीज भी कह सकते हैं। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई परिवर्तित कैबिनेट की पहली बैठक में जिस तरह धड़ाधड़ फैसले लिये गये और उन फैसलों को अमली जामा पहनाने के लिए जिस तरह समय निर्धारित किये गये वह दर्शाता है कि प्रधानमंत्री ने अपने मंत्रियों को साफ संकेत और संदेश दे दिया है कि अब थमने या आराम करने का वक्त नहीं बल्कि तेजी से काम करने और उस काम को जनता के बीच दिखाने का भी वक्त है।

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प्रधानमंत्री ने क्या बड़े संदेश दिये?


जहाँ तक मंत्रिमंडल के विस्तार और फेरबदल की कवायद की बात है तो इसके तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ बड़े संदेश दिये हैं। पहला- व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा हो उसके कार्य प्रदर्शन की गुणवत्ता से कतई समझौता नहीं किया जायेगा। दूसरा- किसी खास मंत्रालय का मंत्री यदि जनता की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता तो उसके खिलाफ उपजी नाराजगी का असर पूरी सरकार पर नहीं पड़ने दिया जायेगा। तीसरा- 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' मूलमंत्र पर आगे बढ़ते हुए सरकार में समाज के सभी वर्गों और देश के हर कोने की पर्याप्त भागीदारी सुनिश्चित की जायेगी। चौथा- बेहतरीन कार्य करने वालों को पुरस्कृत किया जाता रहेगा। पाँचवाँ- पार्टी संगठन के लिए निष्ठापूर्वक काम करने वालों को 'बड़े अवसर' दिये जाएंगे।


कुछ अब भी अपनी कुर्सी बचाने में सफल रहे


मोदी मंत्रिमंडल में किस मंत्री को क्या मिला, उसके क्या राजनीतिक और जातिगत समीकरण हैं इसके बारे में तो लोग जानकारी ले ही रहे हैं लेकिन इससे ज्यादा लोगों की रुचि यह जानने में है कि रविशंकर प्रसाद, डॉ. हर्षवर्धन, प्रकाश जावड़ेकर और बाबुल सुप्रियो जैसे दिग्गज मंत्रियों की मंत्रिमंडल से क्यों छुट्टी कर दी गयी। मंत्रिमंडल से जो अन्य लोग हटाये गये हैं उनके नामों पर शायद ही किसी को आश्चर्य हुआ हो। बल्कि अभी तो कई और ऐसे मंत्री बाकी हैं जिनका कार्य प्रदर्शन संतोषजनक नहीं है लेकिन चूँकि वह उन राज्यों से हैं जहाँ साल 2022 में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में वहाँ के जातिगत समीकरणों को देखते हुए उनकी कुर्सी फिलहाल बच गयी है।


काम करके दिखाना ही होगा


रविशंकर प्रसाद, डॉ. हर्षवर्धन, प्रकाश जावड़ेकर की मंत्री पद से छुट्टी सभी लोगों के लिए साफ संकेत है कि कोई अपने बड़े नाम की वजह से ही बड़े पद पर नहीं बैठा रह सकता। काम भी करके दिखाना होगा। दरअसल साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव पूर्व के लोकसभा चुनावों से इस मायने में अलग थे कि जनता ने एक तरह से अपने सांसद को चुनने के लिए नहीं बल्कि सीधे प्रधानमंत्री को चुनने के लिए वोट दिया था। ऐसे में नरेंद्र मोदी अपने मंत्रिमंडल में किसको मंत्री बनाते हैं और किसे हटाते हैं इससे ज्यादा असर नहीं पड़ेगा क्योंकि जनता वादे पूरे होने की स्थिति में मोदी को सराहेगी या वादे पूरे नहीं होने की स्थिति में उनसे ही सवाल करेगी।


रविशंकर प्रसाद को क्यों हटाया?


जहाँ तक रविशंकर प्रसाद की बात है तो उन्हें भी यकीन नहीं होगा कि कानून, आईटी, कम्युनिकेशन जैसे बड़े मंत्रालय संभालते-संभालते वह अचानक से मंत्री पद से हाथ धो बैठेंगे। लोगों को विश्वास नहीं हो रहा है कि जो मंत्री राजनीतिक और नीतिगत मामलों में लगातार सरकार का पक्ष रखने के लिए मीडिया के बीच उपस्थित होते रहते थे उन्हें क्यों हटा दिया गया। कहा जा रहा है कि ट्विटर से लड़ाई रविशंकर प्रसाद को भारी पड़ गयी। यह सही है कि विदेशी सोशल मीडिया कंपनियों से जिस तरह रविशंकर प्रसाद भिड़े उससे भारत एक अजीब स्थिति में फँस गया क्योंकि एक ओर तो हम विदेशी कंपनियों को अपने यहाँ निवेश का न्यौता दे रहे हैं दूसरी ओर ऐसा संदेश भी गया कि हम उन्हें भारत के कानूनों से डरा भी रहे हैं। यह माना गया कि रविशंकर प्रसाद इस मुद्दे से और आसान तरीके से निबट सकते थे। रविशंकर प्रसाद के खिलाफ लेकिन सिर्फ यही मामला नहीं था। दूरसंचार मंत्री के रूप में ना तो वह बीएसएनएल का भला कर पाये ना ही प्रधानमंत्री के महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट 'भारतनेट' को तेजी से आगे बढ़ा पाये। यही नहीं जिस तरह से कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान केंद्र सरकार को कभी हाईकोर्ट तो कभी सुप्रीम कोर्ट की फटकार पड़ती रही उससे भी यही संदेश गया कि कानून मंत्रालय सही तरीके से सरकार का पक्ष अदालतों में नहीं रखवा पा रहा है। इसके अलावा यह भी माना जा रहा है कि कानून मंत्री के तौर पर रविशंकर प्रसाद के रिश्ते न्यायिक तंत्र के साथ सहज नहीं रहे और बड़ी संख्या में जजों की रिक्ति को भरने के लिए भी मंत्रालय पर्याप्त कदम नहीं उठा पाया था।


प्रकाश जावड़ेकर को क्यों हटाया?


प्रकाश जावड़ेकर जोकि मंत्री होने के साथ-साथ सरकार के मुख्य प्रवक्ता भी थे, उन्हें भी यूँ रुखसत कर दिये जाने का आभास नहीं होगा। उनके खिलाफ एक-दो नहीं कई बातें गयीं। जरा पर्यावरण मंत्रालय की वेबसाइट उठाकर देखिये आपको लगेगा कि पिछले दो साल से सरकार की कोई उपलब्धि ही नहीं है। प्रधानमंत्री ने पर्यावरण सुरक्षा के लिहाज से कई कदम उठाये जैसे कि सिंगल यूज प्लास्टिक पर रोक की बात हुई लेकिन यह मंत्रालय प्रधानमंत्री के कदमों को आगे ही नहीं बढ़ा पाया। पर्यावरण मंत्री के रूप में जावड़ेकर जो 'Environment Impact Assessment' का ड्राफ्ट लेकर आये उसका पर्यावरणविदों ने जमकर विरोध किया। यही नहीं सूचना और प्रसारण मंत्री के रूप में उनका काम था कि कोरोना की दूसरी लहर के दौरान जब देश महामारी से जूझ रहा था तो सरकार की ओर से किये जा रहे कार्यों को प्रमुखता से बताया जाये लेकिन वह ऐसा करने में विफल रहे, नतीजतन विपक्ष सरकार को घेरता रहा और सरकार की छवि खराब होती रही। उस समय मंत्री जमीन पर नहीं सिर्फ टि्वटर पर नजर आ रहे थे। यही नहीं विदेशी मीडिया में भी जिस तरह भारत सरकार की नाकामियों की खबरें छपीं उसका भी प्रतिवाद सूचना प्रसारण मंत्रालय सही से नहीं कर पाया। यही नहीं जावड़ेकर लगातार नीतियां बनाने का मुद्दा भी टालते ही रहे। इस साल की शुरुआत में वह समाचार पोर्टलों, ओटीटी प्लेटफॉर्मों के लिए जो नीतियाँ लेकर आये उन पर भी आते ही विवाद हो गया और मामला अदालतों में चक्कर काट रहा है।

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डॉ. हर्षवर्धन को क्यों हटाया?


स्वास्थ्य मंत्री पद से डॉ. हषर्वधन ने अपनी छुट्टी की कल्पना नहीं की होगी लेकिन प्रधानमंत्री की निगाह में वह अप्रैल में ही आ गये थे। इसमें कोई दो राय नहीं कि कोरोना महामारी की पहली लहर के दौरान डॉ. हर्षवर्धन का काम संतोषजनक रहा लेकिन कह सकते हैं कि कोरोना ने पहली लहर के दौरान तो भारत में अपना रौद्र रूप दिखाया ही नहीं था। डॉ. हर्षवर्धन कोरोना को हराने का श्रेय लेने को इतने आतुर थे कि इस साल 7 मार्च को उन्होंने भारत में कोरोना महामारी का अंत होने की बात तक कह दी थी। परन्तु मार्च महीने के अंत में कोरोना के नये मामले इतनी तेजी से बढ़ने शुरू हुए कि अप्रैल आते-आते तो यह चरम तक पहुँच चुके थे। अप्रैल अंत तक जिस प्रकार संसाधनों की कमी से भारत जूझ रहा था उस समय तक डॉ. हर्षवर्धन एक विफल मंत्री के रूप में पहचाने जाने लगे थे। माना जाता है कि प्रधानमंत्री मार्च के मध्य में ही समझ गये थे कि डॉ. हर्षवर्धन अकेले कुछ नहीं कर पाएंगे इसलिए प्रधानमंत्री कार्यालय और नीति आयोग ने कमान संभाली। आप जरा प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी होने वाले बयानों पर गौर करियेगा। 17 मार्च को प्रधानमंत्री ने कोरोना के बढ़ते मामलों को लेकर मुख्यमंत्रियों के साथ ऑनलाइन संवाद किया और इस बैठक में स्वास्थ्य सचिव राजेश भूषण ने प्रस्तुतिकरण दिया और गृहमंत्री ने मुख्यमंत्रियों से उन जिलों पर विशेष ध्यान देने को कहा जहाँ मामले बढ़ रहे थे। 8 अप्रैल को प्रधानमंत्री ने फिर मुख्यमंत्रियों से संवाद किया और इस बैठक में भी स्वास्थ्य सचिव ने ही प्रस्तुतिकरण दिया। 23 अप्रैल को प्रधानमंत्री ने उन राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ ऑनलाइन संवाद किया जहाँ कोरोना के मामले सर्वाधिक संख्या में सामने आ रहे थे। इस बैठक में कोविड टास्क फोर्स के प्रमुख और नीति आयोग के सदस्य डॉ. वीके पॉल ने प्रस्तुतिकरण दिया। यही नहीं प्रधानमंत्री ने अप्रैल और मई महीने में कोरोना महामारी से जुड़े विभिन्न मुद्दों या संसाधनों को लेकर तमाम बैठकें कीं लेकिन इनमें से अधिकतर बैठकों में डॉ. हर्षवर्धन नहीं थे।


यही नहीं माना जाता है कि प्रधानमंत्री को यह बात भी रास नहीं आ रही थी कि विपक्ष द्वारा सवाल उठाये जाने पर डॉ. हर्षवर्धन समस्याओं को दूर करने की बात कहने की बजाय विपक्ष शासित राज्य सरकारों को ही घेरने में जुटे थे। एक बार तो प्रधानमंत्री की मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक से एक दिन पहले ही डॉ. हर्षवर्धन ने विपक्ष पर निशाना साध कर माहौल गर्म कर दिया था। यही नहीं डॉ. हर्षवर्धन ने पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को पत्र लिख कर कांग्रेस शासित राज्यों पर भ्रम फैलाने का जो आरोप लगाया था वह कदम भी सरकार को पसंद नहीं आया था। यही नहीं सरकार को यह भी पसंद नहीं आया कि एक ओर तो स्वास्थ्य मंत्री हषर्वधर्न कांग्रेस को घेरने में जुटे थे लेकिन दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार केंद्र सरकार पर ऑक्सीजन तथा अन्य मुद्दों को लेकर जो निशाना साध रही थी उसका वह जवाब नहीं दे पा रहे थे। नये स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया ने अपने पहले संवाददाता सम्मेलन में जिस तरह राज्यों को साथ लेकर चलने की बात कही है उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि डॉ. हर्षवर्धन ऐसा कर पाने में विफल रहे थे और उसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी।


बहरहाल, रेल मंत्री के रूप में भले पीयूष गोयल के खाते में कई उपलब्धियाँ हों लेकिन उनके कार्यकाल में जनता की नाराजगी खूब रही। आम जनता के परिवहन का साधन रेलवे उनके कार्यकाल में इतना महँगा हो गया है कि लोग बसों से यात्रा को महत्व भी देने लगे हैं। श्रम मंत्री के रूप में संतोष गंगवार का कार्यकाल पूरी तरह विफल रहा क्योंकि रोजगार प्रदान करने के जिस बड़े वादे के साथ मोदी सरकार सत्ता में आई थी वह पूरा नहीं हो पाया है। उस पर से श्रम मंत्री के पास कभी आंकड़े भी नहीं होते थे कि कोरोना ने कितनों को बेरोजगार कर दिया या सरकार ने रोजगार के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कितने अवसर मुहैया कराये। यही नहीं श्रम सुधार कानूनों को लेकर भी वह सरकार का पक्ष सही ढंग से नहीं रख पा रहे थे। मंत्री के रूप में उनकी निष्क्रियता साफ झलकती थी क्योंकि बड़े से बड़ा मुद्दा आ जाये, संतोष गंगवार चुप्पी साधे रहते थे या परिदृश्य से गायब रहते थे। अपने पैरों पर कुल्हाड़ी उन्होंने खुद तब चला दी जब दूसरी लहर के दौरान उन्होंने पत्र लिखकर योगी आदित्यनाथ सरकार की नाकामियां गिना दीं। इसके अलावा रमेश पोखरियाल निशंक का स्वास्थ्य तो गड़बड़ चल ही रहा है इसके अलावा वह राष्ट्रीय शिक्षा नीति को सही ढंग से आम और खास जन के बीच नहीं रख पाये जबकि मोदी सरकार की यह बड़ी उपलब्धियों में से एक है। बाबुल सुप्रियो को एक लोकप्रिय चेहरा माना गया था। वह दो बार लोकसभा का चुनाव जीते लेकिन दोनों ही बार मोदी के नाम पर वोट पड़ा था जैसे ही बाबुल ने अपने चेहरे पर वोट लेने का प्रयास किया वह विधानसभा सीट भी नहीं जीत पाये। इसके अलावा पर्यावरण राज्य मंत्री के रूप में उनकी लगातार निष्क्रियता भी उनकी रवानगी की वजह बनी।


-नीरज कुमार दुबे

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