Guru purnima 2025: कृपा करहुँ ‘गुरुदेव’ की नाईं

By सुरेश हिंदुस्तानी | Jul 10, 2025

जै जै जै हनुमान गोसाईं, कृपा करहुं गुरुदेव की नाईं। सब जानते हैं कि यह हनुमान चालीसा की चौपाई है। इस चौपाई का अर्थ क्या है? इस पर कम ही ध्यान देते होंगे। हम इस चौपाई के माध्यम से वीर हनुमान जी से गुरू की तरह आशीर्वाद चाहते हैं। याद रखिए आशीर्वाद हमेशा फलीभूत होता है। हनुमान जी की कृपा बहुत जल्दी प्राप्त होती है। हनुमान जी हर दृष्टि से आदर्श हैं। उनसे बड़ा भगवान का सेवक दूसरा नहीं है। भक्ति सेवा के माध्यम से होती है। वे भगवान राम का नाम सुनने से प्रसन्न रहते हैं। उनसे प्रतिदिन राम-राम कहने का स्वभाव बना लीजिए, वह आपका जीवन संवार देंगे। जो जीवन को संवारने की क्षमता रखता है। जो ज्ञान को आत्मसात करता है, वही ज्ञानी कहलाता है। उसका आचरण भी वैसा ही हो जाता है। भारत के ऋषि मुनियों ने इसी ज्ञान मार्ग पर चलकर दुनिया को जीवन का दर्शन दिया है। यह दर्शन केवल भारत की संस्कृति दे सकती है। इस संस्कृति को धारण करने वाले हमारे गुरू ही हो सकते हैं। हमारे मनीषियों ने ऐसे व्यक्तित्वों के लिए गुरु शब्द ऐसे ही नहीं दिया। इसका बहुत व्यापक अर्थ है। दो अक्षर के गुरू शब्द में ही इसकी महिमा छिपी है। संस्कृत में 'गु’ का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और 'रु’ का अर्थ हटाने वाला। यानी गुरु वह होता है जिसमें जीवन से अज्ञान का अंधेरा हटाने की सामर्थ निहित हो। भारत की सनातन संस्कृति में गुरु को एक परम भाव माना गया है जो कभी नष्ट नहीं हो सकता। इसीलिए हमारे यहां गुरु को व्यक्ति नहीं, अपितु विचार की संज्ञा दी गयी है। व्यक्ति कभी गुरू हो ही नहीं सकता, उसका विचार क्या है, वह समाज को कितना जाग्रत करता है? यही उसको गुरू बनाने का कारण है। भारत में कई उदाहरण ऐसे भी मिल जाते हैं, जो किसी न किसी प्रतीक को ही अपना आदर्श बनाकर प्रेरणा प्राप्त कर लेता है। यह सार्वभौमिक सत्य है कि भारत के मानबिन्दुओं में प्रेरणा विद्यमान है, इसको देखने के लिए ज्ञान का होना बहुत ही आवश्यक है। इस ज्ञान को विकसित करने के लिए हमारे जीवन में गुरू का होना जीवन को दिशा देने के समान ही है। यह बात सही है कि व्यक्ति किसी न किसी के माध्यम से नियमित रूप से सीखता है। जहां से अच्छी सीख मिले वही गुरू है। गुरु वो है, जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाये। हमें अच्छे बुरे का भान कराये। जब हम रास्ते से भटक रहे हों तो हमें अपने ज्ञान की उंगली पकड़ाकर सही रास्ते की ओर ले जाये।

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गुरूपूर्णिमा महोत्सव हर साल आषाढ़ के महीने में पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। इस दिन सभी धार्मिक लोग अपने आध्यात्मिक गुरु और प्रेरणा प्रतीकों की पूजा करते हैं। विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कई अवसरों पर भारत की विजय का प्रतीक रहे भगवा ध्वज को अपना गुरू माना है। आज भगवा ध्वज के बारे में जिस प्रकार का भ्रम फैलाया जाता है, वह भारत के सच को नकारने का एक प्रयास भर है। इनको भारत का प्राचीन इतिहास नहीं पता। गुलामी के कालखंड से पूर्व के भारत का अध्ययन करेंगे तो हमें भगवा का विराट दर्शन हो सकता है। भगवा भारत का आराध्य है। संघ ने इसी पृष्ठभूमि को आधार बनाकर ही भगवा ध्वज को अपने गुरू स्थान पर विराजित किया है। कहने का अर्थ यही है कि गुरू सनातन काल से शाश्वत हैं। गुरू की पूजा से हमें निरंतर कुछ न कुछ सीखना चाहिए।


भारत में मां को प्रथम गुरु माना गया है, अगर आप विचार करेंगे, तो बचपन में जो कुछ भी हम सीखते हैं वह माँ से सीखते हैं। यह बात शास्त्रों में भी आती है। यह भी सच है कि बचपन के संस्कार कभी मिट नहीं सकते। इसलिए बच्चे को बचपन से ही अच्छे संस्कार देने का क्रम प्रारंभ कर देना चाहिए। व्यावहारिक जीवन में हमारे कई गुरु हो सकते हैं। त्रेता युग में भी दशरथ महाराज के कई गुरु थे। उनके आध्यात्मिक गुरु वशिष्ठ जी ही थे जो उनके पूर्वजों के समय से चले आ रहे थे। भगवान दत्तात्रेय ने 24 गुरू बनाए। इसका अर्थ यह भी है कि उन्होंने अपने जीवन को आदर्श बनाने के लिए हर जगह से सीखने का प्रयास किया। जिस दिन आपके मन में गुरु के प्रति सच्ची श्रद्धा हो जाएगी, आपको गुरु मिल जाएँगे। गुरु स्वयं आपको खोजते हुए आ जाएँगे। जिस दिन आप खुद अच्छे हो जाएँगे, उस दिन आप को अच्छे गुरु भी मिल जाएँगे। यह बिना भगवान की कृपा के नहीं हो सकता। तात्पर्य यही है कि भगवान की कृपा निर्मल मन से ही प्राप्त होती है। निर्मलता ही ज्ञान के बीज को अंकुरित करती है। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा गया है कि बिनु हरि कृपा मिलहि नहि संता। यानी बिना भगवान की कृपा के आप को संत नहीं मिलते। संत का आशय मात्र भगवा धारण करने से नहीं होता। संत एक वृति है, जिसका मन शांत है, वही संत है। कपड़ा तो आवरण मात्र ही होता है। संत एक विश्वास का नाम है। आप विश्वास रखेंगे तो आप को अच्छे गुरु जरूर मिलेंगे। जिनके गुरु है वो अपने गुरु में पूरी श्रद्धा रखें। जिनको अभी तक गुरु नहीं मिले हैं वो हनुमान जी को अपना गुरु मान के अपने सुख दुख उनसे कहें।


कहना उचित ही होगा कि गुरूपूर्णिमा के दिन का हमारे जीवन में बहुत बड़ा महत्व है। इस दिन हम अपने आराध्य की साधना करते हैं। साधना का अर्थ अपने आपको साधने की प्रक्रिया है। जिसने अपने मन को गुरू की भक्ति में लीन कर दिया, उसके लिए गुरू भगवान के समान हैं। गुरू भी अपने सच्चे भक्त पर असीमित कृपा करते हैं। भारत में कई उदाहरण मिल जाते हैं कि मुसीबत के समय कोई व्यक्ति गुरू को याद करता है तो गुरू किसी न किसी रूप में उसको बचाने का काम करते हैं। गुरूपूर्णिमा तभी सार्थक है जब हम अपने आराध्य को सब कुछ अर्पण करने का भाव अपने मन में जाग्रत कर सकें। तभी हमें गुरू की कृपा मिल सकती है।


- सुरेश हिंदुस्तानी, 

वरिष्ठ पत्रकार

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