महामहिम रह चुके व्यक्ति क्यों बनना चाहते हैं माननीय

By अंकित सिंह | Sep 19, 2019

 कहते हैं राजनीति में संभावनाएं कभी खत्म नहीं होती हैं और यही कारण है कि नेता जिंदगी भर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पाले हुए रहते हैं। पर बहस तब शुरू हो जाती है जब एक संवैधानिक पद से सेवामुक्त हुआ व्यक्ति वापस राजनीति में सक्रिय होने की बात करता है। एक बार फिर से यह चर्चा सुर्खियों में है। कारण यह है कि हाल-फिलहाल में 3 राज्यों के सेवामुक्त हुए राज्यपाल एक बार फिर से वापस सक्रिय राजनीति में आने की घोषणा कर चुके हैं। राजस्थान के राज्यपाल रह चुके कल्याण सिंह बीजेपी की राजनीति में एक बार फिर से सक्रिय हो गए हैं तो वहीं महाराष्ट्र के राज्यपाल रह चुके विद्यासागर राव भी अपनी सक्रिय राजनीति में वापसी की बात कर रहे हैं। उधर मुंबई में भी उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रह चुके राम नाईक ने कहा है कि वह भी पार्टी की राजनीति में अब सक्रिय होने का मन बना रहे हैं। हैरानी की बात यह है कि तीनों उस पार्टी में सक्रिय होने जा रहे हैं जिस पार्टी में कहा जाता है कि 75 के बाद आपकी राजनीति खत्म हो जाती है। कल्याण सिंह 87 वर्ष के हैं, राम नाईक 85 वर्ष के हैं जबकि विद्यासागर राव 77 वर्ष के हैं। हालांकि भारतीय राजनीति में यह कोई नई बात नहीं है।

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90 के दशक में इस परंपरा की शुरुआत हुई थी। इससे पहले राज्यपाल उन्हीं व्यक्तियों को बनाया जाता था जो सक्रिय राजनीति को अलविदा कह चुके होते थे या फिर सक्रिय राजनीति में अब उनकी उपयोगिता क्षीण हो गई हो। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे और वर्तमान में भाजपा से जुड़े कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एसएम कृष्णा और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार शिंदे भी ऐसा पहले कर चुके हैं। एसएम कृष्णा ने तो ऐसा 2 बार किया है। एसएम कृष्णा ने 2004 में मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद राज्यपाल के तौर पर महाराष्ट्र में अपनी सेवाएं दी थीं। बाद में वह सक्रिय राजनीति में वापसी करते हुए मनमोहन सिंह की सरकार में विदेश मंत्री बनते हैं। वहीं सुशील कुमार शिंदे भी 2004 में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद जहां आंध्र प्रदेश के राज्यपाल बने। दोबारा सक्रिय राजनीति में वापसी करते हुए देश के गृह मंत्री भी बने। 2014 में भी यह तब देखने को मिला जब कांग्रेस ने केरल के राज्यपाल से निखिल कुमार सिंह को सेवामुक्त कर तत्काल लोकसभा चुनाव में उतरने को कहा। निखिल कुमार ने बिहार के औरंगाबाद से चुनाव लड़ा पर वह हार गए। 

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कुछ दिन पहले भी हमने देखा कि किस तरीके से शीला दीक्षित केरल की राज्यपाल से सेवा मुक्त होने के बाद दिल्ली की सक्रिय राजनीति में वापसी करती हैं और बाकायदा प्रदेश इकाई की अध्यक्ष भी बनयी जाती हैं। उन्होंने 2019 का लोकसभा चुनाव भी लड़ा। राज्यपाल रह चुके नेताओं की सक्रिय राजनीति में वापसी उनकी पार्टी के लिए भी कभी कभार जरूरी साबित होती है। जैसे कि कांग्रेस को लगा कि सुशील शिंदे को हमें गृह मंत्री के रूप में बनाना होगा। तो वहीं शीला दीक्षित का विकल्प दिल्ली में ना मिल पाने के कारण उन्हें कांग्रेस ने वापस राजनीति में सक्रिय होने को कहा। कल्याण सिंह, विद्यासागर राव और राम नाईक के भी मामले में कुछ ऐसा ही नजर आता है। हालांकि भाजपा इस पर कुछ कहने से बच रही है। उत्तर प्रदेश में 13 सीटों पर उपचुनाव हैं ऐसे में कल्याण सिंह को एक बार फिर से सक्रिय राजनीति में वापसी करा कर भाजपा पिछड़ा वर्ग को साधने की कोशिश कर रही है। इसके अलावा कल्याण सिंह जब तक पार्टी से जुड़े रहेंगे हिंदुत्व और राम मंदिर के एजेंडे को बल मिलता रहेगा। वहीं पार्टी तेलंगाना में भी अपना भविष्य देख रही है। ऐसे में विद्यासागर राव के अनुभव को देखते यह सही भी लगता है। वह तेलंगाना के वरिष्ठ नेता रह चुके हैं। वह संयुक्त आंध्रप्रदेश में सदन के भी नेता रह चुके हैं। यह माना जा सकता है कि तेलंगाना में उनकी मौजूदगी पार्टी को मजबूत कर सकती है। राम नाईक की बात करें तो महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव को देखते हुए उनकी सक्रिय राजनीति में वापसी कहीं ना कहीं पार्टी के लिए जरूरी है।

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पर सवाल जस का तस है कि क्या राज्यपाल या संवैधानिक पद पर रह चुका व्यक्ति सक्रिय राजनीति में लौट सकता है? इनका सक्रिय राजनीति में लौटना कितना जायज है? कानून या फिर संविधान के हिसाब से देखें तो ऐसा कहीं भी नहीं लिखा हुआ है कि संवैधानिक पद पर रह चुके व्यक्ति को सक्रिय राजनीति में वापसी का अधिकार नहीं है। लोकतंत्र के हिसाब से भी देखें तो हर नागरिक को अपने मिले अधिकारों का पालन करने का हक है। ऐसे मामलों में हमने राजनीतिक बहस भी बहुत ही कम होते देखा है। वहीं कई नेताओं का यह भी मानना है कि जो परंपरा चल रही है, उसे चलने दिया जाना चाहिए। जो सवाल सबसे ज्यादा उठता है वह यह है कि संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति अपने विचारों को लेकर पक्षपात कैसे कर सकता है? इसीलिए हमने बहुत कम देखा है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे व्यक्ति या फिर राष्ट्रपति रहे व्यक्ति वापस राजनीति में सक्रिय हुए हैं। इनका विचार भी दलगत राजनीति से ऊपर रहते हैं। लेकिन राज्यपाल के मामले में ऐसा होता नहीं दिख रहा है। खैर, राज्यपाल का पद छोड़ कर वापस सक्रिय राजनीति में आने वाले व्यक्ति ही इस पर साफगोई से अपनी बात रख सकते हैं या फिर उनकी पार्टी।

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जैसा कि हमने ऊपर भी जिक्र किया है कि राज्यपाल रह चुके व्यक्तियों की राजनीति में वापसी कहीं ना कहीं पार्टी के लिए भी जरूरी होती है। लेकिन कभी-कभार यह पार्टी के लिए नुकसानदायक भी साबित होती है। जाहिर सी बात है राज्यपाल रह चुका व्यक्ति राज्य स्तरीय राजनीति का वरिष्ठ नेता रहा होगा। ऐसे में उनकी वापसी के बाद से राज्य में पार्टी की राजनीति में गुटबाजी का दौर शुरू हो जाता है, जैसा कि हमने दिल्ली में शीला दीक्षित के वापसी के बाद देखा। इसके अलावा इन नेताओं की वापसी युवा पीढ़ी या फिर आगे की पीढ़ी को आगे बढ़ने में बाधक साबित होती है। कभी-कभी हमने यह भी देखा है कि पार्टी आलाकमान को राज्य की इकाई यह कह देता है कि इन नेताओं को आप राज्य से बाहर ही रखिए जैसा कि सुशील कुमार शिंदे और एसएम कृष्णा के मामले में भी नजर आया जब उन्हें राज्य की राजनीति से बाहर कर केंद्र की राजनीति में कांग्रेस लेकर आई। खैर, संवैधानिक पद का तो पता नहीं पर इन नेताओं की सक्रिय राजनीति में वापसी पार्टी के लिए कितना फायदेमंद रहती है यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। पर जो बहस यह छोड़कर जा रहे हैं यह शायद अभी कई सालों तक चलने वाला है। 

 

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