By अंकित सिंह | Mar 10, 2021
सियासी उठापटक के बीच उत्तराखंड का नया मुख्यमंत्री मिल चुका है। 4 वर्षों के त्रिवेंद्र सिंह रावत के कार्यकाल का अंत हो गया। लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि पूर्ण बहुमत की सरकार की अगुवाई कर रहे त्रिवेंद्र सिंह रावत को आखिर इस्तीफा क्यों देना पडा? जो चर्चाएं बाहर आ रही हैं, उससे एक बात स्पष्ट होता दिखाई दे रहा है कि मुख्यमंत्री के तौर पर त्रिवेंद्र सिंह रावत और विधायकों के बीच लगातार दूरी बढ़ने लगी थी। विधायकों की ओर से इस बात का आरोप लगाया गया कि मुख्यमंत्री उनकी बातों को अनसुना करते थे। चंद अफसरों की राय के मुताबिक ही वह सभी फैसले लेते थे। कार्यकर्ताओं की नजर में वह एक घमंडी मुख्यमंत्री साबित हो रहे थे। और यही कारण है कि विधायकों ने मुख्यमंत्री के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया। कुल मिलाकर कहें तो राज्य की शासन व्यवस्था में अफसरशाही हावी होने लगी थी। विधायक पार्टी आलाकमान तक यह संदेश पर पहुंचा रहे थे कि अगर त्रिवेंद्र सिंह रावत के नेतृत्व में अगला चुनाव लड़ा जाएगा तो शायद कार्यकर्ता ही पार्टी का साथ ना दें।
उत्तराखंड में मुख्यमंत्री के पद से त्रिवेन्द्र सिंह रावत को हटाने का भाजपा का फैसला पार्टी के प्रादेशिक क्षत्रपों की मुख्यमंत्री की पसंद को नजरअंदाज करने की अब तक की प्रक्रियाओं के विपरीत है। पार्टी के इस फैसले के पीछे प्रमुख वजह यह मानी जा रही है कि यदि रावत अपने पद पर बने रहते तो भाजपा को राज्य विधानसभा के चुनाव में बहुत भारी पड़ सकता था। ठीक वैसा ही जैसा झारखंड में रघुबर दास को मुख्यमंत्री बनाए रखने से 2020 के विधानसभा चुनाव में हुआ। उत्तराखंड में अगले साल के शुरुआती महीनों में विधानसभा चुनाव होने हैं। रावत के खिलाफ राज्य के भाजपा विधायकों के एक वर्ग की शिकायतें लगातार बढ़ रही थीं। इनमें कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होने वाले विधायक भी थे।
आम जन मानस में रावत की छवि को लेकर भी इन विधायकों ने केंद्रीय नेतृत्व के समक्ष चिंता जताई थी। सूत्रों के मुताबिक इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए केंद्रीय नेतृत्व ने रावत की जगह किसी अन्य चेहरे के नेतृत्व में आगामी विधानसभा चुनाव में जाने का फैसला किया। पिछले दिनों पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह और भाजपा महासचिव व उत्तराखंड के प्रभारी दुष्यंत कुमार गौतम को देहरादून भेजकर इस संबंध में विधायकों का मन भी टटोला था। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा के सबसे प्रमुख चेहरे के रूप में प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी के उभरने के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने वाले रावत भाजपा के पहले नेता हैं। पार्टी इससे पहले भाजपा शासित राज्यों में मुख्यमंत्री के खिलाफ विधायकों की किसी भी प्रकार की लामबंदी के प्रयासों को झटका देती रही है। इसके एवज में वह राज्य सरकार की गतिविधियों पर पैनी नजर रखती थी।
संघ प्रचारक से लेकर मुख्यमंत्री पद तक की त्रिवेंद्र की यात्रा रही है असाधारण
अगले साल होने वाले उत्तराखंड विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा द्वारा लिए गए सामूहिक निर्णय के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने वाले त्रिवेंद्र सिंह रावत की राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक से लेकर राज्य सरकार के मुखिया पद तक की यात्रा असाधारण रही है। विधानसभा चुनाव में 70 में से 57 सीटों पर विजय हासिल कर भाजपा के जबरदस्त बहुमत के साथ सत्ता में आने बाद त्रिवेंद्र सिंह रावत ने 18 मार्च, 2017 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी और चार साल का कार्यकाल पूरा होने से केवल नौ दिन पहले उन्हें अपना पद छोडना पड़ा। इस्तीफा देने के तत्काल बाद रावत ने एक संवाददाता सम्मेलन में अपने आप को एक साधारण पृष्ठभूमि का व्यक्ति बताया जिसने मुख्यमंत्री के रूप में उत्तराखंड की सेवा का मौका मिलने के बारे में कभी सोचा भी नहीं था। उन्होंने कहा कि केवल भाजपा जैसी पार्टी में ही एक साधारण कार्यकर्ता शीर्ष स्थान तक पहुंच सकता है। इस्तीफा देने के बाद रावत उत्तराखंड के उन आधा दर्जन से अधिक मुख्यमंत्रियों की सूची में शामिल हो गए हैं जो पांच वर्ष का अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके। इनमें राज्य के पहले मुख्यमंत्री नित्यानदं स्वामी, भुवन चंद्र खंडूरी, रमेश पोखरियाल निशंक, विजय बहुगुणा और हरीश रावत भी शामिल हैं। रावत फिलहाल प्रदेश की डोइवाला विधानसभा सीट से विधायक हैं जहां 2017 में उन्होंने 24869 मतों के अंतर से कांग्रेस प्रत्याशी को हराते हुए शानदार विजय हासिल की।
गैरसैंण को प्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने, महिलाओं को उनके पतियों की पैतृक संपत्ति में खातादार बनाने जैसी योजनाएं रावत के कार्यकाल की महत्वपूर्ण उपलब्धियां रहीं। हांलांकि, रावत के अचानक हुई विदाई के पीछे के असली कारण के बारे में स्पष्ट रूप से अभी कुछ कहना संभव नहीं है लेकिन माना जा रहा है कि पार्टी विधायकों में बढ रहा असंतोष इसका कारण है। पूर्ववर्ती भाजपा सरकार में कृषि मंत्री रहे त्रिवेंद्र सिंह रावत का जन्म दिसंबर, 1960 में पौडी जिले के खैरासैंण गांव में एक फौजी परिवार में हुआ था। उनके पिता प्रताप सिंह रावत गढवाल राइफल्स में थे और उन्होंने अपने गांव में मिटटी और गारे से बने एक स्कूल में अपनी शुरूआती शिक्षा प्राप्त की थी। पढाई में मध्यम दर्जे के होने के बावजूद त्रिवेंद्र को शुरू से ही सामाजिक-राजनीतिक मामलों में बहुत रूचि थी और केवल 19 वर्ष की उम्र में ही संघ की विचारधारा से प्रभावित होकर वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में शामिल हो गए। इसके छह साल बाद उन्हें देहरादून शहर के लिए संघ का प्रचारक नियुक्त किया गया और 14 साल तक संघ के साथ सक्रिय जुडाव के बाद उन्हें भाजपा का संगठन मंत्री बनाया गया। उत्तराखंड पृथक राज्य आंदोलन में भी उन्होंने बढ-चढ कर हिस्सा लिया और कई बार गिरफतार भी हुए। वर्ष 2002 में पहला विधानसभा चुनाव उन्होंने डोइवाला से जीता। इसके बाद 2007 और 2017 में भी उन्होंने विधानसभा चुनाव जीता। उनके संगठनात्मक कौशल से प्रभावित होकर उन्हें 2013 में पार्टी के राष्ट्रीय सचिव की जिम्मेदारी दी गयी जिसके एक साल बाद उन्हें उत्तर प्रदेश में पार्टी मामलों का सहप्रभारी बनाया गया। उनके कार्य से प्रभावित होकर पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व का उन पर भरोसा बढ गया और यही उनके 2017 में प्रदेश के मुख्यमंत्री पद तक पहुंचने में बहुत मददगार हुआ।