बाहरियों को पार्टी में शामिल करने से कई राज्यों में भाजपा के समक्ष खड़ी हो रही हैं चुनौतियाँ

By रमेश सर्राफ धमोरा | Jun 25, 2021

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) देश की ही नहीं बल्कि दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन चुकी है। इसके सदस्यों की संख्या कई करोड़ों में है। जो दुनिया के कई देशों की जनसंख्या से भी अधिक है। भाजपा का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से संबंध होने के कारण वह प्रारंभ (जनसंघ के जमाने) से ही अनुशासन वाली पार्टी मानी जाती रही है। कम्युनिस्ट पार्टियों की तरह ही भाजपा भी एक कैडर बेस पार्टी है। अपने पार्टी कैडर के बल पर ही भाजपा राजनीति में इतनी लंबी छलांग लगा पाई है। पिछले सात वर्षों से केंद्र में भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार चला रही है। वहीं देश के आधे से अधिक प्रदेशों में भाजपा व उनके गठबंधन के साथी दलों की मिलीजुली सरकारें चल रही हैं। पहली बार भाजपा ने देश में राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति का चुनाव भी अपने बल पर जीता था।

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भाजपा लगातार पूरे देश में मजबूत होती जा रही है। देश के एक दर्जन प्रदेशों में भाजपा के मुख्यमंत्री हैं। कई प्रदेशों में पार्टी गठबंधन की सरकार में शामिल है। पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखंड जैसे प्रदेशों में भाजपा मुख्य विपक्षी दल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजनीतिक रूप से भाजपा एक सशक्त पार्टी बन चुकी हैं। आज देश में कांग्रेस सहित कोई भी ऐसी राजनीतिक पार्टी नहीं है जो राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा से सीधा मुकाबला कर सके। अब तो कांग्रेस भी भाजपा के सामने पस्त पड़ चुकी है। 


भाजपा जैसे-जैसे बड़ी पार्टी बनती जा रही है। वैसे-वैसे दूसरे दलों के नेता भी लगातार भाजपा में शामिल हो रहे हैं। उनमें से कई लागों को बड़े पद भी दिए गए हैं। बाहर से आने वाले नेताओं के कारण पार्टी में वर्षों से काम कर रहे लोगों को असहज स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। इससे पार्टी में बहुत से प्रदेशों में कलह होने लगी है। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जबरदस्त हवा को देखकर तृणमूल कांग्रेस सहित कांग्रेस व वामपंथी दलों के बहुत से नेता भाजपा में शामिल हुए थे। जिनमें से बहुत लोगों ने टिकट लेकर विधायक का चुनाव भी जीता था। उन्हीं में से एक बड़े नेता मुकुल रॉय तृणमूल कांग्रेस से भाजपा में आए थे। मगर बंगाल में भाजपा की सरकार नहीं बनने व मुकुल रॉय को नेता प्रतिपक्ष नहीं बनाने से नाराज होकर वह वापस तृणमूल कांग्रेस में चले गए। उनके साथ और कई विधायकों की भी तृणमूल कांग्रेस पार्टी में जाने की चर्चा जोरों से है। इससे भाजपा की स्थिति असहज हो रही है। पश्चिम बंगाल के मूल भाजपाई भी पार्टी के बड़े नेताओं पर दलबदलू को प्रश्रय देने से नाराजगी जता रहे हैं।


ऐसे ही असम में 2016 के चुनाव में असम गण परिषद से आए सर्बानंद सोनोवाल को मुख्यमंत्री बनाया गया था। हाल ही के चुनाव के बाद कांग्रेस से आए हिमंत बिस्व सरमा ने भाजपा नेतृत्व पर खुद को मुख्यमंत्री बनने का दबाव बनाया। जिसके चलते उनको मुख्यमंत्री बनाया गया। इससे पहले भाजपा में दबाव से कोई भी व्यक्ति पद नहीं ले सकता था। मगर अब स्थिति बदली हुयी है। मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में आने के बाद उनके समर्थकों व भाजपा के पुराने कार्यकर्ताओं में अभी भी 36 का आंकड़ा देखा जा सकता है।

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महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा में दूसरे दलों से आये नेताओं को प्रत्याशी बनाने से पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा था। बाहर से आए नेताओं के जीतकर विधायक बनने के बाद उनके पार्टी छोड़ने की लगातार खबरें आती रहती हैं। कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने कांग्रेस के विधायकों को तोड़कर भाजपा की सरकार तो बना ली। मगर उन्हें लगातार अपनी ही पार्टी के उन विधायकों का विरोध झेलना पड़ रहा है जो बाहर से आए हुए लोगों के कारण मंत्री बनने से वंचित रह गए। गुजरात में मुख्यमंत्री विजय रूपाणी व प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सीआर पटेल के मध्य वर्चस्व की जंग चल रही है। गोवा में मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत व स्वास्थ्य मंत्री विश्वजीत राणे के मध्य कोविड के दौरान खुलकर बयानबाजी हुयी थी। झारखंड में जरूर भाजपा ने प्रदेश में सत्ता गंवाने के बाद एक सही फैसला लेते हुए अपने पुराने आदिवासी नेता बाबूलाल मरांडी को फिर से पार्टी में शामिल करवा कर पुरानी गलती को सुधारा है। 


हरियाणा में भी कांग्रेस से आये चौधरी वीरेंद्र सिंह, राव इंद्रजीत सिंह जैसे नेताओं का पार्टी को एक बार तो लाभ मिल गया। मगर पिछले विधानसभा चुनाव में वहां भाजपा को सरकार बनाने में दूसरे दलों का सहारा लेना पड़ा था। जम्मू-कश्मीर में कट्टरपंथी महबूबा मुफ्ती की पीडीपी के साथ भाजपा की सरकार बनाने का सभी जगह विरोध हो रहा था। वह तो अच्छा रहा कि भाजपा आलाकमान ने समय रहते पीडीपी सरकार से बाहर आकर वहां राष्ट्रपति शासन लगवा दिया। जिससे वहां भाजपा का आधार समाप्त होने से बच गया था। वरना यदि पीडीपी से गठबंधन कुछ समय और चलता तो वहां भाजपा साफ हो जाती।


राजस्थान में भी सत्ता गंवाने के बाद भाजपा अंतर कलह से गुजर रही है। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अगले चुनाव में खुद को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करने के लिए दबाव बना रही हैं। केंद्रीय नेतृत्व प्रदेश में नए लोगों को आगे बढ़ा रहा है। संघ पृष्ठभूमि से आए सतीश पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने वसुंधरा राजे को संकेत भी दे दिया है कि आने वाला समय नए लोगों का होगा। समय रहते उन्हें नए लोगों को स्वीकार करना होगा। मगर वसुंधरा राजे अभी भी अपनी जिद पर अड़ी हुई हैं और अपने समर्थकों से आए दिन बयान दिलवाकर भाजपा नेतृत्व पर दबाव बनाने का प्रयास कर रही हैं।

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प्रदेश में भाजपा की नई पीढ़ी आगे आ रही है जिनमें प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, कैलाश चौधरी, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला, पूर्व केंद्रीय मंत्री कर्नल राज्यवर्धन सिंह राठौड़, राजेंद्र सिंह राठौड़, दीया कुमारी मुख्य हैं। यदि वसुंधरा राजे अपनी जिद पर अड़ी रहीं तो पार्टी नेतृत्व उनके खिलाफ कड़े फैसले लेने से भी नहीं हिचकेगा। वसुंधरा राजे को समझना चाहिए कि अब उनका समय चला गया है। पिछले विधानसभा चुनाव में जब वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ रहा जा रहा था। तब प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मीटिंग में खुलकर नारे लगते थे कि मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं। और वही हुआ प्रदेश की जनता ने वसुंधरा राजे के नेतृत्व को नकारते हुए प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनवा दी। उसके छह महीने बाद हुए लोकसभा चुनाव में जनता ने प्रदेश की सभी 25 सीटों पर भाजपा को जिता कर नरेन्द्र मोदी को दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने का मार्ग प्रशस्त किया था। 


भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को दूसरे दलों से आने वाले लोगों को सीधे महत्वपूर्ण पद नहीं देना चाहिए। उनको कुछ समय तक संगठन में काम करने के बाद ही पद दिया जाना चाहिए। दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का तगमा हासिल करने वाली भाजपा को सदस्य संख्या बढ़ने के साथ ही अपने मूल कैडर को भी पूर्ववत मजबूत बनाए रखना चाहिए। तभी भाजपा सभी को साथ लेकर चलने वाली पार्टी बनी रह पाएगी। वरना पार्टी कार्यकर्ताओं की नाराजगी का खामियाजा भाजपा को भारी पड़ सकता है। पार्टी आलाकमान को अपनी प्रादेशिक इकाइयों को भी अनुशासित बनाना चाहिए। प्रादेशिक नेताओं में व्याप्त गुटबाजी पर समय रहते अंकुश लगानी चाहिए ताकि पार्टी और अधिक मजबूत बनकर ऊभर सके।


-रमेश सर्राफ धमोरा

(लेखक अधिस्वीकृत स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके लेख देश के विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं।)

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