क्या साहेब को सत्ता मोह ले डूबा ? उद्धव ठाकरे की किन गलतियों की सजा भुगत रही है शिवसेना

By अनुराग गुप्ता | Jun 27, 2022

महाराष्ट्र में राजनीतिक घटनाक्रम अचानक नहीं बदला है बल्कि आज जो कुछ घटित होता दिख रहा है वह अवश्यम्भावी था। दरअसल सत्ता के लिए विपरीत विचारधारा वाले दलों के साथ गठबंधन तो कर लिया गया लेकिन जब पदों का बंटवारा हुआ तो शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं की महत्वाकांक्षाएं पूरी नहीं हो पाईं। यही कारण है कि पद से वंचित रहे नेताओं की नाराजगी समय-समय पर सामने आती रही। जब अति हो गयी तो शिवसेना के बागी नेता एकनाथ शिंदे ने पार्टी के अधिकांश विधायकों को अपने साथ कर लिया। यही नहीं कई पूर्व और वर्तमान पार्षद भी उनके साथ आ गये हैं और माना जा रहा है कि जल्द ही कुछ सांसद भी शिंदे गुट के साथ खड़े नजर आयेंगे। यह सब दर्शाता है कि गठबंधन सरकार बचाने और चलाने में व्यस्त रहे उद्धव ठाकरे अपनी पार्टी पर ध्यान नहीं दे पाये। सत्ता और संगठन में जब दूरियां बढ़ती हैं तो इसी तरह के परिणाम सामने आते हैं। 


शह और मात के खेल में उद्धव ठाकरे ने भावुक अपील करके बागी विधायकों को मानने की कोशिश की लेकिन बागी विधायकों के कानों में जू नहीं रेगी। इसी बीच उन्होंने एकनाथ शिंदे पर निशाना साधते हुए कहा कि अगर शिवसेना का एक कार्यकर्ता मुख्यमंत्री बनने जा रहा है तो आपको उनके (भाजपा) साथ जाना चाहिए। लेकिन अगर आप उपमुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं तो आपको मुझे बताना चाहिए था, मैं आपको उपमुख्यमंत्री बना देता।

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प्रभासाक्षी के संपादक नीरज कुमार दुबे ने बताया कि शिवसेना के सामने कोई पहली बार संकट के बादल नहीं छाए हैं। इससे पहले संजय निरुपम, नारायण राणे और राज ठाकरे जैसे नेताओं के समय में भी शिवसेना में फूट पड़ी थी लेकिन उस वक्त बालासाहेब ठाकरे के पास पार्टी की कमान थी और उन्होंने हमेशा सत्ता से ज्यादा संगठन को अहम माना है। इसी वजह से शिवसेना अभी तक बची रही। इसके साथ ही नीरज कुमार दुबे ने बताया कि यह चुराया हुआ जनादेश था। दरअसल, साल 2019 के विधानसभा चुनाव में मतदाताओं ने भाजपा-शिवसेना गठबंधन को वोट दिया था। चुनाव के समय शिवसेना ने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा लेकिन परिणामों के बाद सत्ता की लालच में पार्टी से अलग हो गई। उस वक्त जनता ने भाजपा को सबसे ज्यादा सीटें देकर विजयी बनाया था लेकिन रणनीतियां बनाकर शिवसेना अपनी मूल विचारधारा से अलग हो गई और एनसीपी-कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बना ली।

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मौजूदा घटनाक्रम के परिपेक्ष्य में संपादक महोदय ने बताया कि अगर अभी बालासाहेब ठाकरे जिंदा होते तो वो सत्ता से ज्यादा पार्टी को अहमियत देते। उन्हें एक सेकंड भी नहीं लगता मुख्यमंत्री पद छोड़ने में और फिर शिवसेना को मजबूत करने की कवायद शुरू होती। बालासाहेब ठाकरे का अपना रुतबा था, नेता उनसे मिलने आते थे लेकिन उद्धव ठाकरे मातोश्री से निकलकर नेताओं से मिलने जाते हैं। वो दिल्ली आते हैं तो सोनिया गांधी से मुलाकात करते हैं। उन्होंने अपना अलग रास्ता चुना। 


हिंदुत्व के मुद्दे से दूर हुई शिवसेना

महाविकास अघाड़ी गठबंधन में शामिल होने के बाद शिवसेना ने अपने मुख्य मुद्दे हिंदुत्व से दूरियां बना ली। बागी विधायक भी ऐसा ही आरोप लगा रहे हैं। दरअसल, साधुओं की लिंचिंग समेत इत्यादि मुद्दे में गठबंधन साथी होने की वजह से उद्धव ठाकरे के रुख काफी अलग दिखाई दिया। जबकि बालासाहेब ठाकरे के लिए हिंदुत्व सर्वोपरि रहा है। इतना ही नहीं बालासाहेब ठाकरे के दरवाजे हमेशा पार्टी कार्यकर्ताओं समेत इत्यादि लोगों के लिए खुले रहते थे। जबकि ढाई साल से उद्धव ठाकरे के दरवाजे विधायकों के लिए बंद थे। ऐसा बागी विधायकों ने ही आरोप लगाया है। हालांकि उद्धव ठाकरे काफी समय से बीमार थे।


- अनुराग गुप्ता

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