भले पार्टी में असंतोष हो, फिर भी उत्तर प्रदेश में इस समय सबसे मजबूत स्थिति में भाजपा ही है

Keshav Prasad Maurya
संजय सक्सेना । Jun 23 2021 10:13AM

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बात अन्य दलों के मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की कि जाए तो बीजेपी से इत्तर एक मात्र अन्य राष्ट्रीय दल का रूतबा रखने वाली कांग्रेस के पास कथित रूप से प्रियंका वाड्रा के अलावा यूपी में सीएम के लायक कोई चेहरा ही नहीं है।

उत्तर प्रदेश में अगले वर्ष होने वाले विधान सभा चुनाव के लिए भारतीय जनता पार्टी आलाकमान ने बिसात बिछाना शुरू कर दी है। कौन होगा मुख्यमंत्री पद का दावेदार ? इस ‘रहस्य’ से पर्दा लगभग हट चुका है। 2022 में होने वाले विधान सभा चुनाव में मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ही बीजेपी की तरफ से मुख्यमंत्री का चेहरा होंगे, लेकिन इसको लेकर कुछ बीजेपी नेता संशय भी बढ़ा रहे हैं। इसमें सबसे बड़ा नाम बीजेपी के पिछड़ा समाज से आने वाले नेता केशव प्रसाद मौर्य का है जो 2017 चुनाव के समय संगठन की कमान संभाले हुए थे और सीएम पद के सबसे बड़े दावेदार बने हुए थे, लेकिन नतीजे आने के बाद केन्द्र ने योगी के हाथ सत्ता की चाबी सौंप दी। मौर्या का कद इतना बढ़ा है कि आलाकामन भी इनकी नाराजगी मोल नहीं लेना चाहता है। इसीलिए बीजेपी और संघ के कई दिग्गज नेता और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक मौर्य के यहां ‘गिला शिकवा’ दूर करने के लिए उनके आवास पर पहुंच गए। 

इसे भी पढ़ें: लंबे समय से हाशिये पर चल रहे ब्राह्मण मतदाता यूपी की राजनीति के केंद्र में आ गये हैं 

खैर, 2022 के विधान सभा चुनाव में योगी ही सीएम पद के दावेदार होंगे यह बात लगभग तय मानी जा रही है। इसी के साथ यूपी की सियासत में करीब छह माह से भारतीय जनता पार्टी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की किरकिरी का सबब बना पूर्व नौकरशाह एवं एमएलसी अरविंद शर्मा का ‘चैप्टर’ भी क्लोज हो गया है। शर्मा जी को यूपी भाजपा का उपाध्यक्ष बनाए जाने के साथ ही, उन तमाम सियासल कयासों पर भी विराम लग गया है जिसके तहत अरविंद के कभी डिप्टी सीएम तो कभी गृह विभाग संभाले जाने की संभावनाएं सियासी वातावरण में फैलाई जा रही थीं। शर्मा जी का चैप्टर क्लोज होने के साथ ही यह भी निश्चित माना जाने लगा है कि यूपी में बीजेपी की सत्ता में वापसी की जिम्मेदारी योगी और उनके 09 नवरत्न नौकरशाह के कंधों पर ही रहेगी, लेकिन चुनाव जीतने की रणनीति बीजेपी आलाकमान ही तय करेगा। योगी सीएम की कुर्सी के दावेदार और पार्टी के स्टार प्रचारक तो होंगे परंतु सुपर स्टार की भूमिका में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही रहेंगे। बीजेपी आलाकमान जानता है कि यूपी में अभी भी मोदी की लोकप्रियता योगी से कहीं अधिक है। बीजेपी आलाकमान की मंशा मोदी को आगे करके योगी सरकार के खिलाफ जनता की नाराजगी को कम करना है।

बात अन्य दलों के मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की कि जाए तो बीजेपी से इत्तर एक मात्र अन्य राष्ट्रीय दल का रूतबा रखने वाली कांग्रेस के पास कथित रूप से प्रियंका वाड्रा के अलावा यूपी में सीएम के लायक कोई चेहरा ही नहीं है। कांग्रेस की पुरानी लीडरशिप ‘बुढ़ा’ चुकी है और पिछले 15-20 वर्षों में पार्टी ने कोई नई लीडरशिप तैयार नहीं की, जो गिने-चुने नेता थे, वह पार्टी छोड़कर जा चुके हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि यूपी में दशकों से कांग्रेस की सियासत गांधी परिवार के इर्दगिर्द घूमती रही है। पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी, संजय गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी और अब प्रियंका वाड्रा सभी ने देश में चाहें जितना नाम कमाया हो, लेकिन इन सबने अपनी सियासी जमीन उत्तर प्रदेश से ही मजबूत की थी। नेहरू-गांधी परिवार की यूपी में जबर्दस्त पकड़ थी, जिसके चलते कांग्रेस ने वर्षों तक देश पर राज किया और सियासत में यह ‘मुहावरा’ भी फिट कर दिया गया कि ‘दिल्ली का रास्ता, यूपी से होकर जाता है।’ लेकिन इस हकीकत पर अब पर्दा पड़ चुका है। 2014 में मोदी लहर में भी अमेठी का दुर्ग बचाये रहने में कामयाब रहे राहुल गांधी पांच वर्ष बाद 2019 के लोकसभा चुनाव आते-आते अमेठी में अपने आप को इतना असहाय समझने लगे कि वह अमेठी के साथ-साथ केरल की वायनाड संसदीय सीट से चुनाव लड़ने पहुंच गए। राहुल का यह छलावा अमेठी की जनता को रास नहीं आया और उसने बीजेपी प्रत्याशी के रूप में स्मृति ईरानी को अपना नया सांसद चुन लिया। इस तरह से करीब छह दशक में जिस यूपी ने कांग्रेस को ‘फर्श से अर्श’ तक पहुंचाया था, उसने 2019 के लोकसभा चुनाव में उसे ‘अर्श से फर्श’ पर लाने में भी कोई संकोच नहीं किया, लेकिन 2014 हो या फिर 2019 का लोकसभा चुनाव दिल्ली का रास्ता यूपी से ही होकर गया। बस नायक बदल गए। पहले गांधी परिवार ‘नायक’ की भूमिका में रहता था, अब यही किरदार बीजेपी और पीएम मोदी निभा रहे हैं। आज जो सियासी हालात हैं उसमें लगभग यह तय माना जा रहा है यूपी की सत्ता के लिए राष्ट्रीय दल का रूतबा रखने वाली बीजेपी और उसके बाद क्षेत्रीय दल समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ही सत्ता की मजबूत दावेदार हैं। सपा-बसपा की तरफ से क्रमशः अखिलेश यादव और मायावती मुख्यमंत्री पद की दावेदार होंगी।

लब्बोलुआब यह है कि जिस भी दल का सियासी समीकरण फिट बैठ जाएगा, वह ही सत्ता पर काबिज हो जाएगा। इसके लिए यूपी में चल रही पिछले कुछ महीनों की सियासत पर भी गौर करना होगा। फिलहाल, पंचायत चुनाव में जमीनी हकीकत का अंदाजा लगने के बाद बीजेपी केंद्रीय नेतृत्व की सक्रियता का असर सरकार से संगठन तक हर स्तर पर नजर आने लगा है। हालंकि यह सक्रियता अभी कई स्तर पर दिखनी बाकी है। जहां कई समस्याओं के समाधान के लिए नीतिगत पहल का इंतजार है। दरअसल, पिछले काफी समय से सरकार से लेकर संगठन तक दुविधा में नजर आ रहे हैं। जनप्रतिनिधियों का फीडबैक था कि सीएम योगी की शह मिलने के चलते उनके सही कामों की भी कलेक्टर और कप्तान अनदेखी करते हैं। बार-बार के फीडबैक के बाद भी इस स्थिति में सुधार नहीं हो पा रहा था। सरकार से लेकर संगठन तक तमाम पद खाली थे, लेकिन उन्हें भरा नहीं जा रहा था, जिससे कार्यकर्ताओं में नाराजगी बढ़ रही थी। नाराज कार्यकर्ताओं का कहना था कि जब सियासी फायदा लेना होता है तब बूथ कार्यकर्ता ढूंढ़ा जाता है, लेकिन जरूरत पर बड़े पदाधिकारियों को छोड़ मंडल का प्रमुख कार्यकर्ता भी मंत्री तक नहीं पहुँच पाता है। मंत्रियों का जिला भ्रमण सरकारी बैठक व बड़े पदाधिकारियों के साथ समन्वय बैठक तक सिमट जाता है। 

इसे भी पढ़ें: साक्षात्कारः जितिन प्रसाद ने कहा- परिस्थितियां बदलवाती हैं सियासत में भूमिकाएं 

उक्त हालातों के चलते कोई दावे से यह नहीं कह पा रहा है कि यूपी में अबकी से किस दल की सरकार बनेगी। भारतीय जनता पार्टी को भी इस बात का अहसास है इसलिए उसने चार साल से बोतल में बंद ‘हिन्दुत्व’ को फिर से बाहर निकल लिया है, जिसे 2017 का विधान सभा चुनाव जीतने के बाद बीजेपी ‘बोतल’ में बंद करके भूल गई थी। योगी सरकार द्वारा अपने पूरे कार्यकाल के दौरान ऐसा कुछ नहीं किया गया जिससे उसके वोटरों को इस बात का अहसास हो पाता कि उसने सरकार चुनने में कोई गलती नहीं की थी। इसके उलट योगी सरकार ‘सबका साथ, सबका विकास’ और सबका विश्वास’ जीतने के चक्कर में ऐसी फंसी की वह 'न इधर की रही न उधर की’ रही, जो मतदाता छोटे-बड़े तमाम चुनावों में ताल ठोंक कर कहते मिल जाते हैं कि वह लोग बीजेपी प्रत्याशी को हराने वाले के पक्ष में वोटिंग करते हैं, उन्हीं की नाराजगी से बचने के चक्कर में योगी सरकार कई मौकों पर बैकफुट पर नजर आई। चाहे बात अवैध बूचड़खानों की हो या फिर खुले में मांस की बिक्री का मसला या फिर कोर्ट के आदेश के बाद भी मस्जिद से लाउडस्पीकर नहीं हटा पाने की मजबूरी ? कहीं भी योगी सरकार निर्णायक भूमिका में नजर नहीं आई। कहने को तो योगी सरकार ने ‘लव जेहाद’ के खिलाफ कानून बना दिया है। मगर लव जेहाद की शिकार लड़कियों की सुनवाई आज भी कहीं नहीं हो पा रही है। छद्म नाम के सहारे हिन्दू लड़कियों को लव जेहादी अपने जाल में फंसा रहे हैं।

बात 2017 के विधान सभा चुनाव में बीजेपी की पक्ष में बम्पर मतदान करने वाले वोटरों के नजरिये की कि जाए तो, बीजेपी के पक्ष में वोटिंग करने वालों को यही लगता था कि योगी सरकार जरूर ऐसा कुछ करेगी, जिससे जातियों में बंटा हिन्दू समाज एकजुट और जाग्रत होगा। इसके लिए सरकार ने कोरी बयानबाजी के अलावा क्या कदम उठाए कोई नहीं जानता है। सरकार चाहती तो नगर निकाय और पंचायत चुनाव की वोटिंग को अनिवार्य बना सकती थी।

  उधर पार्टी सूत्रों का कहना है कि वह 2014 के लोकसभा व 2017 के विधानसभा चुनाव फॉमूले पर मैदान में उतरेगी। इन दोनों चुनावों में पार्टी ने हिंदुत्व और सामाजिक न्याय के मुद्दे पर चुनाव लड़ा था। पार्टी सामूहिक नेतृत्व का भी संदेश देगी। इसके तहत क्षेत्र विशेष में जाति विशेष के कद्दावर नेताओं को चुनाव प्रचार में अहमियत दी जाएगी। सूत्रों का कहना है कि कोरोना की दूसरी लहर के अलावा कई अन्य कारणों से प्रदेश के लोगों में नाराजगी है हालांकि, यह नाराजगी अभी किसी प्रतिद्वंद्वी दल के प्रति प्रेम में नहीं बदली। नाराजगी दूर करने और अपनी पकड़ कायम रखने के लिए पार्टी और सरकार के स्तर पर जल्द ही बड़ा अभियान छेड़ने की तैयारी है।

-संजय सक्सेना

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़